नीतीश कुमार ने कोविंद को समर्थन क्यों दिया?
राष्ट्रपति पद के लिए सर्वमान्य उम्मीदवार का नाम तय करने के लिए संसद भवन में 22 जून को विपक्षी दलों की हुई अहम बैठक में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कॉमरेड सीताराम येचुरी ने प्रकाश आंबेडकर का नाम सुझाया था। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद के रूप में दलित उम्मीदवार के नाम की घोषणा कर देने से विपक्ष के लिए भी दलित प्रत्याशी उतारना अपरिहार्य हो गया था। सोनिया गांधी की सूचना के अनुसार शरद पवार की ओर से तीन नामों का प्रस्ताव आया था। इन तीन नामों में प्रकाश आंबेडकर का नाम शामिल नहीं किया गया था। मीरा कुमार, सुशील कुमार शिंदे और भालचंद्र मुणगेकर के रूप में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए तीन नाम प्रस्तावित थे। हालांकि प्रकाश आंबेडकर का नाम तीनों की अपेक्षा ज़्यादा वज़नदार था। इन तीनों प्रस्तावित नामों की तुलना में प्रकाश आंबेडकर उम्र में सबसे छोटे हैं, क्या इसी कारण उनकी उम्मीदवारी की अनदेखी कर दी गई? तो इसका जवाब है ‘नहीं। कांग्रेस के “शीर्ष नेताओं” ने इस बात की पूरी कोशिश की कि प्रकाश आंबेडकर का नाम चर्चा में ही न आने पाए।
सोनिया गांधी और राहुल गांधी बेशक कांग्रेस के सर्वोच्च नेता हैं। परंतु निर्णय लेने का अधिकार हमेशा कांग्रेस के “शीर्ष नेताओं” के पास ही रहा है। इन “शीर्ष नेताओं” को आंबेडकर नाम से ही एलर्जी है। कांग्रेस भले ही गांधी-नेहरू और नेहरू-गांधी की पार्टी मानी जाती हो, लेकिन कांग्रेस के इन “शीर्ष नेताओं” की मंडली ने पार्टी में नरम हिंदुत्व की परिपाटी को हमेशा सशक्त बनाए रखा। देश को सर्वोत्तम संविधान देने के लिए डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को आमंत्रण देने वाली कांग्रेस ने हिंदू कोड बिल के विद्रोह के बाद डॉ आंबेडकर को दो बार पराजित किया। महात्मा गांधी के पौत्र डॉ. गोपाल कृष्ण देवदास गांधी ने यह उल्लेख किया है कि संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद को देश का पहला राष्ट्रपति बनने का गौरव हासिल हुआ, लेकिन संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर को उपराष्ट्रपति बनाने का सुंदर अवसर कांग्रेस ने ख़ुद ही गंवा दिया। आंबेडकर की उपेक्षा करने वाले कांग्रेस के नरम हिंदूवादी नेताओं ने आख़िरकार डॉ. सर्वपल्ली राधाकृषणन को उपराष्ट्रपति बना दिया।
डॉ. आंबेडकर का संघर्ष हिंदू धर्म में ब्राम्हणवाद के विरोध में था। न कि ब्राह्मणों के विरोध में। बल्कि डॉ. आंबडेकर ने ब्राह्मणों का साथ लेने के लिए महाड समता संघर्ष के जेधे, जवलकर जैसे गैर-ब्राह्मणों का भी विरोध किया। ब्राम्हण सहस्त्रबुद्धे के हाथों से मनुस्मृति की होली जलाई थी। उस संघर्ष में चिटणीस, टिपणीस, चित्रे जैसे कायस्थों ने भी बाबासाहेब का साथ दिया था। महाराष्ट्र के अनेक ब्राह्मण भी इस संघर्ष में आंबेडकर के साथ डटकर खड़े रहे। परंतु कांग्रेस के ब्राह्मणों ने भी हिंदू कोड बिल का ज़ोरदार विरोध किया और कायस्थ डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भी इन विरोधियों का साथ दिया, इसी कारण नेहरू को अपने क़दम पीछे लेने पड़े। उसी परंपरा का निर्वहन प्रकाश आंबेडकर के नाम के साथ किया गया हो, तो इसमें हैरानी की क्या बात है? क्या कांग्रेस ने डॉ आंबेडकर का स्मारक बनाने के लिए कभी खुद पहल की? आखिर स्मारक के लिए इंदु मिल की ज़मीन देने में इतनी देरी क्यों हुई? डॉ आंबेडकर को भारत रत्न देने के लिए जनता दल और विश्वनाथ प्रताप सिंह को सत्ता में आना पड़ा। धर्मांतरित दलितों को छूट देने के प्रसिडेंशियल ऑर्डर पर पहले राष्ट्रपति ने रोक लगा दी थी। वीपी सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद इनमें से सिर्फ़ बौद्धों को छूट मिलने लगी। कांग्रेस पार्टी ने जिस मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को बहुत लंबे समय तक ठंडे बस्ते में डाल कर रखा था, उस मंडल आयोग की सिफारिशों को भी वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद लागू किया।
आख़िरकार राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस ने प्रकाश आंबेडकर या फिर भालचंद मुणगेकर के नाम पर विचार क्यों नहीं किया? मीरा कुमार किसी भी दृष्टि से आंबेडकरवादी नहीं हैं। कांग्रेस के ‘शीर्ष’ नेताओं ने आंबेडकर का विकल्प जिस जगजीवन राम को माना था, मीरा कुमार उसी परंपरा की प्रतिनिधि हैं। इतना ही नहीं, सोनिया गांधी ने बाबासाहेब का नाम जितनी बार लिया होगा, उतनी बार मीरा कुमार ने कभी लिया होगा क्या? एक भी बार नही। रामनाथ कोविंद का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कभी भी कोई संबंध नहीं रहा। वह मोरारजी देसाई के सचिव थे। 1990 में वह भाजपा के संपर्क में आए। दरअसल, उस समय भाजपा को सोशल इंजीनियरिंग की सख़्त जरूरत थी। कोविंद राज्यसभा में सार्वजनिक तौर पर ख़ुद को बाबासाहेब का ऋणी स्वीकार कर चुके हैं। लेकिन मीरा कुमार का क्या? एक बार भी उन्होंने बाबासाहेब का आभार नहीं माना।
कांग्रेस के ये “शीर्ष नेता” अब नीतीश कुमार पर विपक्ष को कमज़ोर करने का आरोप लगाकर उन्हें कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि सच यह है कि सबसे पहले नीतीश कुमार ने पहल की थी कि सभी विपक्षी दलों को राष्ट्रपति पद के लिए सर्वसम्मति से उम्मीदवार तय करना चाहिए, नरेंद्र मोदी और भाजपा का पुरजोर विरोध करने के लिए राष्ट्रपति चुनाव में तगड़ा उम्मीदवार खड़ा करने का विपक्ष के पास सुनहरा अवसर है और हमें इसमें जीत भी हासिल हो सकती है। इसी विश्वास और दृढ़निश्चय के साथ नीतीश सबसे पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले थे। उन्होंने कॉमरेड सीताराम येचुरी समेत कई प्रमुख नेताओं से भी मुलाकात की थी। मुलाकात के दौरान कई नाम की चर्चा हुई। गोपाल कृष्ण गांधी के नाम पर सहमति भी बन गई थी। गोपाल कृष्ण गांधी एक ऐसा नाम है जो समूचे विपक्ष को एकजुट करता है। भाजपा के समक्ष कड़ी चुनौती खड़ी की जा सकती है। और विपक्ष के विजय का आग़ाज़ किया जा सकता है। इसी विश्वास और दृढ़संकल्प के साथ नीतीश कुमार ने गोपाल कृष्ण गांधी के लिए समर्थन मांगा था। सीताराम येचुरी और उनके मार्क्सवादी कम्युनिस्ट नेताओं ने खुले तौर पर और मन से गोपाल कृष्ण गांधी के नाम पर सहमति जताई थी। लेकिन कांग्रेस ने आख़िर तक उसे अधर में लटका कर रखा। आख़िरकार गोपाल कृष्ण गांधी के नाम में क्या कमी थी? वह पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल हैं, अशोक विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष हैं, सेवानिवृत्त नौकरशाह एवं डिप्लोमेट रहे हैं, वह दक्षिण अफ्रीका में भारत के राजदूत रह चुके हैं, वह विश्व विख्यात विद्वान और गांधी-आंबेडकर के विचारों के पैरोकार हैं, लेकिन कांग्रेस को उनके नाम से ही एलर्जी है। कारण यह है कि वह महात्मा गांधी के प्रपौत्र हैं।
कांग्रेस में “शीर्ष नेताओं को” गांधी-नेहरू कि नही नेहरू-गांधी की विरासत स्वीकार है। लेकिन नेहरू (इंदिरा) गांधी की इस परंपरा के लिए गोपाल कृष्ण गांधी बाधा हैं। विभाजन के विरोध में महात्मा गांधी हठपूर्वक अड़े रहे। तब कांग्रेस नेतृत्व के लिए गांधी भी समस्या लगने लगे थे। संविधान सभा में डॉ आंबेडकर का चयन कांग्रेस ने नहीं होने दिया। उन्हें बंगाल से आना पड़ा। इस बारे में महात्माजी ने सार्वजनिक तौर पर बयान भी दिया था। (3 फरवरी 1947) विभाजन के कारण बंगाल से मिली सदस्यता छिन जाने के कारण गांधी-नेहरू-पटेल के हस्तक्षेप से मुंबई एसेंबली ने बाबासाहेब का चयन किया था। यह बात सच है। परंतु संविधान देने के बाद भी कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने 1952 और 1954 के चुनाव में आंबेडकर को हराने की हर संभव कोशिश की। 1952 के चुनाव में कम्युनिस्टों ने मतदान में गड़बड़ी की थी। इस ग़लती को सुधारने के लिए मार्क्सवादी कम्युनिस्टों ने गोपाल कृष्ण गांधी को राज्यपाल के तौर पर पश्चिम बंगाल बुलाने का फ़ैसला किया। गोपाल कृष्ण गांधी को राष्ट्रपती बनाने की पैरवी सीताराम येचुरी ने काफ़ी मुखर होकर की थी।
चेन्नई में 3 जून को करुणानिधि के सम्मान के अवसर पर जुटे सभी विपक्षी दलों के नेताओं ने एक अनौपचारिक बैठक में गोपाल कृष्ण गांधी के नाम को सर्वसम्मति से मंजूर कर लिया था। नीतीश कुमार ने कॉमरेड सीताराम येचुरी से कहा था कि गोपाल कृष्ण गांधी के नाम की घोषणा पहले कर दें, भाजपा को अवसर न दें। इस बारे मे कांग्रेस से भी बातचीत कर लें। लेकिन हुआ इसके एकदम विपरीत। कांग्रेस ने नीतीश कुमार की बात को कोई तवज्जो ही नहीं दी। इस दौरान नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पक्षों से वार्ता करने के लिए जेटली-नायडू की कमेटी गठित कर दी। कांग्रेस ने विपक्षी दलों की सहमति से प्रस्तावित नाम को समर्थन देने की बजाय भाजपा से ही अपने उम्मीदवार के नाम की घोषणा करने का आग्रह किया। यह अप्रत्याशित एवं अविश्वसनीय क़दम था। मोदी-शाह ने इस अवसर का फायदा उठाया। रतन टाटा से लेकर अमिताभ बच्चन तक तमाम नामों को दरकिनार करते हुए अमित शाह ने रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा कर दी। रतन टाटा नागपुर के रेशम बाग जाकर सरसंघचालकों से मिलकर भी आए थे। इसका मतलब विपक्ष किसी ग़लतफ़हमी में था, यह बोलने से बेहतर यह कहना सही होगा कि कांग्रेस ने एक बहुत ही बेहतरीन अवसर को हाथ से जाने दिया। कांग्रेस ने एक तरह से सभी विपक्षी दलों को भाजपा की जाल (ट्रॅप में) में ढकेल दिया।
नेहरू परिवार के सभी नामों से देश के लोग भली-भांति परिचित हैं। गांधी जी के बच्चों, उनके नाती-पोते कहां हैं, यह देशवासियों को शायद ही पता होगा। गोपाल कृष्ण, राज मोहन, अरुण, इला गांधी जैसे लोगों ने कभी भी गांधी नाम का फायदा नहीं उठाया। ये लोग अपने अपने क्षेत्र में अपनी ज़िम्मेदारियों का वहन करते रहे। गांधी के तीनों प्रपौत्रों के दिल में आज भी गांधी हैं और उनका आंबेडकर के विचारों के प्रति गहरी आस्था और झुकाव है। गांधीजी की परपोती इला गांधी दक्षिण अफ्रीका में नेलसन मंडेला की सहयोगी रही हैं। वह उनके साथ जेल भी गई थीं। डरबन के गांधी आश्रम को जला दिया गया। तब रंगभेद के शिकार हुए जुलु समुदाय का क्या कसूर था? इन शब्दों में आफ्रिकन भारतीयों को गांधी के प्रपौत्र अरुण गांधी ने कडे शब्दों में खरीखुरी सुनाई थी। गोपाल कृष्ण गांधी कांग्रेस की इन्हीं नीतियों के ख़िलाफ़ अपने लेखों के माध्यम से आवाज़ उठाते रहे हैं।
'Exploitation of the charisma of the great dead is not the monopoly of one party alone, it is a national political pastime. Dr Ambedkar’s name has become a kamadhenu which all manner of self-promoters seek to milk.' (Apr 17, 2015, scroll. in)
कांग्रेस को आंबेडकर या गांधी की जरूरत क्यों हैं? इस सवाल का इससे स्पष्ट जवाब और क्या हो सकता है। इतनी तीखी टिप्पणी कांग्रेस के “शीर्ष नेताओं” को कैसे हजम होगी? आंबेडकर की पराजय की टीस यशवंतराव चव्हाण के मन में भी थी। इसीलिए महाराष्ट्र में उन्होंने दादासाहेब गायकवाड़ के साथ समझौता किया था। फुले, साहू आंबेडकर से ही महाराष्ट्र की पहचान बनी है। कांग्रेस के “शीर्ष नेताओं” को आज भी यह मंजूर नहीं है।
दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल के मुद्दे पर गांधी और आंबेडकर के बीच को लेकर हुआ संघर्ष इतिहास है। इस संघर्ष पर बहुत ज्यादा ध्यान न देते हुए, गांधी और आंबेडकर में समन्वय बनाकर आगे बढ़ना होगा। गांधीजी के मन मे जो टीस थी, उससे प्रभावित हुए बिना गोपाल कृष्ण गांधी आंबेडकरवादी हो गए। इस बीच रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा होने के बाद वह विपक्षी दलों का उम्मीदवार बनने का प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक नकार देते हैं।
नीतीश कुमार ने एक दिन इंतज़ार किया। जब कांग्रेस का दूत बनकर गुलाम नबी आज़ाद एक दिन पटना आए। तभी यह स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस गोपाल कृष्ण गांधी या प्रकाश आंबेडकर के नाम पर विचार करने के लिए भी राजी नहीं है। इन सबके बावजूद नीतीश कुमार 22 तारीख को दिल्ली की बैठक में जाने को तैयारी की थी। परंतु कांग्रेस के दूत ने उन्हें सूचना दी कि वह बैठक में शामिल ही न हों। ‘हम बाद में तय करके आपको सूचना दे देंगे’, आज़ाद के यह कहने के बाद नीतीश कुमार का दिल्ली जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था।
जब मोदी ने कांग्रेसमुक्त भारत की घोषणा की थी, उस समय एकमात्र नीतीश कुमार ने संघमुक्त भारत की घोषणा करके मोदी को उत्तर देने का साहस दिखाया था। कांग्रेस को सरदार पटेल और सुभाष बाबू से ही एलर्जी है, ऐसा नहीं है। उसे गांधी-आंबेडकर से और ज़्यादा एलर्जी है। संघ, भाजपा और मोदी की राजनीति का विकल्प कांग्रेस केंद्रित राजनीति नहीं हो सकती। लेकिन विपक्षी दलों की केंद्र से मिलीभगत वाली राजनीति कांग्रेस कर रही है? यदि भाजपा से उनका गुप्त समझौता नहीं था, तो उन्होंने गोवा और मणिपुर को क्यों हाथ से जाने दिया। गोवा, मणिपुर के बाद राष्ट्रपति पद के चुनाव में विजय की संभावना क्या कांग्रेस ने जानबूझकर नहीं गंवाई।
नीतीश कुमार विचारों से पक्के लोहियावादी और आचरण से उतने ही गांधीवादी हैं। गोपाल कृष्ण गांधी के विनम्र इनकार को सही अर्थों में लेते हुए और कांग्रेस की राजनीति को धत्ता दिखाते हुए उन्होंने रामनाथ कोविंद के नाम को समर्थन दे दिया। पराजय के लिए मीरा कुमार या प्रकाश आंबेडकर की बलि देना नीतीश कुमार को मंजूर नहीं था। फिर इसमें उन्होंने क्या गलत किया?
लोकसत्ता, 29 जून 2017 को प्रकाशित
कपिल पाटील
(लेखक महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य और महाराष्ट्र प्रदेश जनता दल युनाइटेड के अध्यक्ष हैं)
kapilhpatil@gmail.com
राष्ट्रपति पद के लिए सर्वमान्य उम्मीदवार का नाम तय करने के लिए संसद भवन में 22 जून को विपक्षी दलों की हुई अहम बैठक में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कॉमरेड सीताराम येचुरी ने प्रकाश आंबेडकर का नाम सुझाया था। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद के रूप में दलित उम्मीदवार के नाम की घोषणा कर देने से विपक्ष के लिए भी दलित प्रत्याशी उतारना अपरिहार्य हो गया था। सोनिया गांधी की सूचना के अनुसार शरद पवार की ओर से तीन नामों का प्रस्ताव आया था। इन तीन नामों में प्रकाश आंबेडकर का नाम शामिल नहीं किया गया था। मीरा कुमार, सुशील कुमार शिंदे और भालचंद्र मुणगेकर के रूप में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए तीन नाम प्रस्तावित थे। हालांकि प्रकाश आंबेडकर का नाम तीनों की अपेक्षा ज़्यादा वज़नदार था। इन तीनों प्रस्तावित नामों की तुलना में प्रकाश आंबेडकर उम्र में सबसे छोटे हैं, क्या इसी कारण उनकी उम्मीदवारी की अनदेखी कर दी गई? तो इसका जवाब है ‘नहीं। कांग्रेस के “शीर्ष नेताओं” ने इस बात की पूरी कोशिश की कि प्रकाश आंबेडकर का नाम चर्चा में ही न आने पाए।
सोनिया गांधी और राहुल गांधी बेशक कांग्रेस के सर्वोच्च नेता हैं। परंतु निर्णय लेने का अधिकार हमेशा कांग्रेस के “शीर्ष नेताओं” के पास ही रहा है। इन “शीर्ष नेताओं” को आंबेडकर नाम से ही एलर्जी है। कांग्रेस भले ही गांधी-नेहरू और नेहरू-गांधी की पार्टी मानी जाती हो, लेकिन कांग्रेस के इन “शीर्ष नेताओं” की मंडली ने पार्टी में नरम हिंदुत्व की परिपाटी को हमेशा सशक्त बनाए रखा। देश को सर्वोत्तम संविधान देने के लिए डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को आमंत्रण देने वाली कांग्रेस ने हिंदू कोड बिल के विद्रोह के बाद डॉ आंबेडकर को दो बार पराजित किया। महात्मा गांधी के पौत्र डॉ. गोपाल कृष्ण देवदास गांधी ने यह उल्लेख किया है कि संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद को देश का पहला राष्ट्रपति बनने का गौरव हासिल हुआ, लेकिन संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर को उपराष्ट्रपति बनाने का सुंदर अवसर कांग्रेस ने ख़ुद ही गंवा दिया। आंबेडकर की उपेक्षा करने वाले कांग्रेस के नरम हिंदूवादी नेताओं ने आख़िरकार डॉ. सर्वपल्ली राधाकृषणन को उपराष्ट्रपति बना दिया।
डॉ. आंबेडकर का संघर्ष हिंदू धर्म में ब्राम्हणवाद के विरोध में था। न कि ब्राह्मणों के विरोध में। बल्कि डॉ. आंबडेकर ने ब्राह्मणों का साथ लेने के लिए महाड समता संघर्ष के जेधे, जवलकर जैसे गैर-ब्राह्मणों का भी विरोध किया। ब्राम्हण सहस्त्रबुद्धे के हाथों से मनुस्मृति की होली जलाई थी। उस संघर्ष में चिटणीस, टिपणीस, चित्रे जैसे कायस्थों ने भी बाबासाहेब का साथ दिया था। महाराष्ट्र के अनेक ब्राह्मण भी इस संघर्ष में आंबेडकर के साथ डटकर खड़े रहे। परंतु कांग्रेस के ब्राह्मणों ने भी हिंदू कोड बिल का ज़ोरदार विरोध किया और कायस्थ डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भी इन विरोधियों का साथ दिया, इसी कारण नेहरू को अपने क़दम पीछे लेने पड़े। उसी परंपरा का निर्वहन प्रकाश आंबेडकर के नाम के साथ किया गया हो, तो इसमें हैरानी की क्या बात है? क्या कांग्रेस ने डॉ आंबेडकर का स्मारक बनाने के लिए कभी खुद पहल की? आखिर स्मारक के लिए इंदु मिल की ज़मीन देने में इतनी देरी क्यों हुई? डॉ आंबेडकर को भारत रत्न देने के लिए जनता दल और विश्वनाथ प्रताप सिंह को सत्ता में आना पड़ा। धर्मांतरित दलितों को छूट देने के प्रसिडेंशियल ऑर्डर पर पहले राष्ट्रपति ने रोक लगा दी थी। वीपी सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद इनमें से सिर्फ़ बौद्धों को छूट मिलने लगी। कांग्रेस पार्टी ने जिस मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को बहुत लंबे समय तक ठंडे बस्ते में डाल कर रखा था, उस मंडल आयोग की सिफारिशों को भी वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद लागू किया।
आख़िरकार राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस ने प्रकाश आंबेडकर या फिर भालचंद मुणगेकर के नाम पर विचार क्यों नहीं किया? मीरा कुमार किसी भी दृष्टि से आंबेडकरवादी नहीं हैं। कांग्रेस के ‘शीर्ष’ नेताओं ने आंबेडकर का विकल्प जिस जगजीवन राम को माना था, मीरा कुमार उसी परंपरा की प्रतिनिधि हैं। इतना ही नहीं, सोनिया गांधी ने बाबासाहेब का नाम जितनी बार लिया होगा, उतनी बार मीरा कुमार ने कभी लिया होगा क्या? एक भी बार नही। रामनाथ कोविंद का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कभी भी कोई संबंध नहीं रहा। वह मोरारजी देसाई के सचिव थे। 1990 में वह भाजपा के संपर्क में आए। दरअसल, उस समय भाजपा को सोशल इंजीनियरिंग की सख़्त जरूरत थी। कोविंद राज्यसभा में सार्वजनिक तौर पर ख़ुद को बाबासाहेब का ऋणी स्वीकार कर चुके हैं। लेकिन मीरा कुमार का क्या? एक बार भी उन्होंने बाबासाहेब का आभार नहीं माना।
कांग्रेस के ये “शीर्ष नेता” अब नीतीश कुमार पर विपक्ष को कमज़ोर करने का आरोप लगाकर उन्हें कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि सच यह है कि सबसे पहले नीतीश कुमार ने पहल की थी कि सभी विपक्षी दलों को राष्ट्रपति पद के लिए सर्वसम्मति से उम्मीदवार तय करना चाहिए, नरेंद्र मोदी और भाजपा का पुरजोर विरोध करने के लिए राष्ट्रपति चुनाव में तगड़ा उम्मीदवार खड़ा करने का विपक्ष के पास सुनहरा अवसर है और हमें इसमें जीत भी हासिल हो सकती है। इसी विश्वास और दृढ़निश्चय के साथ नीतीश सबसे पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले थे। उन्होंने कॉमरेड सीताराम येचुरी समेत कई प्रमुख नेताओं से भी मुलाकात की थी। मुलाकात के दौरान कई नाम की चर्चा हुई। गोपाल कृष्ण गांधी के नाम पर सहमति भी बन गई थी। गोपाल कृष्ण गांधी एक ऐसा नाम है जो समूचे विपक्ष को एकजुट करता है। भाजपा के समक्ष कड़ी चुनौती खड़ी की जा सकती है। और विपक्ष के विजय का आग़ाज़ किया जा सकता है। इसी विश्वास और दृढ़संकल्प के साथ नीतीश कुमार ने गोपाल कृष्ण गांधी के लिए समर्थन मांगा था। सीताराम येचुरी और उनके मार्क्सवादी कम्युनिस्ट नेताओं ने खुले तौर पर और मन से गोपाल कृष्ण गांधी के नाम पर सहमति जताई थी। लेकिन कांग्रेस ने आख़िर तक उसे अधर में लटका कर रखा। आख़िरकार गोपाल कृष्ण गांधी के नाम में क्या कमी थी? वह पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल हैं, अशोक विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष हैं, सेवानिवृत्त नौकरशाह एवं डिप्लोमेट रहे हैं, वह दक्षिण अफ्रीका में भारत के राजदूत रह चुके हैं, वह विश्व विख्यात विद्वान और गांधी-आंबेडकर के विचारों के पैरोकार हैं, लेकिन कांग्रेस को उनके नाम से ही एलर्जी है। कारण यह है कि वह महात्मा गांधी के प्रपौत्र हैं।
कांग्रेस में “शीर्ष नेताओं को” गांधी-नेहरू कि नही नेहरू-गांधी की विरासत स्वीकार है। लेकिन नेहरू (इंदिरा) गांधी की इस परंपरा के लिए गोपाल कृष्ण गांधी बाधा हैं। विभाजन के विरोध में महात्मा गांधी हठपूर्वक अड़े रहे। तब कांग्रेस नेतृत्व के लिए गांधी भी समस्या लगने लगे थे। संविधान सभा में डॉ आंबेडकर का चयन कांग्रेस ने नहीं होने दिया। उन्हें बंगाल से आना पड़ा। इस बारे में महात्माजी ने सार्वजनिक तौर पर बयान भी दिया था। (3 फरवरी 1947) विभाजन के कारण बंगाल से मिली सदस्यता छिन जाने के कारण गांधी-नेहरू-पटेल के हस्तक्षेप से मुंबई एसेंबली ने बाबासाहेब का चयन किया था। यह बात सच है। परंतु संविधान देने के बाद भी कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने 1952 और 1954 के चुनाव में आंबेडकर को हराने की हर संभव कोशिश की। 1952 के चुनाव में कम्युनिस्टों ने मतदान में गड़बड़ी की थी। इस ग़लती को सुधारने के लिए मार्क्सवादी कम्युनिस्टों ने गोपाल कृष्ण गांधी को राज्यपाल के तौर पर पश्चिम बंगाल बुलाने का फ़ैसला किया। गोपाल कृष्ण गांधी को राष्ट्रपती बनाने की पैरवी सीताराम येचुरी ने काफ़ी मुखर होकर की थी।
चेन्नई में 3 जून को करुणानिधि के सम्मान के अवसर पर जुटे सभी विपक्षी दलों के नेताओं ने एक अनौपचारिक बैठक में गोपाल कृष्ण गांधी के नाम को सर्वसम्मति से मंजूर कर लिया था। नीतीश कुमार ने कॉमरेड सीताराम येचुरी से कहा था कि गोपाल कृष्ण गांधी के नाम की घोषणा पहले कर दें, भाजपा को अवसर न दें। इस बारे मे कांग्रेस से भी बातचीत कर लें। लेकिन हुआ इसके एकदम विपरीत। कांग्रेस ने नीतीश कुमार की बात को कोई तवज्जो ही नहीं दी। इस दौरान नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पक्षों से वार्ता करने के लिए जेटली-नायडू की कमेटी गठित कर दी। कांग्रेस ने विपक्षी दलों की सहमति से प्रस्तावित नाम को समर्थन देने की बजाय भाजपा से ही अपने उम्मीदवार के नाम की घोषणा करने का आग्रह किया। यह अप्रत्याशित एवं अविश्वसनीय क़दम था। मोदी-शाह ने इस अवसर का फायदा उठाया। रतन टाटा से लेकर अमिताभ बच्चन तक तमाम नामों को दरकिनार करते हुए अमित शाह ने रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा कर दी। रतन टाटा नागपुर के रेशम बाग जाकर सरसंघचालकों से मिलकर भी आए थे। इसका मतलब विपक्ष किसी ग़लतफ़हमी में था, यह बोलने से बेहतर यह कहना सही होगा कि कांग्रेस ने एक बहुत ही बेहतरीन अवसर को हाथ से जाने दिया। कांग्रेस ने एक तरह से सभी विपक्षी दलों को भाजपा की जाल (ट्रॅप में) में ढकेल दिया।
नेहरू परिवार के सभी नामों से देश के लोग भली-भांति परिचित हैं। गांधी जी के बच्चों, उनके नाती-पोते कहां हैं, यह देशवासियों को शायद ही पता होगा। गोपाल कृष्ण, राज मोहन, अरुण, इला गांधी जैसे लोगों ने कभी भी गांधी नाम का फायदा नहीं उठाया। ये लोग अपने अपने क्षेत्र में अपनी ज़िम्मेदारियों का वहन करते रहे। गांधी के तीनों प्रपौत्रों के दिल में आज भी गांधी हैं और उनका आंबेडकर के विचारों के प्रति गहरी आस्था और झुकाव है। गांधीजी की परपोती इला गांधी दक्षिण अफ्रीका में नेलसन मंडेला की सहयोगी रही हैं। वह उनके साथ जेल भी गई थीं। डरबन के गांधी आश्रम को जला दिया गया। तब रंगभेद के शिकार हुए जुलु समुदाय का क्या कसूर था? इन शब्दों में आफ्रिकन भारतीयों को गांधी के प्रपौत्र अरुण गांधी ने कडे शब्दों में खरीखुरी सुनाई थी। गोपाल कृष्ण गांधी कांग्रेस की इन्हीं नीतियों के ख़िलाफ़ अपने लेखों के माध्यम से आवाज़ उठाते रहे हैं।
'Exploitation of the charisma of the great dead is not the monopoly of one party alone, it is a national political pastime. Dr Ambedkar’s name has become a kamadhenu which all manner of self-promoters seek to milk.' (Apr 17, 2015, scroll. in)
कांग्रेस को आंबेडकर या गांधी की जरूरत क्यों हैं? इस सवाल का इससे स्पष्ट जवाब और क्या हो सकता है। इतनी तीखी टिप्पणी कांग्रेस के “शीर्ष नेताओं” को कैसे हजम होगी? आंबेडकर की पराजय की टीस यशवंतराव चव्हाण के मन में भी थी। इसीलिए महाराष्ट्र में उन्होंने दादासाहेब गायकवाड़ के साथ समझौता किया था। फुले, साहू आंबेडकर से ही महाराष्ट्र की पहचान बनी है। कांग्रेस के “शीर्ष नेताओं” को आज भी यह मंजूर नहीं है।
दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल के मुद्दे पर गांधी और आंबेडकर के बीच को लेकर हुआ संघर्ष इतिहास है। इस संघर्ष पर बहुत ज्यादा ध्यान न देते हुए, गांधी और आंबेडकर में समन्वय बनाकर आगे बढ़ना होगा। गांधीजी के मन मे जो टीस थी, उससे प्रभावित हुए बिना गोपाल कृष्ण गांधी आंबेडकरवादी हो गए। इस बीच रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा होने के बाद वह विपक्षी दलों का उम्मीदवार बनने का प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक नकार देते हैं।
नीतीश कुमार ने एक दिन इंतज़ार किया। जब कांग्रेस का दूत बनकर गुलाम नबी आज़ाद एक दिन पटना आए। तभी यह स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस गोपाल कृष्ण गांधी या प्रकाश आंबेडकर के नाम पर विचार करने के लिए भी राजी नहीं है। इन सबके बावजूद नीतीश कुमार 22 तारीख को दिल्ली की बैठक में जाने को तैयारी की थी। परंतु कांग्रेस के दूत ने उन्हें सूचना दी कि वह बैठक में शामिल ही न हों। ‘हम बाद में तय करके आपको सूचना दे देंगे’, आज़ाद के यह कहने के बाद नीतीश कुमार का दिल्ली जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था।
जब मोदी ने कांग्रेसमुक्त भारत की घोषणा की थी, उस समय एकमात्र नीतीश कुमार ने संघमुक्त भारत की घोषणा करके मोदी को उत्तर देने का साहस दिखाया था। कांग्रेस को सरदार पटेल और सुभाष बाबू से ही एलर्जी है, ऐसा नहीं है। उसे गांधी-आंबेडकर से और ज़्यादा एलर्जी है। संघ, भाजपा और मोदी की राजनीति का विकल्प कांग्रेस केंद्रित राजनीति नहीं हो सकती। लेकिन विपक्षी दलों की केंद्र से मिलीभगत वाली राजनीति कांग्रेस कर रही है? यदि भाजपा से उनका गुप्त समझौता नहीं था, तो उन्होंने गोवा और मणिपुर को क्यों हाथ से जाने दिया। गोवा, मणिपुर के बाद राष्ट्रपति पद के चुनाव में विजय की संभावना क्या कांग्रेस ने जानबूझकर नहीं गंवाई।
नीतीश कुमार विचारों से पक्के लोहियावादी और आचरण से उतने ही गांधीवादी हैं। गोपाल कृष्ण गांधी के विनम्र इनकार को सही अर्थों में लेते हुए और कांग्रेस की राजनीति को धत्ता दिखाते हुए उन्होंने रामनाथ कोविंद के नाम को समर्थन दे दिया। पराजय के लिए मीरा कुमार या प्रकाश आंबेडकर की बलि देना नीतीश कुमार को मंजूर नहीं था। फिर इसमें उन्होंने क्या गलत किया?
लोकसत्ता, 29 जून 2017 को प्रकाशित
कपिल पाटील
(लेखक महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य और महाराष्ट्र प्रदेश जनता दल युनाइटेड के अध्यक्ष हैं)
kapilhpatil@gmail.com
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