tag:blogger.com,1999:blog-21828582545463880542024-03-13T09:19:47.342+05:30Kapil Harischandra PatilKapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.comBlogger304125tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-75950528602257792032024-03-08T19:20:00.011+05:302024-03-08T20:31:37.563+05:30महिला दिनानिमित्ताने मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, शिक्षणमंत्री यांना खुले पत्र -<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhq_iqq0fHBRGx59JYiAHBE9U5kdbFg1TXbcRJtpVILv7adj_W0YtgIS3fxPrxJjDIxqmh_srKmbnLkB6JW77-gSsYT1bj4vMWFKO1pmowrIvevoGPdPe_hr4rUCRQQz5UxlDcxMQZcpdPpd0tBjdtpjY-FvI20qI_gggcqeSlximXLzNJeTbcctaM47I/s1080/FB_IMG_1709885677148.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1080" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhq_iqq0fHBRGx59JYiAHBE9U5kdbFg1TXbcRJtpVILv7adj_W0YtgIS3fxPrxJjDIxqmh_srKmbnLkB6JW77-gSsYT1bj4vMWFKO1pmowrIvevoGPdPe_hr4rUCRQQz5UxlDcxMQZcpdPpd0tBjdtpjY-FvI20qI_gggcqeSlximXLzNJeTbcctaM47I/w640-h640/FB_IMG_1709885677148.jpg" width="640" /></a></div><br /><p><br /></p><span style="font-size: large;">प्रति,<br /><b>मा. ना. श्री. एकनाथ शिंदे<br />मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र राज्य<br /><br />मा. ना. श्री. देवेंद्र फडणवीस<br />उपमुख्यमंत्री, महाराष्ट्र राज्य<br /><br />मा. ना. श्री. अजित पवार<br />उपमुख्यमंत्री, महाराष्ट्र राज्य<br /><br />मा. ना. श्री. दीपक केसरकर<br />शिक्षणमंत्री, महाराष्ट्र राज्य</b><br /><br />विषय : महिला दिना निमित्ताने काही मागण्या... <br /><br />महोदय,<br />सर्वप्रथम महिला दिनाच्या आणि महाशिवरात्रीच्या हार्दिक शुभेच्छा!<br />हे दोन्ही विशेष दिवस यंदा एकाच वेळी आले आहेत.<br /></span><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">शिव
– पार्वतीचं भारतीय मिथक हे डॉ. राममनोहर लोहिया म्हणतात तसं, भारताच्या
अतूट आणि विलक्षण एकजुटीचं प्रतीक आहे. पार्वतीच्या वियोगानंतर धरती
हादरवून सोडणारं तांडव करणारा शिवशंकर जगातल्या कोणत्याच मिथकात नाही.</span></div><span style="font-size: large;"><br />भक्ताने
पार्वतीची पूजा नाकारली म्हणून अर्ध नरनारी नटेश्वराचं रूप धारण करणारा
शिव या देशात पुजला जातो. त्या देशाचं अर्धांग, आधी आबादी उपेक्षित, वंचित
आणि पीडित आहे आजही. त्यांना बरोबरीचा हिस्सा आणि प्रतिष्ठित कामही द्यायला
आपण तयार नाही आहोत अजून.<br /><br />महाराष्ट्रात वेगळी स्थिती नाही. स्त्री
श्रम शक्तीचं प्रमाण 22 टक्क्यांवरुन 32 टक्क्यांवर आलं आहे. पण त्यांना
बरोबरीचं वेतन नाही. प्रतिष्ठित जीवन वेतन तर दूर, किमान वेतनही नाही.
स्त्री श्रम शक्तीचा बहुतांश हिस्सा अप्रतिष्ठित श्रमाचा भाग बनून राहिला
आहे.<br /><br />संत मुक्ताई, राजमाता जिजाऊ, लोकमाता अहिल्या, महाराणी
ताराराणी, राणी चांदबीबी, क्रांतीज्योती सावित्रीबाई, ज्ञानज्योती फातीमा
बी, माता रमाई, कवयित्री बहिणाबाई, डॉ. रखमाबाई, ताराबाई शिंदे ते थेट शारदाबाई पवार, मृणालताई गोरे, स्मिता पाटील अशी मोठी परंपरा आहे महाराष्ट्रात. पण सरकारी,
निमसरकारी आणि स्थानिक प्रशासनात स्त्रीचा वाटा नगण्य आहे.<br /></span><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">मंत्रीमंडळात
अदिती तटकरे नावाने उशिरा का होईना किमान एक स्त्री तरी आली. आमच्या या
छोट्या बहिणीने आईचं नाव लावण्याची सक्ती करणारा निर्णय घेतला आहे. त्याचं
जरूर स्वागत पण शासनाचा गाडा ज्यांच्या खांद्यावरुन वाहिला जातो आहे
त्यातल्या शेवटच्या पायरीवर 3.50 लाख महिला कर्मचारी आहेत. अंगणवाडी ताई,
आशा वर्कर्स, मदतनीस, मिड डे मिल तयार करणाऱ्या ताई, आरोग्य कर्मचारी आणि
विनाअनुदानित खाजगी संस्थांमधले शिक्षक यांना वेतन मिळत नाही. मानधन मिळते
जे लाजिरवाणे आहे.</span></div><span style="font-size: large;"><br />महात्मा फुले यांनी म्हटलं होतं,<br /><br /><b>स्त्री पुरुष सर्व कष्टकरी व्हावे। कुटुंबा पोसावे आनंदाने॥</b><br /><br />आत्महत्याग्रस्त
लाखो शेतकऱ्यांच्या कुटुंबातील विधवांना कुणाचाच आधार नाही. त्या कुटुंबात
आनंद कोण पेरणार ? केवळ आनंदाचा शिधा वाटून जबाबदारी झटकता येणार नाही.<br /><br />आजच्या जागतिक महिला दिनी आपणापुढे काही मागण्या करत आहे,<br /><br />1) शिक्षक आणि पोलीस भरती यामध्ये महिलांसाठी 50 टक्के आरक्षण ठेवावे.<br /><br />2) उर्वरित सरकारी नोकऱ्यांमध्ये महिलांसाठी किमान 33 टक्के आरक्षण ठेवावे.<br /><br />3) अंगणवाडी, आशा वर्कर्स यांना मानधन नको सन्मानपूर्वक जीवन वेतन द्यावे.<br /><br />4)
सर्व Unaided खाजगी संस्था, कस्तुरबा गांधी विद्यालय, अल्पसंख्याक विभाग
आणि कंत्राटी कर्मचारी यातील सर्व शिक्षक व कर्मचारी यांना पूर्ण वेतन
द्यावे.<br /><br />5) आत्महत्याग्रस्त शेतकऱ्यांच्या विधवा पत्नी आणि एकल
स्त्रीया यांना पेन्शन द्यावे. त्यांच्या मुला – मुलींना सर्व शिक्षण मोफत
करावे.<br /></span><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">6)
खाजगी विद्यापीठ व संस्थांमध्ये प्रवेश घेणारे विद्यार्थी व विद्यार्थिनी
स्कॉलरशीप आणि फीशीपचे हकदार असणार नाहीत, अशी तरतूद असणारा कायदा तात्काळ
रद्द करावा.</span></div><span style="font-size: large;"><br />आणि शिक्षणमंत्री महोदय, आपल्यासाठी आणखी विनंती,<br /></span><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">एक -</span></div><span style="font-size: large;">आपल्या
बालभारती पुस्तकामधले धडे स्त्री – पुरुष समतेचे धडे देत नाहीत. दादा
खेळायला बाहेर जा आणि ताई आईला मदत कर. असं सूचित करणारे दाखले किंवा
उदाहरणं असतात. महात्मा गांधी यांनी बालपोथी तयार केली होती, त्यातली आई
मुलाला म्हणते, जा ताईला मदत कर, घरातलंही काम कर.<br /><br />शिक्षणमंत्री महोदय, थोडं लक्ष द्याल ?<br /><br />दोन -<br />NEP
वर आधारित नव्या पुस्तकातून सावित्रीबाई फुले यांच्या सहकारी फातिमा शेख
यांचं नाव डिलिट करण्यात आलं आहे. सावित्रीबाई यांनी महात्मा फुले यांना
लिहलेल्या पत्रांमध्ये स्वत: म्हटलं आहे की, <b>‘फातिमा आहे म्हणून मुलींची </b><b>(पहिली) </b><b>शाळा मी चालवू शकते.'</b><br /><br />शिक्षणमंत्री महोदय, मग सरकारने हा भेदाभेद करण्याचं कारण काय ?<br /><br />कृपया दखल घेऊन कार्यवाही व्हावी, हीच अपेक्षा. <br /><br />आपला स्नेहांकित,</span><div><span style="font-size: large;"><br />कपिल पाटील<br />अध्यक्ष, समाजवादी गणराज्य पार्टी </span><br /></div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-15122774212848192552024-01-23T20:33:00.001+05:302024-01-23T20:33:29.107+05:30कर्पूरी की वेदना, नीतीश का मरहम <br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtKieuMEe1cX5OyF0sRz2ywRzjkZI0J9Tg8fTRtB34jRQCw4kqGxfa3t2GGnCU9G7UiGOVg2rku0605v5jkOe_UUVGKcbOZYbPPhV2QjtHBaCM0oXfpUnwxYmG4PatWufWdbAnKW9C0aHYXtZKEK6-4uT0_-XgeO0XMzsS0wiZAJhEfM9LWALv4Dm8S3c/s2912/Picsart_24-01-23_20-28-46-785.png"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtKieuMEe1cX5OyF0sRz2ywRzjkZI0J9Tg8fTRtB34jRQCw4kqGxfa3t2GGnCU9G7UiGOVg2rku0605v5jkOe_UUVGKcbOZYbPPhV2QjtHBaCM0oXfpUnwxYmG4PatWufWdbAnKW9C0aHYXtZKEK6-4uT0_-XgeO0XMzsS0wiZAJhEfM9LWALv4Dm8S3c/w640-h416/Picsart_24-01-23_20-28-46-785.png" /></a><br /><span style="font-size: x-large;"><br /><b>मैट्रिक </b>में प्रथम श्रेणी में पास हुआ था वो लड़का। नाई समाज का पहला शिक्षित लड़का था। घर में घनघोर गरीबी थी। बेटे की उपलब्धि से पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे बेटे को उस गाँव के सबसे पढ़े-लिखे और ऊंची जाति के मुखिया के पास ले गए। 'मेरा बेटा फर्स्ट क्लास आया है। इसे और आगे बढ़ना है। आप इसे आशीर्वाद दीजिए।'<br /><br />'फर्स्ट क्लास आया तो मैं क्या करूं? पहले मेरे पैर दबाओ।' <br /><br />अपमान और वेदना की उस घटना से कर्पूरी ठाकुर के मन को गहरी चोट पहुंची। <br /><br />वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उस चोट ने कभी प्रतिशोध का रूप नहीं लिया। अपमान का वो दर्द उनके संकल्प को और मजबूत करता गया।<br /><br />बिहार के पिछड़े और अति पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के लिए, उनके उत्थान के लिए फैसले लेने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। छोटी-छोटी पिछड़ी जातियों के समूहों को उन्होंने न्याय दिलाने का प्रयास किया। उनके निर्णय आरक्षण और रियायतों तक ही सीमित नहीं थे। उन्होंने बिहार में पिछड़े वर्ग का नया नेतृत्व तैयार किया। जब उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा, तब उनके नाम पर कोई मकान तक नहीं था। उनका परिवार लोगों के बाल काटकर अपना जीवन यापन करता था।<br /><br />कर्पूरी ठाकुर जब कॉलेज में थे तो एआईएसएफ में थे। उस समय का समस्त युवा वर्ग शोषण और असमानता के विरुद्ध मार्क्स के दर्शन से प्रभावित था। लेकिन भारतीय मार्क्सवादी आंदोलन में उन्हें जाति के सवालों का जवाब नहीं मिला, इसलिए उनका झुकाव समाजवादी आंदोलन की ओर हो गया। डॉ. राम मनोहर लोहिया की जाति नीति से आंबेडकरवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। डॉ. राम मनोहर लोहिया और एसएम जोशी दोनों समाजवादी थे जो महात्मा गांधी को अपना नेता मानते थे। इस समाजवादी नेतृत्व को साथ लेकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। आंबेडकर खुद को समाजवादी कहते थे। महाराष्ट्र के समाजवादी नेता और कार्यकर्ता पहले ही महाड और पर्वती के सत्याग्रह में शामिल हो चुके थे। अगर कर्पूरी ठाकुर ने समाजवादी रास्ता नहीं चुना होता तो आश्चर्य होता।<br /><br />डॉ. राम मनोहर लोहिया के मंत्र 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' ने उत्तर भारत की राजनीति में हलचल मचा दी। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ओबीसी जातियों से नए नेतृत्व का उदय हुआ। स्वयं ओजस्वी तेज के साथ। बिहार समाजवाद की प्रयोगशाला बन गयी।<br /><br />बिहार में वैचारिक निष्ठा से राजनीति करने वाले लोगों की बड़ी संख्या थी और अब भी है। गांधी-अंबेडकर और लोहिया-जयप्रकाश का सम्मान करने वाले ये समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर का भी उतना ही सम्मान करते हैं। कर्पूरी ठाकुर को शायद लोहिया, जयप्रकाश की तरह एक दार्शनिक के तौर पर नहीं जाना जाता। हालाँकि, वह पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने राजनीतिक शक्ति के माध्यम से अपनी वैचारिक निष्ठा का आविष्कार किया। सामाजिक न्याय के लिए अपनी सत्ता का त्याग करने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। राजनीति में त्याग और बलिदान का महत्व शायद कम हो गया हो। लेकिन इसका सबसे पहला उदाहरण कर्पूरी ठाकुर ही हैं।<br /><br />पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने के दृढ़ निश्चय के कारण कर्पूरी ठाकुर को सत्ता का त्याग करना पडा था। मुंगेरीलाल कमेटी की सिफारिश पर वे सवर्णों के कमजोर लोगों को भी न्याय दिलाने वाले थे। इसके बावजूद कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।<br /><br />कर्पूरी ठाकुर ने कभी भी ऊंची जातियों से नफरत के कारण कोई कदम नहीं उठाया। ऊंची जातियों में जो गरीब वर्ग है उनका पक्ष उन्होंने हमेशा लिया। उन्होंने सामाजिक न्याय के मुद्दे पर जोर दिया। फिर भी कर्पूरी ठाकुर को पद छोड़ना पड़ा। उनके उस बलिदान से बिहार में बड़ी संख्या में वंचित, पीड़ित और शोषित लोगों में जागरूकता आई। इसी जागरूकता को साथ लेकर नीतीश कुमार ने यह दूसरा बड़ा प्रयोग शुरू किया है। उनका पहला प्रयोग अति पिछड़ों को न्याय दिलाना था। इसमें वे बेहद सफल रहे। नीतीश कुमार देश के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पिछड़ों, दलितों और सभी समुदायों की महिलाओं को समान भागीदारी देने का फैसला किया। इससे बिहार में एक मजबूत किलेबंदी का निर्माण किया गया। 'न्याय' के इस किलेबंदी को विरोधी कभी भेद नहीं पाए। नीतीश कुमार ऊंची जातियों के गरीबों को भी हमेशा साथ देते है, इसपर बिहार का विश्वास हैं। <br /><br /></span><div><span style="font-size: x-large;">एक और समानता कर्पूरी ठाकुर और नीतीश कुमार के बीच है। बेदाग राजनीतिक जीवन। त्यागशील समर्पित निजी जीवन। सामाजिक न्याय और समाजवाद के प्रति अटूट प्रतिबद्धता। विचार की इस निष्ठा को कर्म में आविष्कृत करने का दर्शन। दर्शन केवल भाषाई शब्दावली होने से काम नहीं आता। वास्तविक मात्रा की प्रभावशीलता आवश्यक है। इसे साबित करने वाले नीतीश कुमार देश के एकमात्र नेता हैं।<br /><br />चाहे वह सीएए, एनआरसी या जातीय जनगणना या आरक्षण का सवाल हो। नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय और मेल-मिलाप से कभी समझौता नहीं किया। धार्मिक नफरत को बढ़ावा देकर देश की एकता को तोड़ने का हर संभव प्रयास हो रहा है। मगर बिहार धार्मिक सदभावना का मिसाल बना हुआ है।<br /><br />जातीय जनगणना का मामला बिहार तक ही सीमित नहीं है। यह देश के सभी राज्यों के लिए एक अहम मुद्दा है। ये राजनीति नहीं, सामाजिक न्याय का मुद्दा है। नीतीश कुमार ने बिहार मॉडल से जाति व्यवस्था, महिला दासता, भेदभाव, असमानता, गरीबी और शोषण से मुक्ति का एजेंडा रखा है। इसके माध्यम से वंचित समूहों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। यह कर्पूरी मार्ग है।<br /><br />कर्पूरी शताब्दी पर उन्हें स्मरण करने और उनका अभिवादन करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? कर्पूरी ठाकूर ने बचपन में जो मानसिक वेदना व प्रताड़ना सहन की, वह देश के करोडो वंचित, पीडित, शोषितों की वेदना है। नीतीश कुमार का हर प्रयास उन वेदनाओं का अंत करने के लिए है। वह केवल मरहम नही लगाते, नई पिढी की उम्मीद और भविष्य के दरवाजे भी खोल देते है। नीतीश कुमार और बिहार सरकार द्वारा स्वीकार किए गए इस मार्ग का पूरा देश इंतजार कर रहा है। <br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील</a><br />सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद <br />राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड)<br />kapilhpatil@gmail.com</span><br /></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-75757149674049282832023-10-31T16:37:00.006+05:302023-11-01T18:49:26.343+05:30नीतीश कुमार देश का नरेटिव बदलेंगे? <div style="text-align: left;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6Jcp4iAvzvwvTf74HSFWwSSoDMgga4TksheQ7J8eACwoZukGoLkV5p2WmqY4-JoOFucaFT6sIQr-HJnFcvuk-xCRA0EqPShImTMLCHyarFU0wK35oF7mUXlp08M3h10gWeqUs7qX5mkXejERCGy67uLJBbkblPhjJCh2p2KxBFqUdiKjxia7Jzvo7NPI/s1200/nitish-kumar-164411816-1x1.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span style="font-size: x-large;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1200" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6Jcp4iAvzvwvTf74HSFWwSSoDMgga4TksheQ7J8eACwoZukGoLkV5p2WmqY4-JoOFucaFT6sIQr-HJnFcvuk-xCRA0EqPShImTMLCHyarFU0wK35oF7mUXlp08M3h10gWeqUs7qX5mkXejERCGy67uLJBbkblPhjJCh2p2KxBFqUdiKjxia7Jzvo7NPI/w400-h400/nitish-kumar-164411816-1x1.jpg" width="400" /></span></a></div><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span><b>जाति-आधारित </b>जनगणना के मुद्दे पर अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पत्रकारों से ही सवाल कर दिया, 'मीडिया में SC, ST और OBC समाज के कितने लोग हैं?'</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में सिर्फ एक ही हाथ ऊपर उठा। वह भी कैमरामैन था जो OBC समाज का था।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>राहुल गांधी ने जैसा कि खुद बताया था कि उन्होंने एक 'ऐतिहासिक सवाल' पूछा। दरअसल, वह 33 साल पहले अपने पिता राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी द्वारा की गई एक ऐतिहासिक गलती को संशोधित कर रहे थे।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>वस्तुतः इंदिरा गांधी ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल रखा था, उस बात को भी अब 43 साल हो गए। इसलिए राहुल अपनी दादी की ऐतिहासिक गलती को भी सुधार रहे थे।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>जनवरी 2002 में दिग्विजय सिंह का प्रस्तावित 'भोपाल एजेंडा' दलितों और आदिवासियों को न्याय दिलाने का एक प्रयास था।लेकिन उनकी अपनी पार्टी ने ही उनके प्रयास को दबा दिया था, यह भी इतिहास है।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>राहुल गांधी ने कहा, 'हम कांग्रेस शासित राज्यों में जाति-आधारित जनगणना कराएंगे'। दरअसल, राहुल गांधी कांग्रेस द्वारा की गई ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने का प्रयास कर रहे हैं।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>यह चमत्कार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की वजह से हुआ है। भले काँग्रेसवाले उन्हे क्रेडिट दे या न दे</span><span>।</span><span> </span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br /></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;">उन्हीं की पहल पर INDIA का गठन हुआ है। राजनीतिक तौर पर यह आश्चर्य की बात भी है।</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस के विरुद्ध एक बड़ा गठबंधन खड़ा कर लिया था। तब उस मोर्चे में जनसंघ भी शामिल था। हालांकि लोहियावादी मधु लिमये ने 'संघ' के खतरे को पहचान लिया था। जिस बिहार को उन्होंने सिंचित किया, उसी बिहार के लोहियावादी नीतीश कुमार ने कांग्रेस को साथ लेकर संघ-भाजपा के विरोध में बड़ा मोर्चा खड़ा कर लिया है। इस तरह उन्होंने एक और ऐतिहासिक गलती को संशोधित कर लिया।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>बेदाग, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष नीतीश कुमार में भरोसा इन सभी परस्पर विरोधी दलों को एक साथ ला सका। गांधी, आंबेडकर और लोहिया ही इस समाजवाद की विचारधारा है। नीतीश कुमार ने उस विचारधारा से कभी समझौता नहीं किया। CAA / NRC के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने वाले वह पहले मुख्यमंत्री थे।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>संयुक्त (यूनाइटेड) सोशलिस्ट पार्टी के नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया 'संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ' का नारा बुलंद किया। कर्पूरी ठाकुर के बाद इसका सबसे प्रभावी कार्यान्वयन अगर किसी ने किया है तो वो हैं जनता दल (यूनाइटेड) के नीतीश कुमार। नीतीश कुमार ने दलितों में वंचितों और ओबीसी में सबसे अधिक वंचितों को न्याय दिलाने की ज़िम्मेदारी ली है। मंडल कमीशन समाजवादियों की ही देन है।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रतापसिंह ने मंडल आयोग की घोषणा की, तो राजीव गांधी ने इसका विरोध किया था!</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>आरक्षण विरोधियों द्वारा हमेशा किए जाने वाले अतार्किक विरोध की ही भाषा बोलते हुए राजीव गांधी ने कहा, 'क्या पिछड़े वर्ग के जो लोग मंत्री-पद का सुख भोग चुके हैं, उनके बच्चों को आरक्षण का लाभ दिया जाएगा?' यह सवाल संसद में पूछा गया। फिर सदन से 'How many?', ऐसे कितने हैं? यह काउंटर प्रश्न उनसे पूछा गया।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>तैंतीस साल के बाद पोल चेंज हो चुका है l राहुल गांधी ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में पुछा 'How Many ?'</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>पत्रकारों में SC, ST और OBC समाज के कितने लोग हैं?</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>उस वक्त राजीव गांधी ने 'समाज में फूट पड़ जाने' का तर्क दिया था। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वही तर्क दे रहे हैं। वह कह रहे हैं कि 'जाति-आधारित जनगणना देश को जातियों में बांटने की साजिश है।'</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>केवल दक्षिण की द्रविड़ पार्टी और उत्तर एवं मध्य भारत के समाजवादी ही इस सामाजिक न्याय के पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं। सत्ता में आने के बाद केवल समाजवादियों और द्रविड़ पार्टियों ने संपत्ति, सम्मान, समृद्धि और सहभाग के रूप में वंचितों को सत्ता में भागीदारी देने की कोशिश की। फर्क सिर्फ इतना है कि राहुल गांधी ने अब कांग्रेस पार्टी को सामाजिक न्याय के पक्ष में खड़ा किया है।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>Scheduled Castes और Scheduled Tribes के लिए संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद इन दोनों वर्ग के लोग आज भी सत्ता से दूर हैं। नौकरी, शिक्षा और विकास जैसे किसी भी मोर्चे पर उनकी स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। मंडल आयोग पर अमल करने के बाद ओबीसी लोगों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई। लेकिन आज 30 साल बाद भी अधिकारीवर्ग में ओबीसी की हिस्सेदारी 4 प्रतिशत भी नहीं है।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>जाति-आधारित जनगणना सिर्फ व्यक्तियों की गिनती नहीं है, बल्कि विभिन्न जाति समूहों का आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक सर्वेक्षण करना भी है। देश के विकास में उनका स्थान निर्धारित करना भी है। समान हिस्सेदारी के लिए राजनीतिक एजेंडा निर्धारित करना भी है। </span><span>जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह उर्फ राजीव रंजन सिंह जी ने खूब सही कहा देश का राजनैतिक अजेंडा बदलेगा, नफरत का नरेटिव बदलेगा</span><span>।</span><span> </span><span>यह संघर्ष उसी के लिए है। </span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br /></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;">बिहार के इस प्रयोग से कई परिवर्तन होने वाले हैं। </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>1) There is no alternative यह TINA फैक्टर आज तक मोदी की सफलता में योगदान दे रहा है। INDIA का गठन पहली बार उस धारणा को ध्वस्त करेगा।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>2) विकास की तथाकथित राजनीति में उपेक्षित और वंचित जातियों की हिस्सेदारी कितनी है? इस सवाल का जवाब पहली बार मिलेगा।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>3) मराठा और जाट जैसी किसान जातियों की आरक्षण की समस्या हल हो जाएगी।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>4) द्वेष, नफरत जैसी उन्मादी राजनीति को देश भर में करारा जवाब मिलेगा।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>5) जाति व्यवस्था और जातिगत भेदभाव के कारण इस देश के 85 प्रतिशत से अधिक लोग अपने हक से वंचित रहे हैं। जातियों के विकास से ही जाति-व्यवस्था का अंत संभव है।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>महात्मा फुले किसानों, शूद्र जातियों और दलितों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले पहले व्यक्ति थे।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>2 नवंबर, 1882 को उन्होंने ब्रिटिश सरकार से सरकारी विभाग में गैर-ब्राह्मण शूद्र किसानों के बच्चों के लिए नौकरी और शिक्षा में स्थान की मांग की थी।<br /></span><span>महात्मा फुले की इस मांग को छत्रपति शाहू महाराज ने साकार किया। 26 जुलाई 1902 को शाहू महाराज ने कोल्हापुर संस्थानों में आरक्षण सुनिश्चित कर दिया।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>पहला कम्युनल ऑर्डर 1921 में मद्रास प्रेसिडेंसी में पारित किया गया था। दक्षिण में आरक्षण अमल में आया। पेरियार और डीएमके ने 70 फीसदी तक आरक्षण दिया। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने संविधान सभा में 70 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को स्वीकार किया था।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी कर दी है। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आरक्षण देने वाली केंद्र सरकार सामाजिक आरक्षण पर लगी अधिकतम सीमा की इस बंदिश को हटाने के लिए तैयार नहीं है। उल्टे आरक्षण की माँग के कारण जातियों के बीच संघर्ष के बीज बोए जा रहे हैं।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>जातिगत भेदभाव और अवसर की असमानताओं से विभाजित समाज में Creativity और Productivity मर सी जाती है। समाज का भविष्य खतरे में पड़ जाता है। इससे लोकतंत्र भी संकट में आ जाता है।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री Joseph E. Stiglitz ने अपनी पुस्तक 'The Price of Inequality' में निम्नलिखित टिप्पणी की है।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>High inequality makes for a less efficient and productive economy.</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>Whenever we dismiss equality of opportunity, we are not using one of our most valuable assets - our people - in the most productive way possible.</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>नीतीश कुमार की मांग जातीय विभाजन की बिल्कुल भी नहीं है। देश में सबसे पहला आरक्षण देने वाले छत्रपति शाहू महाराज ने 19 अप्रैल 1919 को अखिल भारतीय कुर्मी क्षत्रिय महासभा के 13वें अधिवेशन में कानपुर में भाषण दिया था। 'अंग्रेजी शिक्षा से भारतीयों की तीसरी आँख खोलने का काम किया था।' उन्होंने जोर देकर कहा था कि 'शिक्षा से जागृत हुए देश के जातीय संगठन उन्नति का मार्गप्रशस्त करेंगे'। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि 'आज स्थिति चाहे जैसी भी हो, लेकिन ज्ञान के कारण भविष्य अवश्य बदलेगा'।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>जाति-आधारित जनगणना उन वंचित भारतीयों के लिए भविष्य के द्वार खोलने का एक प्रयास है जो सौ साल बाद भी जाति-व्यवस्था के कारण वंचित और कुंठित रहे हैं।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>एक और बात हो रही है, हर चुनाव में दक्षिण और उत्तर के नतीजों में जो अंतर दिखाई दे रहा है, वह अंतर 2024 के लोकसभा चुनावी नतीजों के बाद खत्म हो जाएगा।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>निश्चित रूप से नीतीश कुमार ने देश का नरेटिव बदल दिया है।</span></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><span><br /></span><span>- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील</a><br /></span><span>(राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड) और सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद)<br /></span><span>***</span></span><br /></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-87115038761433327952023-10-31T16:13:00.006+05:302023-11-01T18:51:15.909+05:30नीतीश कुमार देशाचं नॅरेटिव्ह बदलतील ? <p></p><span style="font-size: x-large;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsx9sJbuowjP9oaVOk0gM5TrfjphcQSBgr3ysfnD718kKSBsiu1R1YJWC-bOlDK9iN177k0f8yflWb-LVBAmw9v1hvus7AuFlUrqz2mZKLNKcbW0Yh7TgorfB_4PkMd2e1lA1XDv0PLcE8MotOTLDUHR0cwu9OajifMoVa7KDyLE91On1lMzRlM-rGSiY/s1200/nitish-kumar-164411816-1x1.jpg"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsx9sJbuowjP9oaVOk0gM5TrfjphcQSBgr3ysfnD718kKSBsiu1R1YJWC-bOlDK9iN177k0f8yflWb-LVBAmw9v1hvus7AuFlUrqz2mZKLNKcbW0Yh7TgorfB_4PkMd2e1lA1XDv0PLcE8MotOTLDUHR0cwu9OajifMoVa7KDyLE91On1lMzRlM-rGSiY/w640-h640/nitish-kumar-164411816-1x1.jpg" /></a><br /><br /><b>जातीगत </b>जनगणनेच्या मुद्द्यावर प्रेस कॉन्फरन्स घेताना काँग्रेस नेते राहुल गांधी यांनी पत्रकारांना एक प्रश्न विचारला, 'मीडियामध्ये SC, ST आणि OBC किती आहेत ?'<br /><br />त्या प्रेस कॉन्फरन्समध्ये एकच हात वर आला. तो कॅमेरामन OBC होता.<br /><br />राहुल गांधी यांनी स्वतःचं वर्णन केल्याप्रमाणे तो ‘ऐतिहासिक प्रश्न’ ते विचारत होते. 33 वर्षांपूर्वीची त्यांचेच वडील राजीव गांधी आणि काँग्रेस पक्षाची एक ऐतिहासिक चूक ते तेव्हा दुरुस्त करत होते.<br /><br />इंदिरा गांधी यांनी मंडल आयोगाचा अहवाल बासनात गुंडाळून ठेवला, त्यालाही आता 43 वर्षे झाली आहेत. आपल्या आजीचीही ऐतिहासिक चूक ते दुरुस्त करत होते. <br /><br />दिग्विजय सिंह यांनी जानेवारी 2002 मध्ये मांडलेला 'भोपाळ अजेंडा' दलित, आदिवासींना न्याय देण्याचा प्रयत्न होता. पण त्यांच्याच पक्षाने तो गुंडाळून ठेवला, हाही इतिहास आहे. <br /><br />‘काँग्रेसच्या राज्यात आम्ही जातगणना करू’ असं राहुल गांधी सांगत आहेत. कॉँग्रेसच्या ऐतिहासिक चुका दुरुस्त करण्याचा प्रयत्न राहुल गांधी करत आहेत. <br /><br />हा चमत्कार घडला आहे बिहारचे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यांच्यामुळे. भले काँग्रेसवाले त्यांना क्रेडिट देवो अथवा न देवोत. <br /><br />त्यांच्याच पुढाकाराने INDIA आघाडी स्थापन झाली आहे. टोकाच्या भिन्न मतांचे पक्ष एकत्र येणं हाही एक राजकीय चमत्कारच आहे.<br /><br />बडी आघाडी केली होती डॉ. राम मनोहर लोहिया यांनी. कॉँग्रेसच्या विरोधात. तेव्हा त्यात जनसंघ होता. ‘संघा’चा धोका ओळखला होता लोहियावादी मधू लिमये यांनी. त्यांनी सिंचित केलेल्या बिहार मधील लोहियावादी नीतीशकुमार यांनी कॉँग्रेसला बरोबर घेत संघ भाजपच्या विरोधात बडी आघाडी उभी केली आहे. आणखी एक ऐतिहासिक चूक दुरुस्त करत.<br /><br />बेदाग, समाजवादी आणि धर्मनिरपेक्ष असलेल्या नीतीश कुमारांबद्दल वाटत असलेला विश्वास या सर्व टोकाच्या पक्षांना एकत्र आणू शकला. गांधी, आंबेडकर आणि लोहिया ही समाजवाद्यांची विचारधारा. त्या विचारधारेबाबत नीतीश कुमार यांनी कधी तडजोड केली नाही. CAA / NRC च्या विरोधात ठराव करणारे ते पहिले मुख्यमंत्री होते. <br /><br />संयुक्त (यूनाइटेड) सोशलिस्ट पार्टीचे नेते डॉ. राम मनोहर लोहिया यांची घोषणा होती 'संसोपाने बांधी गाठ, पिछडा पावे सौ में साठ'. कर्पूरी ठाकूर यांच्यानंतर त्याची सर्वात प्रभावी अंमलबाजवणी जर कुणी केली असेल तर ती जनता दल (यूनाइटेड) च्या नीतीश कुमार यांनी. दलितांमधले वंचित आणि ओबीसींमधले सर्वाधिक वंचित यांना न्याय देण्याची भूमिका नीतीश कुमार यांनी घेतली. मंडल आयोग ही समाजवादयांचीच देणगी आहे. <br /><br />मंडल आयोगाची घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रतापसिंह यांनी केली, तेव्हा राजीव गांधींनी विरोध केला होता ! <br /><br />आरक्षण विरोधकांकडून जो अतार्किक विरोध नेहमी केला जातो त्याच भाषेत राजीव गांधी यांनी 'मंत्रीपद भोगलेल्या मागासवर्गीयांच्या मुलांनाही आरक्षण देणार का?' असा सवाल संसदेत विचारला. तेव्हा सभागृहातूनच 'how many ?' असे किती ? असा प्रतिप्रश्न त्यांना विचारला गेला. <br /><br />राहुल गांधींनी त्यांच्या पत्रकार परिषदेत तोच प्रश्न उलट्या दिशेने विचारला. Caste Census ला विरोध करणाऱ्यांना. ‘पत्रकारांमध्ये SC, ST आणि OBC पैकी 'how many' आहेत ?’ <br /><br />‘समाजात फूट पडेल’ असा राजीव गांधींचा त्यावेळी युक्तिवाद होता. तोच युक्तिवाद आता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करत आहेत. ‘जातीगत जनगणना देशाला जातींमध्ये विभाजीत करण्याचा डाव’ असल्याचं ते सांगत आहेत.<br /><br />दक्षिणेतील द्रविड पक्ष आणि उत्तर व मध्य भारतातील समाजवादी जनता परिवारातील पक्ष व नेते फक्त या सामाजिक न्यायच्या बाजूने कायम उभे राहिले. सत्ता हाती आली तेव्हा तेव्हा वंचितांच्या हातात सत्ता, संपत्ती, प्रतिष्ठा, विकास आणि सहभाग या प्रत्येकातली हिस्सेदारी देण्याचा समाजवादी व द्रविड पक्षांनी प्रयत्न केला. आता फरक इतकाच की, राहुल गांधी यांनी कॉंग्रेस पक्षाला सामाजिक न्यायाच्या बाजूने उभं केलं आहे. <br /><br />Scheduled Castes आणि Scheduled Tribes साठी संविधानिक तरतूद असूनही सत्तेपासून हे दोन्ही वर्ग अजूनही दूर आहेत. नोकरी, शिक्षण आणि विकासाच्या कोणत्याच आघाडीवर त्यांचं स्थान फारसं बदललेलं नाही. मंडल आयोग अमलात आल्यानंतर OBC साठी 27 टक्के आरक्षणाची तरतूद झाली. पण आजही 30 वर्षांनंतर ओबीसींचं अधिकारी वर्गातलं स्थान 4 टक्के सुद्धा नाही. <br /><br />जातगणना म्हणजे केवळ डोकी मोजणं नाही. असंख्य जातीत विभागलेल्या समूहांची आर्थिक, सामाजिक आणि शैक्षणिक पाहणी करणं. देशातील विकासातील त्यांचं स्थान निश्चित करणं. समान हिस्सेदारीसाठी राजकीय अजेंडा निश्चित करणं. यासाठीचा हा आटापिटा आहे. </span><div><span style="font-size: x-large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: x-large;">बिहारच्या या प्रयोगाने अनेक बदल घडणार आहेत. <br /><br />1) There is no alternative हा TINA फॅक्टर मोदींच्या यशात आजपर्यंत कारणीभूत ठरत आला होता. INDIA च्या उभारणीने त्या समजाला पहिल्यांदा छेद मिळणार आहे. <br /><br />2) विकासाच्या तथाकथित राजकारणात उपेक्षित, वंचित जातींचा हिस्सा किती ? या प्रश्नाला पहिल्यांदाच उत्तर मिळणार आहे. <br /><br />3) मराठा, जाट या सारख्या शेतकरी जातींच्या आरक्षणाची गाठ त्यातून सुटणार आहे. <br /><br />4) द्वेष, नफरत यांच्या उन्मादी राजकारणाला देश पातळीवर रोखठोक उत्तर मिळणार आहे. <br /><br />5) जात व्यवस्था आणि जातीभेदाने या देशातील 85 टक्के हून अधिक समाजाला त्यांचा हिस्साच नाकारला गेला होता. जातीच्या विकासातूनच जातीच्या अंताची शक्यता आहे. <br /><br />शेतकरी, शूद्रजाती व दलितांसाठी आरक्षणाची मागणी करणारे महात्मा फुले पहिले.<br /><br />'जातीपातीच्या संख्याप्रमाणे कामें नेमा ती l खरी न्यायाची रिति ll'<br /><br />असं 'शेतकऱ्यांचा आसूड' मध्ये महात्मा फुले म्हणाले होते. 2 नोव्हेंबर 1882 रोजी ब्रिटिश सरकारकडे त्यांनी सरकारी खात्यात ब्राह्मणेतर शूद्र शेतकऱ्यांच्या मुलांना नोकऱ्या व शिक्षणासाठी जागा मागितल्या होत्या. <br /><br />महात्मा फुलेंची ही मागणी प्रत्यक्षात आणली छत्रपती शाहू महाराज यांनी. 26 जुलै 1902 रोजी शाहू महाराज यांनी कोल्हापूर संस्थानात आरक्षण दिलं.<br /><br />मद्रास प्रांतात 1921 साली पहिली कम्युनल ऑर्डर पास झाली. दक्षिणेत आरक्षण आलं. पेरियार आणि द्रमुकने ते 70 टक्के पर्यंत नेलं. खुद्द डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी संविधान सभेत 70 टक्के पर्यंत आरक्षणाची मर्यादा मान्य केली होती. <br /><br />पण सुप्रीम कोर्टाने अपर कॅप घातली आहे 50 टक्क्यांची. आर्थिक दुर्बळांना आरक्षण देणारं केंद्रसरकार सामाजिक आरक्षणावरची अपर कॅप काढायला तयार नाही. आरक्षणाच्या मागणीवरुन जातीजातींत संघर्ष मात्र पेरले जात आहेत.<br /><br />जातीभेदांच्या आणि संधीच्या विषमतांनी विभाजीत समाजात सर्जनशीलता आणि उत्पादकताच मारली जाते. समाजाचं भविष्य धोक्यात येतं. त्यातून लोकशाही संकटात येते. <br /><br />नोबेल पारितोषिक विजेते अर्थतज्ज्ञ Joseph E. Stiglitz यांनी त्यांच्या ‘The Price of Inequality’ या पुस्तकात पुढील निरीक्षण नोंदवून ठेवलं आहे. <br /><br />High inequality makes for a less efficient and productive economy.<br /><br />Whenever we dismiss equality of opportunity, we are not using one of our most valuable assets - our people - in the most productive way possible. <br /><br />नीतीश कुमारांची मागणी जाती विभाजनाची नाही. देशातलं पहिलं आरक्षण देणारे छत्रपती शाहू महाराज यांचं कानपूरला 19 एप्रिल 1919 रोजी अखिल भारतीय कुर्मी क्षत्रिय महासभेच्या 13 व्या अधिवेशनात भाषण झालं होतं. ‘इंग्रजी शिक्षणाने भारतीयांचा तिसरा डोळा उघडला गेला आहे. शिक्षणाने जागृत झालेल्या देशातील जातींच्या संघटनांनी उन्नतीचा मार्ग खुला होणार आहे’, असं प्रतिपादन त्यांनी केलं होतं. आजची दशा काही असली तरी ज्ञानाने उद्याचं भविष्य बदलणार आहे, असा विश्वास त्यांनी व्यक्त केला होता. <br /><br />शंभर वर्षांनंतरही जातींमध्ये कुंठित असलेल्या वंचित भारतीयांच्या भविष्याचा दरवाजा उघडण्याचा एक प्रयत्न आहे जातगणना. <br /><br />आणखीन एक गोष्ट होऊ घातली आहे, प्रत्येक निवडणुकीत दक्षिण आणि उत्तरेच्या निकालात दिसलेली तफावत 2024 च्या लोकसभा निवडणूक निकालात संपलेली असेल. <br /><br />नीतीश कुमार यांनी देशाचं नॅरेटिव्हच बदलून टाकलं आहे.</span><div><span style="font-size: x-large;"><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil">कपिल पाटील<br /></a>(राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड) तथा सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद)<br />***<br /><br />पूर्व प्रसिद्धी : लोकसत्ता दि. 25 ऑक्टोबर 2023 </span></div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-23579670379372145522023-07-03T22:23:00.003+05:302023-07-03T22:29:07.541+05:30 बुद्ध की विरासत से जुड़ता सूरत बदलने का युद्ध <span style="font-size: x-large;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWETjIpa4SnYMcpxcBI6KUnOKYcIRF0GAWdh6XB3lUPtzld--w_QycCxcUszg1yhgH_wrTZC7b6B-E0keR7W_O-CEN7EzR3zHGO_W3hcFv7QL1YWYyfy0MybGvuQ7dNqF4droGf8dXDz2lrGTCtSrt-AtFWJefM54V-AOLXnH0r2rL8JPUYjvLZ3cG0q4/s1080/FB_IMG_1687516354008.jpg"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWETjIpa4SnYMcpxcBI6KUnOKYcIRF0GAWdh6XB3lUPtzld--w_QycCxcUszg1yhgH_wrTZC7b6B-E0keR7W_O-CEN7EzR3zHGO_W3hcFv7QL1YWYyfy0MybGvuQ7dNqF4droGf8dXDz2lrGTCtSrt-AtFWJefM54V-AOLXnH0r2rL8JPUYjvLZ3cG0q4/w640-h640/FB_IMG_1687516354008.jpg" /></a><br /><br />सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,<br />मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।<br /><br />ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध हिंदी कवि दुष्यन्त कुमार की कविता से हैं।<br /><br />बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से पटना में बुलाई गई बैठक में देशभर से 15 पार्टियां शामिल हुईं। चार घंटे तक चर्चा हुई। वह बैठक चेहरा तय करने के लिए नहीं थी। प्रधानमंत्री कौन? यह निश्चित करने के लिए तो बिलकुल नहीं थी। पटना का हंगामा देश की सूरत बदलने के लिए था । पटना बैठक की कमाई यह है कि मोदी के खिलाफ आपका चेहरा कौन है? इस चर्चा को इस बैठक ने निरर्थक करार दिया। भारत ने राष्ट्रपति लोकतंत्र को नहीं अपनाया है।<br /><br />नीतीश कुमार खुद बता चुके हैं कि उनकी ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है । जनता दल (यूनाइटेड) के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने पार्टी बैठक में उत्साहित कार्यकर्ताओं को फटकार लगाते हुए कहा, ''नीतीश कुमार प्रधानमंत्री की दौड़ में नहीं हैं । यह जनता दल (यूनाइटेड) का उद्देश्य नहीं है। यह चर्चा करना एकता में बाधक भी हो सकता है।''<br />ललन सिंह ने जब यह कहा था तब ही मीडिया और देश की सभी राजनीतिक धाराएं आश्वस्त थी कि नीतीश कुमार का प्रयास ईमानदार है। दिल से है। अन्यथा इतने बड़े दिग्गज नेता नीतीश कुमार के बुलावे पर भी पटना नहीं आते l यह विश्वास नीतीश कुमार के बेदाग जीवन, निष्ठा, ईमानदारी और जिस तरह से उन्होंने बिहार का चेहरा बदल दिया, उससे पैदा हुआ है। दूसरी बात यह है कि नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के मूल्यों से समझौता नहीं किया है। उन्होंने एनआरसी के खिलाफ बिहार विधानमंडल में प्रस्ताव पारित करने का साहस दिखाया।<br /><br />बैठक में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और दस्तूर ख़ुद्द राहुल गांधी शामिल हुए। उन्होंने कहीं भी बड़ी पार्टी का नेता होने का दिखावा नहीं किया। भारत जोड़ो यात्रा से होने वाली कमाई घमंड में तब्दील नहीं हुई है l एक पल के लिए भी किसी ने ऐसा नहीं सोचा l इतनी सहजता से राहुल गांधी काम कर रहे थे l जब नीतीश कुमार ने उन्हे बोलने को कहा तो राहुल गांधी ने बड़ी विनम्रता से कहा, ''पहले खड़गे साहब बोलेंगे.''<br /><br />ममतादी, स्टालिन, अखिलेश यादव से लेकर उद्धव ठाकरे, शरद पवार, लालू प्रसाद यादव तक, किसने माना होगा कि पहली ही मुलाकात में इन सबकी पॉलिटिकल केमिस्ट्री मिल जाएगी! यह सच है कि उमर अब्दुल्ला ने कहा, ''इतने लोग एक साथ जुटे हैं ये कोई मामूली बात नहीं है। नीतीश कुमार को इस कामयाबी का श्रेय जाता है। इतने लोगों इकट्ठा करना बड़ी बात है। मकसद ताकत हासिल करना नहीं, यह सत्ता नहीं बल्कि वसूलों की लड़ाई हैं। इरादों की लड़ाई है। हम देश को मुसीबत से निकालने के लिए मिल चुके हैं।''<br /><br />यह सच है कि प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा ने उस दिन छोटे पर्दे की जगह घेर ली थी l लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पटना की बैठक पर ध्यान देना पड़ा। इस पर हुई चर्चा को अधिक जगह देनी पडी।<br /><br />पाटलिपुत्र शहर को ऐतिहासिक राजनीतिक विरासत है। डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने कहा था, भारतीय संवैधानिक मूल्ये हमने विदेश से नहीं बल्कि बुद्ध के तत्वज्ञान से ली है। भारत को बुद्ध, महावीर और अशोक की वह विरासत बिहार से मिली।<br /><br />जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुआ 1974 का आंदोलन में बिहार से शुरू हुआ। <br /><br />आपातकाल के बाद 1977 में हुई पहले सत्ता परिवर्तन के की प्रेरणा बिहार था।<br /><br />13 अगस्त 1977 की 'बेलछी' यात्रा इंदिरा गांधी की वापसी का कारण बनी l वह बेलछी नरसंहार में मारे गये दलितों के परिवारों से मिलने गयी थीं l कोई सड़क नहीं थी, तो उन्होंने हाथियों पर नदी पार की। वहां से वह एक नये विश्वास के साथ दिल्ली लौटीं। इंदिराजी की सत्ता में वापसी की राह बिहार से शुरू हुई।<br /><br />उसी बिहार से अब देश में तीसरे बड़े परिवर्तन का आगाज किया गया है।<br /><br />ममता बनर्जी ने पटना बैठक को विपक्षी दलों की बैठक कहने पर आपत्ति जताई. उन्होंने कहा, "यह देशभक्तों की बैठक है।"<br /><br />इसीलिए नीतीश कुमार बार-बार कह रहे हैं कि "स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास उन लोगों द्वारा बदलने की साजिश हो रही है जिन्होंने इसमें भाग नहीं लिया l"<br /><br />'देश को बचाने के लिए अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियां एक साथ आईं', यह उद्धव ठाकरे का बयान और उनके साथ में बैठीं महबूबा मुफ्ती द्वारा ''आइडिया ऑफ इंडिया'' का जिक्र।<br /><br />एक तरफ बीजेपी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और दूसरी तरफ देशभक्तिपूर्ण 'आइडिया ऑफ इंडिया'।<br /><br />यह देशभक्ति और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीच संघर्ष को उजागर करता है। <br /><br />फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने कहा, ''Patriotism is the exact opposite of nationalism: nationalism is a betrayal of patriotism''<br /><br />महबूबा मुफ्ती ने कहा, ''हम गांधी के देश को गोडसे का देश नहीं बनने देंगे.''<br /><br />महाराष्ट्र में गांधी पर गोडसे और गोडसेवादीयों द्वारा कई हमले हुए। प्रबोधनकार ठाकरे ने उनमे से दो साजिशों को नाकाम कर दिया l गांधी को बचाया l उस प्रबोधनकार ठाकरे के पोते उद्धव ठाकरे बैठक में महबूबा मुफ्ती के साथ में बैठे थे l कश्मीर के बारे में धारा 370 पर अपने मतभेद भुलाकर वे एकजुट हुए। इसका जिक्र उद्धवजी ने महबूबा मुफ्ती से बात करते हुए किया। फिर महबूबा जी ने कहा, "यह इतिहास बन गया।"<br /><br />ये है देश को बचाने की एकता, ऐसा पटना बैठक से प्रतीत होता है l देश और देशभक्ति की बदली हुई परिभाषा के पीछे की बेचैनी तब रेखांकित होती है l <br /><br />विपक्ष की एकता के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं l उनका संयुक्त एजेंडा वर्तमान की चुनौतियों का समाधान किस प्रकार करेगा। गरीबी और महंगाई मुद्दा हैl लेकिन हमें बढ़ी हुई असमानता (Disparity) की खाई का जवाब ढूंढना होगा l परिवर्तन की प्रक्रिया में मध्यम वर्ग की बढ़ती आकांक्षाओं को समायोजित करना होगा। मध्यम वर्ग और ऊंची जातियों की आकांक्षाओं को उस ताकत को कमजोर करना होगा जो जाति-प्रधान हिंदू धर्म ने राष्ट्रवाद के नाम पर हासिल की है।<br /><br />बीजेपी के 31 फीसदी वोटों के मुकाबले सिर्फ 69 फीसदी वोट जोड़ने से ये मसला हल नहीं होगा l विरोधियों का मत विभाजन इस योग को अमान्य कर देता है। First past the post यह चुनावी प्रणाली बहुमत को सत्ता में जगह भी नहीं देती। अल्पसंख्यक होने के बावजूद जातीय वर्ण वर्चस्व की जीत होती है।बहुसंस्कृतिवाद के देश में विविधता को ही अस्वीकार कर दिया जाता है। संसद की सीटें बढ़ने पर देश की इस बहुलता को आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional representation) के बारे में सोचना होगा। बेशक, इस लंबी दूरी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कुल 69 प्रतिशत जोडना प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए अभी भी कई भाजपा विरोधी छोटी पार्टियों को समायोजित करना होगा।<br /><br />विभिन्न विचारधाराओं की क्षेत्रीय पार्टियों के एक साथ आने का एक और कारण राज्यों का अशक्त होना है। GST ने राज्यों पर वित्तीय बाधाएं बढा दी हैं। राज्यपाल का पद इतना शक्तिशाली कभी नहीं रहा। सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत तबादलों का अधिकार दिल्ली क्षेत्र से वापस ले लिया गया है। क्या Union of India (संघराज्य ) शब्द अब भारतीय संविधान तक ही सीमित है? ऐसी स्थिति है। इसलिए विपक्ष की एकता अपरिहार्य हो गई है।<br /><br />सत्ताधारी दल की एक देश, एक कानून, एक भाषा की नीति यहीं नहीं रुकती। भक्तों की भाषा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे, राष्ट्रगान जन गण मन और यहां तक कि स्वतंत्रता दिवस को भी चुनौती देने तक पहुंच गई है l उस भाषा को बोलने वालों के लिए कोई पाबंदी नहीं है। "तिरंगे और संविधान को सीने से लगाकर विरोध करें", कहने वाले उमर खालिद 1000 दिन बाद भी जेल में हैं। मोहसिन की मॉब लिंचिंग करने वाले और बिलकिस बानो पर अत्याचार करने वाले जेल से बाहर हैं।<br /><br />देश में बेरोजगारी 8.11 फीसदी बढ़ गई है। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में झटका लगा है। केंद्र द्वारा भले ही किसान विरोधी कानूनों को वापस ले लिया गया हो, लेकिन किसानों का असंतोष खत्म नहीं हुआ है l मणिपुर जल रहा है l बिहार का जाती जनगणना अभियान रोकने की कोशिशें चल रही हैं। एक तरफ freebies और दूसरी तरफ समान नागरिक अधिनियम जैसे गैर-मुद्दे सत्ताधारी अभिजात वर्ग के उपकरण बन गए हैं। सरकारी जाँच प्रणाली का दुरुपयोग हो रहा है। क्षेत्रीय पहचानों के साथ दुर्व्यवहार और गरीबों, वंचितों और श्रमिक वर्ग के उत्पीड़न ने देश को अस्त-व्यस्त कर दिया है। चुनौतियों और सवालों की सूची लंबी है।<br /><br />बहरहाल, पटना की एकता ने निरंकुश सत्ता को झटका दिया है।<br /><br />दुष्यन्त कुमार के शब्दों में,<br />आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी<br />शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।<br /><br />- कपिल पाटील<br />(नेशनल जनरल सेक्रेटरी, जनता दल (यूनाइटेड) एवं सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद)</span>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-23125541955996570272023-06-30T13:35:00.003+05:302023-06-30T13:44:25.673+05:30दीवार हिलने लगी ... <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgg4WYyTuhBSKRD6I2C3ToBTlzyvDEVSJam07FKHv_8e2pGfjTfqvKoiGDRWmNmSm1AZLB4RCRuHEOoyWnGyAKmCqZGjKapOyEPAjzJbw0KwBen6kGHpIQe4ADAODUmwqMmOdr0XJm1T3SicS-kIhqgn2Nwozr3Xwc1t68-OS4qolF6oHni_VhGfmXdqhA/s1080/FB_IMG_1687516354008.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1080" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgg4WYyTuhBSKRD6I2C3ToBTlzyvDEVSJam07FKHv_8e2pGfjTfqvKoiGDRWmNmSm1AZLB4RCRuHEOoyWnGyAKmCqZGjKapOyEPAjzJbw0KwBen6kGHpIQe4ADAODUmwqMmOdr0XJm1T3SicS-kIhqgn2Nwozr3Xwc1t68-OS4qolF6oHni_VhGfmXdqhA/w640-h640/FB_IMG_1687516354008.jpg" width="640" /></a></div><br /><br /><span style="font-size: x-large;"><b> सिर्फ</b> हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,<br />मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।<br /><br />प्रसिद्ध हिंदी कवी दुष्यंत कुमार यांच्या कवितेतील या ओळी आहेत.<br /><br />बिहारचे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यांनी बोलावलेल्या पटण्याच्या बैठकीला देशातले 15 पक्ष हजर होते. चार तास एकाजागी बसून चर्चा झाली. ती बैठक चेहरा ठरवण्यासाठी नव्हती. प्रधानमंत्री कोण? हे ठरवण्यासाठी तर खचितच नव्हती. पटण्याचा हंगामा देशाची सूरत बदलण्यासाठी होता. पटणा बैठकीची कमाई ही की, मोदींच्या विरोधात तुमचा चेहरा कोण? ही चर्चाच या बैठकीने फिजूल ठरवली. भारताने काही अध्यक्षीय लोकशाही स्वीकारलेली नाही. <br /><br />स्वतः नीतीश कुमार यांनी आपल्याला अशी कोणतीच आकांक्षा नसल्याचं आधीच सांगितलं होतं. जनता दल (यूनाइटेड) चे राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह यांनी पक्षाच्या बैठकीतच उत्साही कार्यकर्त्यांना दटावताना सांगितलं होतं की, ''प्रधानमंत्र्याच्या स्पर्धेत नीतीश कुमार नाहीत. जनता दल (यूनाइटेड) चा तो उद्देश नाही. ही चर्चा करणं हा सुद्धा ऐक्यात अडथळा ठरू शकतो.''<br /><br />ललन सिंह असं म्हणाले तेव्हाच देशातल्या मीडियाला आणि सगळ्याच राजकीय प्रवाहांना खात्री पटली की, नीतीश कुमार यांचा खटाटोप (प्रयास) हा प्रामाणिक आहे. मनापासून आहे. अन्यथा इतके मोठे दिग्गज नेते नीतीश कुमार यांनी हाक देताच पटण्याला आले नसते. नीतीश कुमार यांचं निष्कलंक आयुष्य, सचोटी, प्रामाणिकपणा आणि बिहारची त्यांनी बदललेली सूरत यातून निर्माण झालेला तो विश्वास होता. आणखी एक गोष्ट म्हणजे, आपल्या राजकीय आयुष्यात नीतीश कुमार यांनी सेक्युलरिझम आणि समाजवाद या मूल्यांशी कधीही प्रतारणा केलेली नाही. NRC च्या विरोधात बिहार विधिमंडळात ठराव करण्याची हिंमत त्यांनी दाखवली. <br /><br />काँग्रेसचे राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे आणि दस्तूरखुद्द राहुल गांधी या बैठकीला हजर राहिले. कुठेही त्यांनी आपण मोठ्या पक्षाचे नेते आहोत याचा आव आणला नाही. भारत जोडो यात्रेतली कमाई गर्वात तबदील झालेली नाही. कुणालाही क्षणभर तसं वाटलंही नाही. इतक्या सहजपणे राहुल गांधी वावरत होते. नीतीश कुमार यांनी त्यांना बोलायला सांगितलं तेव्हा अत्यंत विनम्रतेने राहुल गांधी म्हणाले, ''आधी खरगे साहेब बोलतील.''<br /><br />ममतादीदी, स्टॅलिन, अखिलेश यादव यांच्यापासून ते उद्धव ठाकरे, शरद पवार, लालूप्रसाद यादव यांच्यापर्यंत या सगळ्यांचीच राजकीय केमिस्ट्री पहिल्याच बैठकीत जुळून येईल यावर कुणाचा विश्वास होता ! उमर अब्दुल्ला म्हणाले ते खरं आहे, ''इतने लोग एक साथ जुटे हैं ये कोई मामूली बात नहीं है। नीतीश कुमार को इस कामयाबी का श्रेय जाता है। इतने लोगों इकट्ठा करना बड़ी बात है। मकसद ताकत हासिल करना नहीं, यह सत्ता नहीं बल्कि वसूलों की लड़ाई हैं। इरादों की लड़ाई है। हम देश को मुसीबत से निकालने के लिए मिल चुके हैं।''<br /><br />प्रधानमंत्र्यांच्या अमेरिका दौऱ्याने त्यादिवशी छोट्या पडद्यावरची जागा व्यापली होती खरं. पण इलेक्ट्रॉनिक मीडियाला पटणा बैठकीची दखल घ्यावी लागली. त्यावरच्या चर्चेला अधिक जागा द्यावी लागली. <br /><br />पाटलीपुत्र नगरीला ऐतिहासिक राजकीय वारसा आहे. भारतीय संविधानातील मूल्ये ही आपण परदेशातून नव्हे तर बुद्धाच्या तत्वज्ञानातून घेतली आहेत, असं डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर म्हणाले होते. बुद्ध, महावीर आणि अशोकाचा तो वारसा याच बिहारमधून भारताला मिळाला आहे.<br /><br />जयप्रकाश नारायण यांच्या नेतृत्वाखाली 1974 मध्ये झालेलं आंदोलन याच बिहारमधून सुरु झालं होतं.<br /><br />त्यातून आणीबाणी नंतरचं जे पहिलं सत्तांतर 1977 मध्ये घडलं, त्याची प्रेरणा बिहारनेच दिली होती. <br /><br />इंदिरा गांधींच्या पुनरागमनासाठी कारण ठरली होती ती 13 ऑगस्ट 1977 ची 'बेलछी' ची यात्रा. बेलछी हत्याकांडात मृत्यू पावलेल्या दलितांच्या कुटुंबांना भेटायला त्या गेल्या होत्या. रस्ता नव्हता तर हत्तीवर बसून नदी पार करून गेल्या. तिथून त्या दिल्लीला परतल्या नवा विश्वास घेऊन. इंदिराजींच्या सत्तेवर परतीचा त्यांचा रस्ता याच बिहारमधून निघाला होता.<br /><br />त्याच बिहारमधून देशातल्या तिसऱ्या मोठ्या परिवर्तनाची हाक आता दिली गेली आहे.<br /><br />ममता बॅनर्जी यांनी पटण्याच्या बैठकीला विरोधी पक्षांची बैठक म्हणायला हरकत घेतली. ''ही देशभक्तांची बैठक आहे'', असं त्या म्हणाल्या. <br /><br />''स्वातंत्र्य लढ्याचा इतिहास त्यात किंचित आणि क्षणभरही सहभागी नसलेले बदलायला निघाले आहेत'', असं नीतीश कुमार पुन्हा पुन्हा सांगत आहेत ते याचसाठी. <br /><br />''भिन्न विचारधारा असलेले पक्ष एकत्र आले ते देश वाचवण्यासाठी'', उद्धव ठाकरेंचं हे प्रतिपादन आणि त्यांच्याच बाजूला बसलेल्या मेहबूबा मुफ्ती यांनी केलेला ''आयडिया ऑफ इंडिया''चा उल्लेख.<br /><br />एका बाजूला भाजपचा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आणि दुसऱ्या बाजूला देशभक्तीची 'आयडिया ऑफ इंडिया'. <br /><br />देशभक्ती विरुद्ध सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या लढाईचा संघर्ष यातून अधोरेखित झाला आहे.<br /><br />फ्रान्सचे राष्ट्राध्यक्ष इमॅन्युएल मॅक्राँ म्हणाले होते, ''Patriotism is the exact opposite of nationalism: nationalism is a betrayal of patriotism''<br /><br />''गांधींच्या देशाला गोडसेचा देश आम्ही बनू देणार नाही'', असं मेहबूबा मुफ्ती म्हणाल्या.<br />गोडसे आणि गोडसेवाद्यांकडून गांधीजींवर महाराष्ट्रात अनेक हल्ले झाले. त्यातले दोन कट प्रबोधनकार ठाकरे यांनी उधळवून लावले. गांधीजींना वाचवलं. त्या प्रबोधनकार ठाकरे यांचे नातू उद्धव ठाकरे या बैठकीला मेहबूबा मुफ्तींच्या बाजूला बसले होते. काश्मीर विषयक 370 कलमाबाबत असलेले मतभेद विसरून ते एकत्र होते. त्याचा उल्लेख उद्धवजींनी मेहबूबा मुफ्तींशी बोलताना केला. तेव्हा त्या म्हणाल्या, ''तो इतिहास झाला.''<br /><br />देश वाचवण्यासाठी ही एकजूट आहे, असं पटण्याची बैठक सांगते. तेव्हा देश आणि देशभक्तीच्या बदललेल्या व्याख्येची त्यामागची चिंताच अधोरेखित होते.<br /><br />विरोधकांच्या एकजुटीपुढे अनेक मोठी आव्हानं आहेत. वर्तमानातील प्रश्नांना त्यांचा संयुक्त अजेंडा त्या आव्हानांचा कसा सामोरा जातो हे ठरणार आहे. गरिबी आणि महागाई हे मुद्दे आहेतच. पण वाढलेल्या विषमतेच्या (Disparity) खाईबद्दल उत्तर शोधावं लागेल. मध्यमवर्गीयांच्या वाढत्या आकांक्षाना बदलाच्या प्रक्रियेत जागा करून द्यावी लागेल. मध्यमवर्ग आणि उच्च जातींच्या आकांक्षांनी वर्णवर्चस्ववादी हिंदुत्वाला राष्ट्रवादाच्या नावाखाली मिळालेलं बळ कमी करावं लागेल.<br /><br />भाजपला मिळणारी 31 टक्के मतं याविरोधात 69 टक्क्यांची नुसती बेरीज करून हा प्रश्न सुटणार नाही. विरोधकांचं मतविभाजन ही बेरीज नाकाम ठरवते. First past the post ही निवडणूक पद्धत बहुमताला सत्तेत जागाही देत नाही. अल्पमतात असूनही जात वर्ण वर्चस्ववादाचा विजय होतो. बहुविध संस्कृतीच्या देशात बहुविधतेलाच नकार मिळतो. देशातील या बहुविधतेला पार्लमेंटच्या जागा वाढतील तेव्हा त्या जागांवर स्थान मिळेल, (Proportional representation) याचा विचार आतापासून करावा लागेल. अर्थात हे लांबपल्ल्याचं लक्ष्य गाठण्यासाठी 69 टक्क्यांची बेरीज हेच प्राथमिक लक्ष्य असलं पाहिजे. त्यासाठी अजूनही अनेक भाजपविरोधी छोट्या पक्षांना सामावून घ्यावं लागेल.<br /><br />भिन्न विचारधारांचे प्रादेशिक पक्ष या एकजुटीत उतरले आहेत त्याचं आणखीन एक कारण म्हणजे, राज्यांचे हिरावले गेलेले अधिकार. GST मुळे राज्यांना आर्थिक मर्यादा आल्या आहेत. राज्यपाल हे पद कधी नव्हे इतके ताकदवर बनले आहे. दिल्ली प्रदेशाकडून सुप्रीम कोर्टाने मान्य केलेला बदल्यांचा अधिकार काढून घेण्यात आला आहे. Union of India (संघराज्य ) हे शब्द आता भारतीय संविधानापुरते मर्यादित राहिले आहेत काय? अशी स्थिती आहे. विरोधकांची एकजूट त्यामुळे अपरिहार्य बनली आहे.<br /><br />एक देश, एक कानून, एक भाषा हे सत्ताधारी पक्षाचं धोरण तिथेच थांबत नाही. राष्ट्रध्वज तिरंगा, राष्ट्रगीत जन गण मन आणि स्वातंत्र्य दिनालाही आव्हान देण्यापर्यंत भक्तांची भाषा पोचली आहे. ती भाषा बोलणाऱ्यांना अटकाव नाही. ''तिरंगा आणि संविधान छातीशी घेऊन प्रतिकार करा'', असं सांगणारा उमर खालिद मात्र 1000 दिवस झाले तरी तुरुंगात आहे. मोहसीनचं मॉब लिंचिंग करणारे आणि बिल्किस बानोवर अत्याचार करणारे तुरुंगाच्या बाहेर आले आहेत.<br /><br />देशात बेरोजगारीचा दर 8.11 टक्क्यांनी वाढला आहे. शिक्षण आणि आरोग्य क्षेत्रांत पिछेहाट झाली आहे. शेतकरी विरोधी कायदे केंद्राने वापस घेतले असले तरी शेतकऱ्यांचा असंतोष संपलेला नाही. मणिपूर जळत आहे. बिहार मधल्या जात जनगणनेची मोहीम थांबण्याचा प्रयत्न सुरु आहे. एका बाजूला freebies आणि दुसऱ्या बाजूला समान नागरिक कायद्यासारखे नॉन इश्यूज ही सत्ताधाऱ्यांची हत्यारं बनली आहेत. सरकारी तपास यंत्रणेचा कधी नव्हे इतका गैरवापर सुरु आहे. प्रादेशिक अस्मितांशी चाललेला दुर्व्यवहार आणि गरीब, वंचित, कष्टकरी वर्गाचं दमन यामुळे देशाची घडी विस्कळीत झाली आहे. आव्हानं आणि प्रश्नांची यादी मोठी आहे.<br /><br />पटण्याच्या एकजुटीने निरंकुश सत्तेला धक्का मात्र मिळाला आहे.<br /><br />दुष्यंत कुमार यांच्याच शब्दात,<br />आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी ...,<br /><br />मात्र देशभक्तांच्या पटण्यातील निर्धारातून बुनियाद हलली पाहिजे.<br />शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए l<br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील</a><br />(राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड) आणि सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद)</span><div><span style="font-size: x-large;"><br /></span></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-38560851744784186182023-06-10T17:02:00.004+05:302023-06-10T22:39:06.469+05:30अन्यथा महाराष्ट्राला मोठी किंमत चुकवावी लागेल... <div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhs9_h0Odiqz00GZcapKVGl3h2iex8fflF5rGC84r_TlYOVNBYTGD3ndLl69o1SmhAZ-v1TySaVyU2dgBv85-_ivb7RHET-r-HZXRKFmerThzHY6XacwCugtvJSAlyIHnP3G2RhKGRbPMEIZ7E8ph6CCRkMPjj4wd0_dFb9opS7CvyTaHjzadgoE8G-/s1200/sharad-pawar-10.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="675" data-original-width="1200" height="360" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhs9_h0Odiqz00GZcapKVGl3h2iex8fflF5rGC84r_TlYOVNBYTGD3ndLl69o1SmhAZ-v1TySaVyU2dgBv85-_ivb7RHET-r-HZXRKFmerThzHY6XacwCugtvJSAlyIHnP3G2RhKGRbPMEIZ7E8ph6CCRkMPjj4wd0_dFb9opS7CvyTaHjzadgoE8G-/w640-h360/sharad-pawar-10.jpg" width="640" /></a></div><b><br /></b></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><b>महाराष्ट्राचे</b> सर्वज्येष्ठ नेते शरद पवार यांना अमरावतीच्या तरुणाने दिलेल्या धमकी मागे नथुरामी शक्ती उघड आहेत. त्यांचा शोध घेण्याचीही गरज नाही. गरज आहे त्यांचा बंदोबस्त करण्याची आणि ती जबाबदारी आहे राज्य शासनाची. </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, कॉ. गोविंद पानसरे, डॉ. एम. एम. कलबुर्गी आणि गौरी लंकेश यांच्या हत्ये पाठोपाठ आता "तुमचा दाभोलकर करू" अशी थेट शरद पवार यांना जीवे मारण्याची धमकी देण्याची हिंमत होऊ शकली कारण नथुरामी शक्तींचा बंदोबस्त झालेला नाही. </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />दाभोलकर, पानसरेंच्या हत्येपूर्वी सनातनच्या माध्यमातून काम करणाऱ्या शक्तींनी 'राक्षसांच्या' निर्दालनाची भाषा केली गेली होती. नंतर त्यांची हत्या झाली. तशीच अत्यंत घातकी, असभ्य आणि निर्लज्ज भाषा शरद पवारांच्या विरोधात वापरली जात आहे. त्यामुळे ट्रोल गॅंगमधल्या कुणीतरी केलेला धमकीचा उपदव्याप म्हणून दुर्लक्ष करता कामा नये. अन्यथा महाराष्ट्राला मोठी किंमत चुकवावी लागेल.</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />औरंगजेबाचं मोबाईलवरील स्टेटस प्रकरण असेल किंवा शरद पवार आणि अन्य नेत्यांना दिल्या जाणाऱ्या जीवे मारण्याच्या धमक्या असतील यामागे काम करणारी प्रवृत्ती समान आहे. </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />एका बाजूला उन्मादी झुंडी रस्त्यावर उतरवायच्या आणि दुसऱ्या बाजूला राक्षस वधाची भाषा करत धमक्या द्यायच्या यामागे समान नियोजनबद्ध षडयंत्र काम करत आहे. </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />ट्रोल गॅंगने शरद पवार नास्तिक असल्याच्या आरोपाची राळ उठवत धमकीच्या समर्थनार्थ पोस्ट टाकायला सुरुवात केली आहे. हे काही अचानक घडलेलं नाही. प्रश्न कुणी कुणाला धमकी दिली हा नाही. धमकी मागचं प्राचीन तंत्र आणि वापरली जाणारी भाषा काय सांगते?</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />आपली सहचारिणी सरस्वती वैद्य हिचे असंख्य तुकडे करून कुकरमध्ये शिजवण्याची, कुत्र्याला खाऊ घालण्याची अमानुष निर्दय क्रौर्याची परिसीमा मनोज सानेने गाठली. त्यातलं क्रौर्य आणि विकृती ट्रोल गॅंगच्या पोस्टमधल्या भाषेत डोकावताना दिसते. </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />शरद पवार नास्तिक आहेत त्यासाठी सुप्रियाताईंच्या लोकसभेतील भाषणाचा दाखला पुन्हा पुन्हा का दिला जात आहे. त्यामागचं कारण काय? </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />कुरुक्षेत्रावरच्या युद्धानंतर हस्तिनापुरात धर्मराज युधिष्ठिराचा राज्याभिषेक झाला. ब्रह्मवृंदांचा शंख ध्वनी थांबवत चार्वाक पंथाच्या एका ब्राह्मणाने ''युद्धातल्या संहारात धर्म कोणता?'' असा धर्मराजालाच सवाल केला. सुवर्ण मुद्रांच्या भिक्षेसाठी जमलेला ब्रह्मवृंद त्या सवालाने खवळला. ''हा ब्राह्मण कपटी राक्षस आहे. नास्तिक चार्वाक आहे.'' असा आरोप करत खवळलेल्या ब्रह्मवृंदांची झुंड त्याच्यावर चालून गेली. ''थांब चार्वाक, आमच्या नुसत्या हुंकाराने आम्ही तुझा वध करतो.'' धर्मराजासमोरच त्याची हत्या झाली. </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />श्रावस्तीला विक्रमादित्याच्या दरबारात मनोर्हित नावाच्या बौद्ध पंडिताचा असाच झुंडबळी घेतला गेला. त्या झुंडीतून बाहेर पडण्याचा प्रयत्न करताना मनोर्हित आपला शिष्य वसुबंधूला म्हणाले, ''पक्षपाती लोकांच्या जमावात न्याय नसतो. फसवल्या गेलेल्या अज्ञानी लोकांमध्ये विवेक नसतो.'' </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />मुख्यमंत्र्यांनी धमकीची चौकशी करण्याचे आदेश दिले आहेत. तर उपमुख्यमंत्र्यांनी ''ही महाराष्ट्राची परंपरा नाही'', असं म्हटलं आहे. </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />प्रश्न असा आहे की, </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;">आधी ट्रोलिंग, मग रस्त्यावर जमाव आणि जीवे मारण्याच्या धमक्या. विवेक आणि उदारतेची महाराष्ट्राची परंपरा पुसून टाकण्यासाठी जमावतंत्राचा वापर सुरु झाला आहे. </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"> </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;">लोकशाहीत टोकाचे मतभेद आणि मनभेदही मान्य केले पाहिजेत. पण मनुष्य भेद आणि मनुष्य वधापर्यंत ते पोचतात तेव्हा कोण अडवणार?<br /><br />आणि राजकीय अवकाळीत लांबलेल्या पावसाची चिंता कुणाला आहे?</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: x-large;"><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील </a></span></div><div style="text-align: left;"><br /></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-58693587742798912102023-05-03T09:38:00.005+05:302023-05-04T10:01:44.745+05:30... म्हणून महाराष्ट्र शाहीर प्रत्येकाने पाहायला हवा<p><span style="font-size: large;"> </span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: large;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgo1KxopMtmq2QWbNLPjX5r7u7MfPnO3jBMnR2BIuN-LfU1_C2Tqib14owo5xkxRVGqMWBkozNdFrNcP7oqQ6iCw9EULnddYqNhi6wkLDq1RllJj3TJAd8PsjsDtBwjxnjjp9512mLczKvLJfB0a7Za7zkZnbrS8ZUdPgGvO2S-7ILk5aeOHp3ZDT5p/s619/images%20(6).jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="619" data-original-width="495" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgo1KxopMtmq2QWbNLPjX5r7u7MfPnO3jBMnR2BIuN-LfU1_C2Tqib14owo5xkxRVGqMWBkozNdFrNcP7oqQ6iCw9EULnddYqNhi6wkLDq1RllJj3TJAd8PsjsDtBwjxnjjp9512mLczKvLJfB0a7Za7zkZnbrS8ZUdPgGvO2S-7ILk5aeOHp3ZDT5p/w320-h400/images%20(6).jpeg" width="320" /></a></span></div><span style="font-size: large;"><br /><br /><br /><b>'महाराष्ट्र शाहीर'</b> अप्रतिम चित्रपट. प्रत्येक मराठी माणसाने पाहायला हवा. ही केवळ शाहीर साबळेंची गोष्ट नाही. महाराष्ट्राच्या शाहीरी परंपरेची ही गोष्ट आहे. महाराष्ट्राच्या लोकसंगीत, लोककला आणि लोकसंस्कृतीची लोकधारा आहे. स्वातंत्र्य चळवळीतल्या शाहीरी योगदानाची कथा आहे. साने गुरुजींच्या पंढरपूर सत्याग्रहात आणि अस्पृश्यता निर्मूलनात महाराष्ट्र शाहीरांनी दिलेल्या योगदानाची कथा आहे. <br /><br />जेमतेम सातवी पर्यंत पोचलेल्या पण गाण्याचं वेड लागलेल्या एका मुलाने घरातल्या आग्रहाखातर गाणं सोडलं. पण साने गुरुजींनी "गाणं हा तुझा श्वास आहे, तो तू मोकळेपणाने घे." असं त्या मुलाला सांगितलं. आणि महाराष्ट्राला महाराष्ट्र शाहीर मिळाला. <br /><br />संयुक्त महाराष्ट्राच्या लढाईत आपल्या शाहीरीने महाराष्ट्र पेटवणाऱ्या या शाहीराला यशवंतराव चव्हाण यांनी काँग्रेसच्या प्रचाराला बोलावलं, तेव्हा शाहीर साबळे यांनी त्यांना ठामपणे नकार दिला. मराठी माणसाच्या अन्यायावरील बाळासाहेब ठाकरे यांच्या मोहिमेला साथ देण्यासाठी 'आंधळं दळतंय' या लोकनाट्याचा धडाका शाहीर साबळेंनी लावला. पण त्याच शिवसेनेला हिंसाचारी वळण लागल्यावर शाहीर त्यापासून अलिप्त झाले. <br /><br />'गर्जा महाराष्ट्र माझा' हे राजा बढेंचं गीत आज महाराष्ट्र गीत बनलंय. तेही शाहीर साबळे यांच्या आवाजातूनच. त्या गाण्याच्या सगळ्या ओळी शाहीर साबळेंनी आपल्या जीवनात प्रत्यक्ष अनुभवल्या आहेत. दारिद्र्याशी संघर्ष केला. देशासाठी, संयुक्त महाराष्ट्रासाठी, समतेच्या चळवळीसाठी तितक्याच ठामपणे ते उतरले. महाराष्ट्र विरोधकांना यमुनेचं पाणी पाजलं. त्यांच्या शाहीरीतून अवघा सह्याद्री गरजला. विचाराने ते पक्के समाजवादी होते.<br /><br />शाहीर साबळेंनी आपल्या गावात पसरणी (तालुका वाई) येथे मंदिर प्रवेश सत्याग्रह केला तेव्हा साने गुरुजींना बोलवलं होतं. साने गुरुजींसोबत सेनापती बापट, कर्मवीर भाऊराव पाटील, क्रांतिसिंह नाना पाटील आले होते. महाराष्ट्र ज्यांच्या ज्यांच्या मुळे घडला अशी ही मोठी माणसं होती. शाहीर साबळे तेव्हा लहान होते. पण आता ते त्याच रांगेत जाऊन बसले आहेत. सह्याद्रीच्या कातळावर कृष्णराव साबळेंनी आपल्या शाहीरीने अभिमानाची लेणी कोरली. <br /></span><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: large;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKDNHfwgrIXVmOoONXNE88_EdCAU7YrCOLs1RLEG1neU1ycT80vDy8El5L48h9N_ljLXHJEeafju0D9fxpl6Y4bkzSTQqnz2pZDHqlaFe6MJoEFlFMFBH2o2egSftfpgMdDWei8_EZVml0uH_FUJ1oonxrvA1vep5JNcVeOnTcLeV_wtabSHDs1BG0/s548/Picsart_23-05-03_09-31-13-989.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="368" data-original-width="548" height="269" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKDNHfwgrIXVmOoONXNE88_EdCAU7YrCOLs1RLEG1neU1ycT80vDy8El5L48h9N_ljLXHJEeafju0D9fxpl6Y4bkzSTQqnz2pZDHqlaFe6MJoEFlFMFBH2o2egSftfpgMdDWei8_EZVml0uH_FUJ1oonxrvA1vep5JNcVeOnTcLeV_wtabSHDs1BG0/w400-h269/Picsart_23-05-03_09-31-13-989.jpg" width="400" /></a></span></div><p><span style="font-size: large;">'महाराष्ट्र शाहीर' हा शाहीर साबळेंचा बायोपिक. पण कुठेही तो डॉक्युमेंटरी बनला नाही. त्यात नाट्य आहे. एंटरटेनमेंट आहे. सिनेमाचा सगळा मसाला आहे. एखादी म्युझिकल नाईट पहावी तसा हा चित्रपट आहे. शाहीर साबळेंच्या सगळ्या गाण्यांचा मनमुराद आनंद घेत पहावा. मराठी चित्रपट असूनही प्रोडक्शनच्या खर्चात केदार शिंदेने जरा सुद्धा कंजूषी केलेली नाही. अफलातून पिक्चर आहे. थेटरात जाऊन बघण्या सारखा. <br /><br />अंकुश चौधरीने लाजवाब काम केलंय. शाहीर साबळेंच्या भूमिकेचं बेरिंग अतिशय चांगलं पकडलंय. शाहिरांची पत्नी भानुमती साबळे यांची भूमिका सना शिंदेंने समर्थपणे निभावली आहे. ‘संगीत देवबाभळी’ या नाटकातून कसदार अभिनयाचा ठसा उमटवणाऱ्या शुभांगी सदावर्ते यांनी शाहीर साबळे यांची आई लक्ष्मीबाई साबळे यांच्या भूमिकेत जीव ओतला आहे. शाहिरांची दुसरी पत्नी राधाबाई साबळे यांची भूमिका अश्विनी महांगडे यांनी तितक्याच ताकदीने निभावली आहे. छोट्या पडद्यावरचा प्रसिद्ध अभिनेता अमित डोलावत याने साने गुरुजींची भूमिका उत्तमरीत्या साकारली आहे. शाहिरांच्या आजीची भूमिका निर्मिती सावंत यांनी निभावली आहे. सर्वच कलाकारांची कामं चांगली आहेत. आणि अर्थात केदार शिंदेंचं दिग्दर्शन व अजय अतुलचं संगीत जोरदार.<br /><br />मराठी भाषा, कला आणि संस्कृतीवर प्रेम करणाऱ्या प्रत्येकाने 'महाराष्ट्र शाहीर' पहायला हवा. <br />-<a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil?mibextid=ZbWKwL" target="_blank"> कपिल पाटील</a><br /><br /></span></p>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-35550465454247263122023-04-23T17:46:00.003+05:302023-04-23T17:46:57.583+05:30निखिल वागळे आग आहेत<div><span style="font-size: large;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0HumYl6wUYtliYknmM-3rJRLy5pcpeV_K9LrvN5IMnVI2oFVJvTXmqw_qCtCnIueL4cHqEtZGuISd0DfKowFOico_KUoSqgJHFYPEJ51ptSdi9LYxhMuQv1y4mLocg-zwnhGxIDs4zgHKW3hfvabs0HdHXfPVk4SGmdvk8E99wDJIEulgrzqCsmk3/s678/Nikhil-Wagle-1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="678" data-original-width="670" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0HumYl6wUYtliYknmM-3rJRLy5pcpeV_K9LrvN5IMnVI2oFVJvTXmqw_qCtCnIueL4cHqEtZGuISd0DfKowFOico_KUoSqgJHFYPEJ51ptSdi9LYxhMuQv1y4mLocg-zwnhGxIDs4zgHKW3hfvabs0HdHXfPVk4SGmdvk8E99wDJIEulgrzqCsmk3/w632-h640/Nikhil-Wagle-1.jpg" width="632" /></a></div><b><br /></b></span></div><span style="font-size: large;"><b>विस्तव </b>हा शब्द अधिक चांगला. विस्तव हातावर घेता येत नाही. विस्तव स्वतः जळत असतो. त्यातून निर्माण होणारी उर्जा नव्या निर्मितीला आच देत असते. विस्तव जळत असतो स्वतः, पण वाईटाची राख करण्यासाठी. १९७७ पासून हा निखारा पेटलेला आहे.<br /><br />अवघ्या २२ - २३ व्या वर्षी ते संपादक झाले. दिनांक साप्ताहिकाचे. बाळशास्त्री जांभेकरांच्या नंतर इतक्या तरुण वयात संपादक झालेला दुसरा कोणी नसेल. आता ती परंपरा हरवली आहे. महाराष्ट्रातल्या पत्रकारितेची आणि संपादकांची खास परंपरा राहिली आहे, जे जे अनिष्ट आहे त्या विरोधात उभं राहायचं, अन्यायाच्या विरोधात आवाज उठवत राहायचं. त्या सगळ्या संपादकांची त्या त्या वेळची सगळी मतं बरोबर असतीलच असं नव्हे. शेवटी आकलनाचा, उपलब्ध साधनांचा, सामाजिक अवकाशाचा, आर्थिक - सामाजिक संबंधांचा प्रश्न असतो खरा. परंतु बाळशास्त्री जांभेकर आणि फुले - शाहू - आंबेडकरी ही परंपरा एका बाजूला आणि दुसऱ्या बाजूला टिळक - आगरकरी परंपरा. या परंपरेत एक सामान दुवा आहे, यातली एकही परंपरा अप्रामाणिक नाही. जी बाजू समोर आली, जे सत्य समोर आलं, त्या सत्याच्या बाजूने ते उभे राहिले. सुधारणांचा त्यांनी कैवार घेतला. या परंपरेत निखिल वागळे अगदी फिट्ट बसतात. <br /><br />विस्तवासारखी वागळेंची भाषा प्रखर आहे. जाळते ती. वेदना देते. त्या आगीत सुक्याबरोबर ओलंही कधीकधी जळतं. पण त्याचा दोष विस्तवाला, आगीला कसा देता येईल?<br /><br />निखिल वागळेंसोबत १९७८ पासून आहे. राष्ट्र सेवा दलाच्या शिबिरात. अभ्यासवर्गात. साप्ताहिक दिनांकच्या कचेरीत. नंतर नामांतराच्या चळवळीत. नंतर महानगरमध्ये. त्यावेळच्या सेनेच्या दहशतीच्या विरोधात लढताना, जातीयवाद्यांशी पंगा घेताना निखिल वागळे यांना खूप जवळून पाहिलं आहे. त्यांचं प्रेम, त्यांचं मैत्र्य जितकं अनुभवलं तितकाच राग आणि भांडणही अनुभवलं. काही प्रश्नांवरच्या भूमिकांमधलं अंतरही पाहिलं.<br /><br />वागळेंसाठी वाद नवे नाहीत.<br />वादामधली त्यांची बाजू १०० टक्के बरोबर असते, असं मी म्हणणार नाही. पण त्यांची भूमिका ठाम असते. आणि आपल्या भूमिकेशी ते हिंमतीने, प्रामाणिकपणे घट्ट चिकटून राहतात. त्या भूमिकेसाठी ते युद्ध खेळतात. त्यासाठी हवी ती किंमत मोजतात. मार खातात. तब्बेतीची पर्वा करत नाहीत. मृत्यूला भीत नाहीत.<br /><br />कुणी तरी जात काढली म्हणून सांगतो आहे,<br />डंके की चोट पर एक गोष्ट नक्की सांगेन की, ते दलित, आदिवासी, पिछडे, बहुजन, अल्पसंख्यांक, स्त्रिया, उपेक्षित घटक यांच्या बाजूनेच आहेत. निखिल वागळे लढणारा पत्रकार आहे. जीव जाईल पण जातीयवाद्यांशी, हुकूमशहांशी, प्रस्थापित व्यवस्थेशी कधीही हात मिळवणी करणार नाही. फॅसिझमच्या विरोधातली त्यांची भूमिका स्वच्छ आहे.<br /><br />फॅसिझम विरोधात जे जे लढताहेत त्यांना प्रामाणिकपणे सांगितलं पाहिजे की शुद्धतेच्या दांभिक कसोट्या कुणी लावू नये. फॅसिझमच्या विरोधात जो जो लढतो आहे तो आपला मानला पाहिजे. या देशातला फॅसिझम हा हिटलरी फॅसिझम नाही हा नथुरामी फॅसिझम आहे. फॅसिझमच्या विरोधात लढणाऱ्यांनी तुझं शस्त्र बोथट, माझं हत्यार धारधार म्हणत परस्परांवर वार करण्यात काय हाशील आहे?<br /><br />नथुरामी फॅसिझमच्या पातळ यंत्राशी लढण्यासाठी सगळ्यांना एकजूट करावी लागेल. गांधी - आंबेडकरी विचारांच्या आणि मार्गाच्या समन्वयाशिवाय ते शक्य नाही. हा खरा 'आजचा सवाल' आहे. निखिल वागळेंसारख्या निर्भय पत्रकारांची भूमिका त्यात निर्णयाक असणार आहे. <br /><br />निखिल वागळे यांचा आज वाढदिवस आहे. ते पासष्टीत पदार्पण करत आहेत. त्यांना निरोगी आणि दीर्घ आयुष्यासाठी खूप खूप शुभेच्छा आणि मनापासून सलाम!<br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील</a></span><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-57456221553782882772023-03-23T17:04:00.001+05:302023-03-23T17:04:56.371+05:30मासिक पाळीच्या रजेचा मुद्दा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-fVFOdlE3NecZfD82A1S44kffkbti_-Hl89-z5kOR98ZpT7KrSJVx_G7zQDaK2Dk2yq-mN54a4GrbmMEKHGVYax1kA5mBfytH9IR4mInVd_Ar8Rq6UMU7w0yPa1B1zSdK_p31tHJb3BWTWn9BnCq7qu12qDKnc-Ei4c35us1bXGnHlvqDLY4Ls_EK/s678/images.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span style="font-size: large;"><img border="0" data-original-height="452" data-original-width="678" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-fVFOdlE3NecZfD82A1S44kffkbti_-Hl89-z5kOR98ZpT7KrSJVx_G7zQDaK2Dk2yq-mN54a4GrbmMEKHGVYax1kA5mBfytH9IR4mInVd_Ar8Rq6UMU7w0yPa1B1zSdK_p31tHJb3BWTWn9BnCq7qu12qDKnc-Ei4c35us1bXGnHlvqDLY4Ls_EK/w640-h426/images.jpeg" width="640" /></span></a></div><span style="font-size: large;"><br /><br /><i>8 मार्च महिला दिनी विधान परिषदेत झालेल्या चर्चेत आमदार कपिल पाटील यांनी केलेल्या सूचना.</i></span><div><span style="font-size: large;"><i><br /></i></span><div><span style="font-size: large;">----------------------</span></div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><br /></div><span style="font-size: large;"><b>सभापती महोदया, </b>महिला दिनाच्या निमित्ताने मांडण्यात आलेल्या प्रस्तावावर माझे विचार मांडण्याकरिता मी उभा आहे. सर्व प्रथम आपल्याला व सर्व महिला सदस्यांना मी महिला दिनाच्या हार्दिक शुभेच्छा देतो.<br /><br />सभापती महोदया, भारतातील महिलांचा इतिहास फार काही चांगला नाही. अन्यथा अहिल्येला शिळा होऊन राहावे लागले नसते. सीतेला वनवास भोगावा लागला नसता व द्रौपदीला वस्त्रहरणाला सामोरे जावे लागले नसते. मी प्रश्नांचा पाढा वाचणार नाही केवळ काही सूचना करणार आहे. पहिले महिला धोरण जाहीर करण्याचे श्रेय जरी महाराष्ट्र शासनाला असले तरी देखील महिला धोरणातील घोषित बाबी आजतागायत कधीही पूर्ण होऊ शकल्या नाहीत, ही वस्तुस्थिती नाकारता येणार नाही. आपण ५० टक्के आरक्षणाची मागणी करतो. आजही शासकीय व निम शासकीय सेवेत महिलांचे प्रमाण २० टक्क्यांपेक्षा कमी आहे. हा आकडा पुढे - मागे होऊ शकतो. माझी मागणी आहे की, किमान माध्यमिक व प्राथमिक शाळांमध्ये बिहार राज्याप्रमाणे महिलांना ५० टक्के आरक्षण करावे. अनेकदा स्त्री कर्मचाऱ्यांकडे बघण्याचा दृष्टीकोन वेगळा असतो, त्यांची हेटाळणी होते. अधिकारी स्त्री असेल तर तिचे ऐकले जात नाही. ती जर सहायक असेल तर तिला दटावले जाते. हा दृष्टीकोन बदलणे आवश्यक आहे. स्त्री धर्माच्या काही गोष्टी असतात त्या बाबत बघण्याचा दृष्टीकोन बदलणे आवश्यक आहे. बिहार व केरळ राज्यात स्त्री कर्मचारी, शिक्षिका व विद्यार्थीनींना प्रत्येक महिन्याला मासिक पाळीकरिता दोन दिवसांची रजा दिली जाते किमान एक दिवसाची तरी रजा दर महिन्याला सर्व महिला कर्मचारी, शिक्षिका विद्यार्थीनीना द्यावी, अशी मी मागणी करतो.<br /><br />सभापती महोदया, आपल्याकडे मिड डे मिलचा कार्यक्रम राबवण्यात येतो. या योजनेत सर्व महिला असतात. पोळया करण्यापासून भाजी करण्यापर्यंत महिलांचा यामध्ये सहभाग असतो. मात्र या कामाचे ठेके पुरुषांना दिले जातात. प्रत्येक शाळेकडून गावातील महिला बचत गटालाच ठेका दिला गेला पाहिजे. ही साधी गोष्ट केली तर गावातील महिला आपल्या मुलांसाठी सकस व चांगले जेवण बनवतील. याची खात्री देता येईल. ही सहज जमण्यासारखी गोष्ट आहे. माझी शासनाला विनंती आहे की, आपण ते करावे.<br /><br />सभापती महोदया, राज्यात एकूण ६ कोटी महिला आहेत. त्यापैकी साधारण २० ते २२ टक्के महिला एससी व एसटी प्रवर्गातील आहेत. अपंग महिला अडीच टक्क्यांहून अधिक आहेत. ज्येष्ठ महिला १० टक्क्यांहून अधिक आहेत. घरकाम करणाऱ्या १५ लाख आहेत. शरीरविक्री व्यवसायात ६६ हजार महिला आहेत. या गटाच्या प्रश्नांकडे दुर्लक्ष झालेले आहे. या गटाकडे अधिक लक्ष देण्याकरिता राज्याच्या महिला धोरणामध्ये उल्लेख व्हावा अशी माझी विनंती आहे. सन्माननीय सदस्य श्री.श्रीकांत भारतीय यांनी केलेल्या सूचनेशी मी सहमत आहे. अनाथालयातून बाहेर पडणाऱ्या महिलेचे कोणीच नसते. यामुळे ती अधिक एकाकी होते. त्यांच्यासाठी स्वतंत्र केंद्र तयार केले पाहिजे. शहरांमध्ये काम करणाऱ्या महिलांकरिता आपण वसतिगृह तयार केले आहे. तसे काही करता आले तर ते करावे.<br /><br />सभापती महोदया, शाळांमध्ये मुलींना प्रती दिन केवळ १ रुपया उपस्थिती भत्ता देण्यात येतो. अजूनही मुलींचे शाळेतील प्रमाण वाढलेले नाही, सभापती महोदया, आपण सांगितल्यानुसार कोविड काळात बालविवाहांचे प्रमाण प्रचंड प्रमाणावर वाढले. या बरोबरच मुलींचे शाळेतील गळतीचे प्रमाण देखील वाढले. माझी विनंती आहे की, मुलींसाठी उपस्थिती भत्ता दिवसाला किमान १० रुपये केला पाहिजे. या छोट्या वर्गासाठी हा उपस्थिती भत्ता वाढविला तर मुलींचे शाळेतील प्रमाण वाढण्यास मदत होईल.<br /><br />सभापती महोदया, स्त्री उद्योजकांसाठी Single window system सुरु केली तर अनेक स्त्री उद्योजिका startup करु शकतील.<br /><br />सभापती महोदया, महिलांसाठी सहा महिने प्रसुती रजा देण्यास सुरुवात केली आहे. परंतु पुरुषांना आजही स्त्रीच्या प्रसुती वेदना कळत नाहीत. प्रसुतीच्या तारखेपासून पुरुषाला किमान १५ दिवसाची रजा दिली तर तो आपल्या पत्नीच्या वेदनेमध्ये आणि निर्मितीच्या आनंदात सहभागी होऊ शकेल. या सर्व बाबींचा आपण विचार करावा.<br /><br />सभापती महोदया, आपण मला बोलण्याची संधी दिल्याबद्दल आपले आभार मानतो व माझे भाषण थांबतो.<br />धन्यवाद!<br /><br />- कपिल पाटील</span><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">----------------------</span></div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">मासिक पाळीची रजा द्या - आमदार कपिल पाटील </span></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">Tap to watch - <a data-saferedirecturl="https://www.google.com/url?q=https://youtu.be/SvFs7mfeAbE&source=gmail&ust=1679657486042000&usg=AOvVaw39qA4nOKN6gDYeVVBBqJXc" href="https://youtu.be/SvFs7mfeAbE" style="color: #1155cc;" target="_blank">https://youtu.be/SvFs7mfeAbE</a><br /></span></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="color: #0d0d0d; font-family: Roboto, Noto, sans-serif; white-space: pre-wrap;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="color: #0d0d0d; font-family: Roboto, Noto, sans-serif; white-space: pre-wrap;"><span style="font-size: large;">अर्थसंकल्पीय अधिवेशन l ८ मार्च २०२३</span></span></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="color: #0d0d0d; font-family: Roboto, Noto, sans-serif; white-space: pre-wrap;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span></div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div></div></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-9066711664778685582023-02-23T18:41:00.005+05:302023-02-23T19:09:07.869+05:30कर्पूरी ठाकुर 2.0 <span style="font-size: large;"><i>सामाजिक न्याय की कल्पना को अस्वीकार करनेवालों ने नीतीश कुमार और उनकी सरकार के खिलाफ सुरंगें बनाना शुरू कर दिया है।</i></span><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9ePsAjyXhOWDYhhq4nGv39D2mOTSpJaJjfou2nwOtwLN2pthuvqFdvG865IvD0ANZaHE9H80S8Eh0BLELB8ttohkFvmydpBFDFsOw6HrYqf2GYRK3141AnZoDbKSw8pC-3pk7w6br_953JyK6pH9ZI1QXTSpB3tambCItqt1wPQNaiJrnQ87AQzag/s3286/Karpuri%20Nitish.jpg"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9ePsAjyXhOWDYhhq4nGv39D2mOTSpJaJjfou2nwOtwLN2pthuvqFdvG865IvD0ANZaHE9H80S8Eh0BLELB8ttohkFvmydpBFDFsOw6HrYqf2GYRK3141AnZoDbKSw8pC-3pk7w6br_953JyK6pH9ZI1QXTSpB3tambCItqt1wPQNaiJrnQ87AQzag/w640-h426/Karpuri%20Nitish.jpg" /></a> <br /> </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><b>मैट्रिक </b>में प्रथम श्रेणी में पास हुआ था वो लड़का। नाई समाज का पहला शिक्षित लड़का था। घर में घनघोर गरीबी थी। बेटे की उपलब्धि से पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे बेटे को उस गाँव के सबसे पढ़े-लिखे और ऊंची जाति के मुखिया के पास ले गए। 'मेरा बेटा फर्स्ट क्लास आया है। इसे और आगे बढ़ना है। आप इसे आशीर्वाद दीजिए।'<br /></span> <span style="font-size: large;"><br />'फर्स्ट क्लास आया तो मैं क्या करूं? पहले मेरे पैर दबाओ।'</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><br />अपमान और वेदना की उस घटना से कर्पूरी ठाकुर के मन को गहरी चोट पहुंची।</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><br />वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उस चोट ने कभी प्रतिशोध का रूप नहीं लिया। अपमान का वो दर्द उनके संकल्प को और मजबूत करता गया।</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><br />बिहार के पिछड़े और अति पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के लिए, उनके उत्थान के लिए फैसले लेने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। छोटी-छोटी पिछड़ी जातियों के समूहों को उन्होंने न्याय दिलाने का प्रयास किया। उनके निर्णय आरक्षण और रियायतों तक ही सीमित नहीं थे। उन्होंने बिहार में पिछड़े वर्ग का नया नेतृत्व तैयार किया। जब उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा, तब उनके नाम पर कोई मकान तक नहीं था। उनका परिवार लोगों के बाल काटकर अपना जीवन यापन करता था।</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><br />कर्पूरी ठाकुर जब कॉलेज में थे तो एआईएसएफ में थे। उस समय का समस्त युवा वर्ग शोषण और असमानता के विरुद्ध मार्क्स के दर्शन से प्रभावित था। लेकिन भारतीय मार्क्सवादी आंदोलन में उन्हें जाति के सवालों का जवाब नहीं मिला, इसलिए उनका झुकाव समाजवादी आंदोलन की ओर हो गया। डॉ. राममनोहर लोहिया की जाति नीति से आंबेडकरवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। डॉ. राम मनोहर लोहिया और एसएम जोशी गांधी को माननेवाले समाजवादी थे। लेकिन इस समाजवादी नेतृत्व को साथ लेकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। आंबेडकर खुद को समाजवादी कहते थे। महाराष्ट्र के समाजवादी नेता और कार्यकर्ता पहले ही महाड और पर्वती के सत्याग्रह में शामिल हो चुके थे। अगर कर्पूरी ठाकुर ने समाजवादी रास्ता नहीं चुना होता तो आश्चर्य होता। </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><br />डॉ. राम मनोहर लोहिया के मंत्र 'पिछडा पावे सौ में साठ' ने उत्तर भारत की राजनीति में हलचल मचा दी। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ओबीसी जातियों से नए नेतृत्व का उदय हुआ। स्वयं ओजस्वी तेज के साथ।<br /><br />किसने किसे मुख्यमंत्री बनाया, आजकल ये दावे किए जाते हैं। लेकिन ये चर्चा व्यर्थ है। लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में शीर्ष पर पहुंचे तो स्वयं के प्रयासों और स्वयं की प्रतिभा से। उनके साथ उत्तर भारत के कई दलित और ओबीसी नेता खड़े रहे तो वो डॉ. राममनोहर लोहिया के वैचारिक प्रभाव से।<br /><br />लेकिन एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि बिहार में वैचारिक निष्ठा से राजनीति करने वाले बड़ी संख्या में थे और अब भी हैं। ये समाजवादी नेता गांधी-आंबेडकर और लोहिया-जयप्रकाश को माननेवाले थे। पिछली पीढ़ी के बीपी मंडल, रामसुंदर दास, देवेंद्र प्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, रघुवंश प्रसाद हों या वर्तमान में नीतीश कुमार या लालू प्रसाद यादव जैसे दिग्गज नेता या उनके साथ खड़े अन्य नेता जैसे </span><span style="font-size: large;">तेजस्वी यादव, राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह</span><span style="font-size: large;">, विजय चौधरी, वशिष्ठ नारायण सिंह, शिवानंद तिवारी से लेकर देवेशचंद्र ठाकूर, मनोजकुमार झा, </span><span style="font-size: large;">उमेश सिंह कुशवाहा, अफाक अहमद खां </span><span style="font-size: large;">तथा कन्हैया कुमार तक</span><span style="font-size: large;">। </span><span style="font-size: large;"> बिहार में प्रगतिशील विचार का हर नेता लोहिया, जयप्रकाश के बाद कर्पूरी ठाकुर को मानता है। हालांकि कर्पूरी ठाकुर लोहिया, जयप्रकाश जैसे दार्शनिक नहीं थे, लेकिन राजनीतिक सत्ता के माध्यम से अपनी वैचारिक निष्ठा का आविष्कार करने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। सामाजिक न्याय के लिए अपनी सत्ता का त्याग करनेवाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। राजनीति में त्याग और बलिदान का महत्व शायद कम हो गया हो। लेकिन इसका सबसे पहला उदाहरण कर्पूरी ठाकुर ही हैं।<br /><br />पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने के दृढ़ निश्चय के कारण कर्पूरी ठाकुर को सत्ता छोड़नी पड़ी थी। मुंगेरीलाल कमेटी की सिफारिश पर वे सवर्णों के कमजोर लोगों को भी न्याय दिलाने वाले थे। इसके बावजूद कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।<br /><br />कर्पूरी ठाकुर की जन्म शताब्दी वर्ष शुरू होते ही एक बार फिर वही संघर्ष शुरू हो गया है।<br />नीतीश कुमार ने जातिगत गणना और सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का कार्यक्रम शुरू किया है। सामाजिक न्याय की कल्पना को अस्वीकार करनेवालों ने नीतीश कुमार और उनकी सरकार के खिलाफ सुरंगें बनाना शुरू कर दिया है।<br /><br />डॉ. आंबेडकर द्वारा ओबीसी के लिए अनुच्छेद 340 के तहत किए गए प्रावधान, राम मनोहर लोहिया का 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' मंत्र, पिछड़ों और अतिपिछड़ों के लिए कर्पूरी ठाकुर के प्रयासों को प्रत्यक्ष में लागू करने वाले नीतीश कुमार पहले देश के किसी राज्य के मुख्यमंत्री हैं। जातिगत जनगणना उनके द्वारा लिया गया एक साहसिक निर्णय है।<br /><br />कर्पूरी ठाकुर ने सवर्णों के प्रति घृणा के तहत कभी कोई कार्य नहीं किया। लेकिन वे सामाजिक न्याय के मुद्दे पर जोर देते थे। फिर भी कर्पूरी ठाकुर को पद छोड़ना पड़ा। लेकिन उनके इस त्याग से बिहार में बड़ी संख्या में वंचित, पीड़ित और शोषित लोगों में जागरूकता आई। इसी जागरूकता को साथ लेकर नीतीश कुमार ने दूसरा बड़ा प्रयोग शुरू कर दिया है। उनका पहला प्रयोग अति पिछड़ों को न्याय दिलाना था। इसमें वे सफल रहे। देश में पिछड़ों, दलितों और सभी समुदायों की महिलाओं को बराबरी की भागीदारी देने का फैसला सर्वप्रथम नीतीश कुमार ने ही लिया। इससे बिहार में एक मजबूत दुर्ग का निर्माण हुआ्। 'न्याय' के विरोधी इस दुर्ग को कभी भेद नहीं पाए। नीतीश कुमार की कार्य पद्धति है कि सवर्णों को चोट पहुंचाए बिना काम किया जाए।<br /><br />चाहे सीएए, एनआरसी का प्रश्न हो या सामाजिक न्याय का, नीतीश कुमार ने हमेशा विरोधियों को करारा जवाब दिया है। कोई भी अन्य राज्य इतने स्पष्ट रूप से सेक्यूलर रुख अपनाते हुए सत्ता का संतुलन कायम नहीं रख पाया है।<br /><br />देश में धार्मिक द्वेष को बढ़ाकर विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास हर संभव हो रहा है । जातिगत जनगणना के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट न जाते तो आश्चर्य होता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर जातिगत गणना का रास्ता साफ कर दिया है। जातिगत जनगणना का मुद्दा बिहार तक ही सीमित नहीं है। यह देश के सभी राज्यों के लिए एक अहम मुद्दा है। ये राजनीति नहीं, सामाजिक न्याय का मुद्दा है। इसके माध्यम से वंचित समूहों की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।<br /><br />कर्पूरी शताब्दी पर उन्हें स्मरण करने और उनका अभिवादन करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? नीतीश कुमार और बिहार सरकार द्वारा स्वीकार किए गए इस मार्ग का पूरा देश इंतजार कर रहा है।<br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील</a><br />सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद <b>. </b>राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड)</span></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-66472780513264025232023-01-24T12:47:00.005+05:302023-01-30T19:51:38.174+05:30कर्पूरी ठाकूर 2.0<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWvJBUbw9aRkEWQBDkduWY-tu36GFLbhxgetmaTAMwlG2ALQJE8ezoL0IyzBL9GzrL0nxrQV682Yd6gkWmc-Wmr0WeERBFC6eRkiOpoBc79oICXXSrroW6SoOhpXfwb-CVrt-Kko5Vt7qH72J-RfNTJ9aRpEoA9r7yJ7ih_ovyn1Kn5Brh0E6ml3am/s3286/Karpuri%20Nitish.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2192" data-original-width="3286" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWvJBUbw9aRkEWQBDkduWY-tu36GFLbhxgetmaTAMwlG2ALQJE8ezoL0IyzBL9GzrL0nxrQV682Yd6gkWmc-Wmr0WeERBFC6eRkiOpoBc79oICXXSrroW6SoOhpXfwb-CVrt-Kko5Vt7qH72J-RfNTJ9aRpEoA9r7yJ7ih_ovyn1Kn5Brh0E6ml3am/w640-h426/Karpuri%20Nitish.jpg" width="640" /></a></div><br /><span style="font-size: large;"><br /><b>मॅट्रिकला </b>फर्स्ट क्लासमध्ये पास झाला होता तो मुलगा. नाभिक समाजातला पहिला शिकलेला मुलगा. घरात दारिद्रय. बापाला कोण आनंद झाला. त्या गावातल्या सर्वात शिक्षित आणि उच्च जातीतल्या प्रमुखाकडे मुलाला बाप घेऊन गेला. 'बेटा फर्स्ट क्लास आया है l आगे जाना है, आशीर्वाद दिजीए l'<br /><br />'फर्स्ट क्लास आला मग काय करू? आधी माझे पाय दाबून दे.'<br /><br />अपमान आणि वेदनेचा तो प्रसंग कर्पूरी ठाकूर यांच्या मनावर खोल जखम करून गेला.<br /><br />बिहारचे दोनदा मुख्यमंत्री झाले ते. पण त्या जखमेने कधी सुडाचं रूप घेतलं नाही. अपमानाच्या वेदनेने त्यांचा निर्धार अधिक प्रखर होत गेला.<br /><br />बिहार मधल्या पिछड्या आणि अतिपिछड्यांसाठी, दलित आणि आदिवासींसाठी, त्यांच्या उत्थानासाठी निर्णय घेणारे ते पहिले मुख्यमंत्री. छोट्या छोट्या अतिपिछड्या जात समूहांना न्याय देण्याचा त्यांनी प्रयत्न केला. आरक्षण आणि सोयी सवलतीं पुरते त्यांचे निर्णय मर्यादित नव्हते. बिहारमधल्या मागास वर्गातलं नवं नेतृत्व त्यांनी उभं केलं. मुख्यमंत्री पद सोडावं लागलं तेव्हा त्यांच्या नावावर घर नव्हतं. कुटुंबाचा उदरनिर्वाह केशकर्तनातूनच चालत होता.<br /><br />कर्पूरी ठाकूर कॉलेजमध्ये असताना एआयएसएफमध्ये होते. शोषण आणि विषमतेच्या विरोधातल्या मार्क्सच्या तत्वज्ञानाने त्या काळात सगळेच तरुण भारावत असत. पण जातीच्या प्रश्नांना भारतीय मार्क्सवादी चळवळीत उत्तरं मिळत नाहीत म्हणून समाजवादी चळवळीकडे ते ओढले गेले. डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या जातीनीतीशी आंबेडकरवादाचं घट्ट नातं आहे. डॉ. राममनोहर लोहिया आणि एस. एम. जोशी गांधींना मानणारे समाजवादी. मात्र या समाजवादी नेतृत्वालाच सोबत घेऊन डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांना रिपब्लिकन पक्ष उभा करायचा होता. आंबेडकर स्वतःला समाजवादी म्हणवत असत. महाराष्ट्रातील समाजवादी नेते आणि कार्यकर्ते महाड आणि पर्वतीच्या सत्याग्रहात आधीच जोडले गेले होते. कर्पूरी ठाकूर यांनी समाजवादी रस्ता निवडला नसता तरच नवल. <br /><br />डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या 'पिछडा पावे सौ में साठ' या मंत्राने उत्तर भारतातील राजकारण ढवळून निघालं. अतिपिछड्या आणि ओबीसी जातीं मधील नवं नेतृत्व भारतीय राजकारणाच्या क्षितिजावर उदय पावलं. स्वयं तेजाने.<br /><br />हल्ली कोणी कोणाला मुख्यमंत्री केलं असले दावे केले जातात. या चर्चा फिजुल आहेत. बिहारच्या राजकारणात शिखरापर्यंत लालूप्रसाद यादव किंवा नितीशकुमार पोचले ते स्वयं प्रयत्नातून आणि आणि स्वयं प्रतिभेतून. त्यांच्यासह उत्तर भारतातील अनेक दलित आणि ओबीसी नेते उभे राहिले ते डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या वैचारिक प्रभावातून. <br /><br />एक मात्र नक्की सांगता येईल, वैचारिक निष्ठेतून राजकारण करणाऱ्यांची बिहारमध्ये मोठी फळी होती आणि आहे. गांधी - आंबेडकर आणि लोहिया - जयप्रकाश यांना मानणारे हे समाजवादी नेते. आधीच्या पिढीतील बी. पी. मंडल, रामसुंदर दास, देवेंद्रप्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, रघुवंश प्रसाद असोत की नितीशकुमार किंवा लालूप्रसाद यादवांसारखे दिग्गज नेते असोत की त्यांच्या सोबतीने उभे राहिलेले अन्य नेते असोत, जसे की राजीव रंजन सिंह, विजय चौधरी, उपेंद्र कुशवाह, वशिष्ठ नारायण सिंह, शिवानंद तिवारी यांच्यापासून ते देवेशचंद्र ठाकूर, मनोजकुमार झा आणि कन्हैया कुमार पर्यंत बिहारमधील पुरोगामी विचारांचा प्रत्येक नेता लोहिया, जयप्रकाश यांच्यापाठोपाठ कर्पूरी ठाकूर यांना मानतो. कर्पूरी ठाकूर हे लोहिया, जयप्रकाश यांच्यासारखे दार्शनिक तत्ववेत्ते नसतील. तथापी आपल्या वैचारिक निष्ठा राजकिय सत्तेच्या माध्यमातून आविष्कृत करणारे ते पहिले मुख्यमंत्री. सामाजिक न्यायासाठी आपली सत्ता गमावणारे ते पहिलेच मुख्यमंत्री. त्याग आणि बलिदान यांचं महत्त्व राजकारणात आता कमी झालं असेल. पण त्याचं पहिलं उदाहरण कर्पूरी ठाकूर हेच आहेत.<br /><br />पिछड्या वर्गांना न्याय देण्याच्या निर्धारातून कर्पूरी ठाकूर यांना सत्तेचा त्याग करावा लागला. मुंगेरीलाल कमिटीच्या शिफारशीतून ते वरिष्ठ जातीतल्या दुर्बलांनाही न्याय देणार होते. तरीही कर्पूरी ठाकूर यांना मुख्यमंत्री पद गमवावं लागलं.<br /><br />कर्पूरी ठाकूर यांचं जन्मशाताब्दी वर्ष सुरू होत असताना तोच संघर्ष पुन्हा एकदा उभा राहिला आहे<br /><br />नितीशकुमार यांनी जातनिहाय गणना आणि सामाजिक, आर्थिक पाहणीचा कार्यक्रम सुरू केला आहे. ज्यांना सामाजिक न्यायाची कल्पना मान्य नाही त्यांनी त्यांच्या सरकारच्या विरोधात सुरुंग पेरायला सुरवात केली आहे.<br /><br />डॉ. आंबेडकर यांनी ओबीसींसाठी घटनेत कलम 340 अन्वये केलेली तरतूद, 'पिछडा पावे सौ में साठ' हा डॉ. राममनोहर लोहिया यांचा मंत्र, पिछडे - अतिपिछड्यांसाठी कर्पूरी ठाकूर यांनी केलेला प्रयास प्रत्यक्षात यशस्वीपणे बिहार राज्यात राबवणारे नितीशकुमार हे पहिले मुख्यमंत्री. जाती जनगणनेचा त्यांनी घेतलेला निर्णय हा धाडसाचाच म्हणावा लागेल.<br /><br />कर्पूरी ठाकूर यांनी उच्च जातींच्या द्वेषातून कधीही कोणती कृती केली नाही. मात्र सामाजिक न्यायाच्या प्रश्नावर ते आग्रही होते. तरीही कर्पूरी ठाकूर यांना पायउतार व्हावं लागलं. पण त्या त्यागातून बिहारमध्ये वंचित, पीडित, शोषितांची मोठी फळी उभी राहिली. नितीशकुमार यांनी ही फळी एकत्र करत हा दुसरा मोठा प्रयोग सुरू केला आहे. त्यांचा पहिला प्रयोग अतिपिछड्यांना न्याय देण्याचा होता. तो कमालीचा यशस्वी झाला. अतिपिछडे, अतिदलित आणि सर्वच समाजातील स्त्रिया यांना समान भागीदारी देण्याचा निर्णय नितीशकुमार यांनीच देशात सर्वप्रथम घेतला. त्यातून बिहारमध्ये मजबूत तटबंदी उभी राहिली. 'न्याय'विरोधकांना ही तटबंदी कधीच भेदता आलेली नाही. उच्च जातीयांना न दुखावता काम करण्याची नितीशकुमारांची पद्धत आहे.<br /><br />सीएए, एनआरसीचा प्रश्न असो की सामाजिक न्यायाचा. नितीशकुमार यांनी विरोधकांची बाजू नेहमीच पलटवली आहे. अन्य कोणत्याही राज्याला इतकी स्पष्ट सेक्युलर भूमिका घेताना सत्तेचा तोल सांभाळता आलेला नाही.<br /><br />धर्मद्वेषाची चूड लावत ही एकजूट तोडण्याचा हर प्रयास देशातील प्रस्थापित सत्ताधारी करत राहतील. पण सुप्रीम कोर्टाने त्यांची याचिका फेटाळून जात गणनेचा मार्ग मोकळा केला आहे. जातगणनेचा मुद्दा फक्त बिहार पुरता मर्यादित नाही. देशातील सर्वच राज्यांसाठी तो कळीचा मुद्दा आहे. राजकारणाचा नाही. सामाजिक न्यायाचा आहे. वंचित समूहांच्या सामाजिक, आर्थिक प्रश्नांची गाठ त्यातून सुटू शकेल.<br /><br />कर्पूरी शताब्दीला त्यांना अभिवादन करण्यासाठी यापेक्षा दुसरा मार्ग काय असू शकेल? नितीशकुमार आणि बिहार सरकारने स्वीकारलेल्या या मार्गाचा तर देशाला इंतजार आहे.<br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील</a><br />सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद तथा नेशनल जनरल सेक्रेटरी, जनता दल (यूनाइटेड)</span>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-7645416112393983932022-11-21T16:29:00.002+05:302022-11-21T16:30:43.452+05:30राजेंद्रबाबूंचं इमान...<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFyReZHNGs4L6SzwK5lvxm0ds6OojWyq1VTnKyNnv379shx-2bxpfepLje8tncjztxJvtCe86U2wJvPEFpG3ifvJVVVBFgk2zsMoDy8C_-kAXPrX9gjmUARSNtE2vTVQqUGqDO3JoVV9Miw5hLBBh-naCq-IsgL3C3nc1tH1jLo6JnDneOrqc-y3nf/s1080/FB_IMG_1669006995224.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="717" data-original-width="1080" height="424" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFyReZHNGs4L6SzwK5lvxm0ds6OojWyq1VTnKyNnv379shx-2bxpfepLje8tncjztxJvtCe86U2wJvPEFpG3ifvJVVVBFgk2zsMoDy8C_-kAXPrX9gjmUARSNtE2vTVQqUGqDO3JoVV9Miw5hLBBh-naCq-IsgL3C3nc1tH1jLo6JnDneOrqc-y3nf/w640-h424/FB_IMG_1669006995224.jpg" width="640" /></a></div><span style="font-size: large;"><br /><b> राजेंद्रबाबू दर्डा</b> आज 70 वर्षांचे झाले. विश्वास बसणार नाही इतकी ऊर्जा आणि चैतन्य त्यांच्यात रसरसून भरलेलं असतं. बाबूजी म्हणजे जवरहलाल दर्डा यांच्यानंतर त्यांचा वैचारिक, राजकीय आणि व्यावसायिक वारसा विजय दर्डा आणि राजेंद्र दर्डा या दोन्ही बंधूनी आजवर इमानाने सांभाळला आहे. आणि पुढची पिढीही तो सांभाळेल याचा विश्वास या दोन्ही बंधूंच्या मुलांनी आपल्या कर्तृत्वाने दिला आहे.<br /><br />जवाहरलाल दर्डा स्वातंत्र्यसेनानी. तुरुंगवास भोगलेले. स्वातंत्र्यानंतरच्या अनेक सरकारांमध्ये मंत्री राहिले. पण गांधी, नेहरूंच्या विचारांचा वारसा त्यांनी पुढच्या पिढीत रुजवला. 'लोकमत' हे दैनिक बाबूजींनी सुरु केलं. पण महाराष्ट्राच्या प्रत्येक खेड्यात आणि प्रत्येक शहरात मराठी वर्तनमानपत्रांमध्ये 'लोकमत' अव्वल आहे. याचं कारण विजय दर्डा आणि राजेंद्र दर्डा या बंधूंची ती कमाल आहे.<br /><br />या बंधूनी मला खूप प्रेमही दिलं. राजेंद्रबाबूंनी थोडं अधिकचं. 'लोकमत'मध्ये असताना मुंबईचा वार्ताहर म्हणून मी दोघांसोबतही काम केलं आहे. मग राजेंद्रबाबू मंत्री झाले, तेव्हापासून मीही आमदार आहे. शिक्षणमंत्री म्हणून त्यांनी जे महाराष्ट्राला दिलं त्याचा ऋणनिर्देश करणं आवश्यक आहे. मंत्री होताच त्यांनी सर्व शिक्षक आमदारांना चर्चेला बोलावलं होतं. नंतर सभागृहात शिक्षणाच्या प्रश्नांवर शिक्षक आमदार आक्रमक झाल्यानंतरही किंवा सरकारवर टीका करतानाही शिक्षणमंत्र्यांनी त्याचं कधी वाईट वाटून घेतलं नाही. उलट प्रत्येक टीकेला सकारात्मक प्रतिसाद दिला. मार्ग काढण्याचा प्रयत्न केला.</span><div><span style="font-size: large;"><br /></span><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhHZO8jS6nZK4Zj6Su6IaPzBK4A2NDyNJ8gm82uVsebOmI-XsTc33SCO1_-dE8DKZaDyuwBS6RTbyuhhwsGNgM-42sQ9jWNveU8bOvCRZQIAl1p24lj1g0okf6VfeYhvR5v8VVWteaLktKQ6J7k8lnQaLHQstx5JahPdePrmLVpqxPpQvNuXUS5xL6b/s5184/IMG_8513.JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="3456" data-original-width="5184" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhHZO8jS6nZK4Zj6Su6IaPzBK4A2NDyNJ8gm82uVsebOmI-XsTc33SCO1_-dE8DKZaDyuwBS6RTbyuhhwsGNgM-42sQ9jWNveU8bOvCRZQIAl1p24lj1g0okf6VfeYhvR5v8VVWteaLktKQ6J7k8lnQaLHQstx5JahPdePrmLVpqxPpQvNuXUS5xL6b/w640-h426/IMG_8513.JPG" width="640" /></a><span style="font-size: large;"><br />वस्तीशाळांच्या प्रश्नावर सरकारशी संघर्षाचा प्रसंग आला. मी परळच्या कामगार मैदानात उपोषणाला बसलो तर राजेंद्रबाबू दुसऱ्याच दिवशी धावत आले. मला म्हणाले, 'कपिल, तू उपास का करतो? मी प्रश्न सोडवतो.'<br /><br />त्यांनी फार दिवस घेतले नाहीत. अवघ्या तीन दिवसात प्रश्न मार्गी लावला. मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण होते. त्यांना राजेंद्रबाबूंनीच बाजू समजावून सांगितली. मुख्यमंत्री स्वतः माझ्याशी फोनवर बोलले. 'मंत्रिमंडळात नक्की निर्णय करतो. मागणी मान्य करतो.' असं सांगितलं.<br /><br />पुन्हा उपास सोडवायला राजेंद्रबाबू मैदानात रात्री हजर झाले. सर्वांना शब्द दिला. पुढे शब्द पाळलाही. साडे आठ हजार वस्तीशाळा शिक्षक कायम झाले. पूर्ण पगारावर आले. ते ऋण विसरता येणार नाहीत म्हणून नवनाथ गेंड यांच्या नेतृत्वाखाली वस्तीशाळा शिक्षक राजेंद्रबाबूंचा वाढदिवस आवर्जून साजरा करतात.<br /><br /></span><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQnnBapJGYwGfN9zAVF_iGDHQNU0Z7YCCg2FwVSrS6txor-z5KCCn8jxALI1lffHhfOIB0Mq7TL12Pk3HmuivAwpEZMs21YCyaaPw38SlBKSazQqxfLDeC4xKIYH4mv-UO9ZMF318hI1sE0-VT3WEBaFOfuGNHIbg-Fyh1SWvgIgvaI7DbjQix_vrP/s2896/DSC_8566.JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1944" data-original-width="2896" height="430" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQnnBapJGYwGfN9zAVF_iGDHQNU0Z7YCCg2FwVSrS6txor-z5KCCn8jxALI1lffHhfOIB0Mq7TL12Pk3HmuivAwpEZMs21YCyaaPw38SlBKSazQqxfLDeC4xKIYH4mv-UO9ZMF318hI1sE0-VT3WEBaFOfuGNHIbg-Fyh1SWvgIgvaI7DbjQix_vrP/w640-h430/DSC_8566.JPG" width="640" /></a><span style="font-size: large;"><br />आरटीईच्या एका तरतुदीचा गैरअर्थ काढत अधिकाऱ्यांनी शिक्षकांना आठ - आठ तासांची ड्युटी लावली होती. आणि आठ - आठ तास शाळा भरवण्याचं परिपत्रक काढलं होतं. राजेंद्रबाबूंना त्यातली त्रुटी लक्षात आणून देताच त्यांनी तात्काळ निर्णय घेतला आणि सभागृहात तशी घोषणाही केली. अध्यापनाचे तास पूर्ववत केले.<br /><br />राज्यातल्या शाळांसाठी कम्प्युटर प्रयोगशाळा सुरू करण्याची कल्पनाही त्यांचीच. त्यांच्याच कार्यकाळात 8 हजार शाळांना कम्प्युटर मिळाले. शिक्षण खात्यात ई लर्निंग आणलं. इंग्रजी सुधारायला लावलं. गणित आणि विज्ञानाचे अभ्यासक्रम सीबीएसईच्या अॅट पार राजेंद्रबाबूंनीच आणले. जमिनीवर बसणाऱ्या 24 लाख मुलांना पॉलिमर डेस्क बेंच दिले. शाळांना ग्रीन बोर्ड दिले. फी नियंत्रण कायदा आणला.<br /><br />नागपूरच्या हिवाळी अधिवेशनात शिक्षण सेवकांच्या मुद्द्यावर माझ्या खाजगी बिलाने सरकार अडचणीत आलं होतं. शिक्षणमंत्री असलेले राजेंद्र दर्डा त्यावेळेस विमानाने नागपूरहून निघत होते. पण त्यांना विधान परिषदेतील प्रसंग कळताच ते विमानातून उतरले. सभागृहात आले. घोषणा केली, मानधन वाढवण्याची आणि शिक्षण सेवक हे अवमानकारक नाव बदलण्याची. त्या सर्वांना आता परिविक्षाधीन सहाय्यक शिक्षक म्हटलं जातं.<br /><br />वेतनेतर अनुदान पुन्हा सुरू करण्याचा निर्णयही त्यांच्याच. उच्च व कनिष्ठ माध्यमिक विनाअनुदानित शाळांचा कायम शब्द वगळण्याचा निर्णयही त्यांचाच. मुंबईतल्या शिक्षकांना 1 तारखेला पगार मिळावा म्हणून कोअर बँकिंग सुविधा देणाऱ्या बँकांमार्फत ईसीएस पद्धतीने वेतन देण्याची मागणी शिक्षक भारतीने केली. ती ही राजेंद्रबाबूंनीच पूर्ण केली.<br /><br />राजेंद्रबाबू दर्डा यांनी शिक्षण मंत्री म्हणून केलेलं हे काम कधीही विसरता येणार नाही. ते उत्तम लेखक आहेत. पत्रकारही आहेत. आमदार, मंत्री झाल्यानंतरही त्यांच्यातली पत्रकारिता आणि लेखक त्यांनी विसरू दिलेला नाही. आजही ते लिखाण करतात. उत्तम लिहतात. राजेंद्रबाबू असोत किंवा विजयबाबू असोत यांनी बदलत्या राजकारणात एक पथ्य पाळलं आहे, सर्वांशी दोस्ती त्यांची असते. पण आपल्या मूळ विचारांशी ते प्रतारणा करत नाहीत. माणुसकीचा धर्म सोडत नाहीत. महावीरांच्या अहिंसा, अस्तेय आणि अपरिग्रहाचं व्रतही इमानाने पाळतात. अनेकांतवादाचा पुरस्कार करतात. भारताच्या विविधतेचं हे सूत्र महावीरांनीच तर सर्वप्रथम सांगितलं होतं. </span><span style="font-size: large;">महावीरांचा </span><span style="font-size: large;">तो धर्म विचार राजेंद्रबाबूंच्या पूर्ण जीवनात आढळतो. पुढची 30 वर्षही राजेंद्रबाबू असेच कार्यरत राहतील आणि 100 वा वाढदिवस करण्याची संधी देतील याची खात्री आणि याच शुभेच्छा!<br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">आमदार कपिल पाटील</a></span></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-20622879305857663262022-09-18T10:32:00.002+05:302022-09-18T10:51:15.024+05:30आपला तो 'भाऊ', 'बळी' कुणाचा?<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjdzmj_qToGkiL4fUT7sQz7mKZwQhXNFAobLpGqwEnf1-fUNT9mO-5S1TWqHbsCL7qeFr27p3fRJ88aghPIfrG8lGHmv_AuFSYM58KxB0jqODy2S-0EggcSZOj-6YSVcRI3wH0AsSa6hYCGPNAFa7RbAtDJxchpU3bAHzcj0PaZ5B7lj7GGXfRHzI41/s960/305996423_10221612948929359_3468560524012635604_n.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="768" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjdzmj_qToGkiL4fUT7sQz7mKZwQhXNFAobLpGqwEnf1-fUNT9mO-5S1TWqHbsCL7qeFr27p3fRJ88aghPIfrG8lGHmv_AuFSYM58KxB0jqODy2S-0EggcSZOj-6YSVcRI3wH0AsSa6hYCGPNAFa7RbAtDJxchpU3bAHzcj0PaZ5B7lj7GGXfRHzI41/w512-h640/305996423_10221612948929359_3468560524012635604_n.jpg" width="512" /></a></div><br /><span style="font-size: large;"><br /><b> ही</b> गोष्ट आहे, तुमच्याच सोसायटीची आणि तुम्हाला नको असतानाही तुमच्या समोर असलेल्या जिजामाता नगर झोपडपट्टीची. मध्यमवर्गीय माणसाला झोपडपट्टी घाण वाटते. विशेषतः उच्चभ्रू वर्गाला. पण त्याच वस्तीतली मोलकरणी बाई, दूधवाला, वॉचमन, पेपरवाला, गाडी धुणारा या सगळ्यांच्या सेवा त्याला हव्या असतात. त्यांना प्रतिष्ठा देणं बाजूला राहिलं पण त्यांना माणूस म्हणून वागवण्याची तयारी सुद्धा नसते. <br /><br />महानगरांच्या सोसायट्यांमध्ये आणि वस्त्यांमध्ये जात हरवते म्हणतात. पण ते तितकंसं खरं नसतं. पोटात वर्गभेद असतो आणि डोक्यात न जाणारी जात असते. त्यांच्या संघर्षाची गोष्ट आहे. 'भाऊबळी'. <br /><br />गोष्ट गंभीर आहे. पण सिनेमा धमाल आहे. सिनेमा पाहताना आपण पोटभरून हसतो. आणि सिनेमा संपताना डोळे झाक केलेली जखम मनात ठसठसत राहते. <br /><br />कथा, पटकथा अर्थात जयंत पवार यांची आहे. डायलॉगही त्यांचेच आहेत. 'सहाशे बहात्तर रुपयांचा सवाल' अर्थात युद्ध आमुचे सुरू या मूळ कथेवर बेतलेला हा सिनेमा. जयंत ताकदीचा नाटककार, सिनेमा लेखक, कथाकार. आता आपल्यात नाही. कोविडच्या काळातच जयंत पवारचा कॅन्सरने घास घेतला. त्याचे दोन सिनेमे आधी येऊन गेले आहेत. त्यातला एक 'लालबाग परळ' महेश मांजरेकरने दिग्दर्शित केलेला. आधीच्या दोन चित्रपटांनी जयंत पवारला जो न्याय दिला नाही, तो 'भाऊबळी' ने दिला आहे. म्हणजे त्यांच्या कथांचा जो उद्देश असतो तो कथापटात आणि चित्रपटात साकारला जातोच असं नाही. नितीन वैद्य यांनी मात्र जयंत पवार यांना पुरेपुर न्याय दिला आहे. नितीन वैद्य यांची दृष्टी आणि समीर पाटील यांचं दिग्दर्शन, यामुळे सिनेमा थेट वर्तमानाला भिडतो. वर्तमानातल्या राजकीय आणि सामाजिक परिस्थितीवर कडक भाष्य करतो. एक काळ होता मध्यमवर्गाला गरीबाबद्दल करुणा होती, आता त्याची जागा क्रौर्याने घेतली आहे. एक काळ त्याला समाजवादाचं स्वप्न पडत होतं आता फॅसिस्ट कवायतखोरांचं त्याला आकर्षण आहे. <br /><br />नितीन वैद्य हे स्वतः एक प्रतिभावान पण तितकेच संवेदनशील त्याहूनही सामाजिक बांधिलकी जपणारे सिने निर्माते आहेत. पण तरीही आपली कोणतीही कलाकृती प्रचारकी होणार नाही याचं भान ते राखतात. प्रचारकी थाट हा कोणत्याही कलाकृतीला मारतो. <br /><br />निनाद वैद्य आणि अपर्णा पाडगावकर यांच्यासह नितीन वैद्य यांनी जी भट्टी जमवली आहे, त्यातून तयार झालेला 'भाऊबळी' हा थेट सिनेमागृहात जाऊन पहायला हवा. १६ सप्टेंबर पासून तो सिनेमागृहात लागला आहे. परवा काही मित्रांना, सहहृदांना नितीन वैद्य यांनी सिनेमा पाहायला बोलावलं होतं. आम्ही सहकुटुंब गेलो होतो. तुम्हीही सहकुटुंब जायला हवं. तरच सिनेमाचा आनंद घेता येईल. <br /><br />या सिनेमावर बऱ्याच जणांनी भरभरून लिहलं आहे. त्यातल्या दोन प्रतिक्रिया द्यायला हव्यात. मंदार भारदेची पोस्ट सिनेमावर आणि वर्तमानावर भाष्य करणारी आहे. म्हणून इथे जशीच्या तशी देतो -</span><div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPxvGWOs_4iFUqeNr7G2yLE5CpQ_VB7sc1YT6XAxwKrT7fbTaOn3KmxuWZLkqUglJkXUO_59Z7Qbf4e-zCTfgCYPF28pcEjOgdadrE0A9CFwAyYynfWG-MyNhgU05P_ojbHQdfV325fiur1rmJKZAqWDcYHenhASqVblRlIdYyWXzmt8V4cHJCGD8g/s2974/Bharade%201.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="2066" data-original-width="2974" height="444" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPxvGWOs_4iFUqeNr7G2yLE5CpQ_VB7sc1YT6XAxwKrT7fbTaOn3KmxuWZLkqUglJkXUO_59Z7Qbf4e-zCTfgCYPF28pcEjOgdadrE0A9CFwAyYynfWG-MyNhgU05P_ojbHQdfV325fiur1rmJKZAqWDcYHenhASqVblRlIdYyWXzmt8V4cHJCGD8g/w640-h444/Bharade%201.jpg" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: center;"><span style="font-size: large;">(सविस्तर वाचण्यासाठी फोटोवर क्लिक करा)</span></div><div><span style="font-size: medium;"><br /></span></div></td></tr></tbody></table><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">नितीन वैद्य यांनी भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होळकर यांच्यावरील टीव्ही मालिका गाजवल्या आहेत. पण त्यांची बांधिलकी कथावस्तू निवडण्यापुरती नाही. राष्ट्र सेवा दलाचे राष्ट्रीय अध्यक्ष आहेत नितीन वैद्य. त्यांच्यातल्या माणूसपणाबद्दल संध्या नरे पवार काय म्हणतात तेही वाचायला हवं. संध्या नरे म्हणजे जयंत पवारांच्या सहचारिणी. सावंतवाडी येथे पार पडलेल्या जनवादी साहित्य संस्कृती संमेलनाच्या अध्यक्षा. त्यांची पोस्ट अनकट पुढे वाचा -</span></div><div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXWcyWM2EFohOmZe4fekiHJPMJAFJycdw6K5Uo9QUcnWv93gOWIuw4u_z5qdP26Q3IQ_fkRQSX8ytP5ZrwHsagruPJHIrcpufAwatWpqkDpWEjk_PxLJ1_sfXK6VUpw_AuoXdc4s7akgSyGFIuhHZavsfgGTo5fu-MFMWWbXw5h5Xy62pFFtc8cX5f/s3404/Nare%201.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="2968" data-original-width="3404" height="558" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXWcyWM2EFohOmZe4fekiHJPMJAFJycdw6K5Uo9QUcnWv93gOWIuw4u_z5qdP26Q3IQ_fkRQSX8ytP5ZrwHsagruPJHIrcpufAwatWpqkDpWEjk_PxLJ1_sfXK6VUpw_AuoXdc4s7akgSyGFIuhHZavsfgGTo5fu-MFMWWbXw5h5Xy62pFFtc8cX5f/w640-h558/Nare%201.jpg" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: center;"><span style="font-size: large;">(सविस्तर वाचण्यासाठी फोटोवर क्लिक करा)</span></div><div><span style="font-size: medium;"><br /></span></div></td></tr></tbody></table><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">आणखी एका कारणासाठी हा सिनेमा पाहायला हवा. नव्या पिढीने डॉ. श्रीराम लागू आणि निळू फुले यांचा 'सामना' पाहिला नसेल. सामनातला अभिनयाचा सामना. 'भाऊबळी' पाहताना उच्चभ्रू सोसायटीतल्या भाऊसाहेबाची भूमिका वठवणाऱ्या चाणक्य फेम मनोज जोशींनी डॉ. लागूंची आठवण करून दिली. आणि जिजाबाई नगर झोपडपट्टीतला दूधवाला बळी साकारला आहे किशोर कदम अर्थात कवी सौमित्र यांनी निळू फुलेंची. काय कमाल अभिनय आहे. तितकाच संयत आणि मनाचा ठाव घेणारा अभिनय किशोर कदमच करू जाणे. मनोज जोशी आणि किशोर कदम यांची जुगलबंदी सिनेमाघरात प्रत्यक्ष जाऊन पाहायला हवी. रसिका आगाशे, संतोष पवार, मेधा मांजरेकर, ऋषिकेश जोशी यांच्या धमाल भूमिकांचं कौतुक केलं नाही तर कृतघ्नपणा ठरेल. आपल्या भूमिकांमध्ये त्या सगळ्यांनी जीव ओतला आहे. <br /><br />नुकताच हिंदी दिवस साजरा झाला. त्यानिमित्ताने नसरुद्दीन शहा यांनी मंगलेश डबराल यांची कविता BBC हिंदी साठी सादर केली. 'भाऊबळी' बद्दल वाचताना ती कविता जरूर ऐका. भाऊबळी आणि ती कविता वर्तमानावर सारखंच भाष्य करतात. एक जळजळीत कवितेसारखा सिनेमा. दुसरी भवतालच्या वर्तमानाची सिनेमासारखी कविता.</span></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen='allowfullscreen' webkitallowfullscreen='webkitallowfullscreen' mozallowfullscreen='mozallowfullscreen' width='378' height='314' src='https://www.blogger.com/video.g?token=AD6v5dzNcfhAf7MyMCUeFd-XmOrfk4v7K2iHV-16aQNtNhQtgDfSLwM3TmgKA3WzUPz0tv52zMGsEbkC2IBTR2HIcw' class='b-hbp-video b-uploaded' frameborder='0'></iframe></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: center;"><span face="Arial, Helvetica, sans-serif" style="background-color: white; color: #222222;">(व्हिडीओ बघण्यासाठी क्लिक करा)</span></div><div style="text-align: center;"><br /></div></span></div><div><span style="font-size: large;"><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील</a><br />(सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद)</span></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-18517072651024481822022-08-29T17:59:00.002+05:302022-08-29T17:59:57.583+05:30बिल्किस बानोवरचे अत्याचार भक्तांना मान्य आहेत का?<div><span style="font-size: large;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibyBEEo1aK69_UbYr8o9RwmoI9r_1n29qv8yBf-7s6KIECJQyvo1GwShHmKJcEsIr_uD2itk84Yna0PvzbG3aCnel1-dISDiJz1OQkF6x30A8r6iPPtj3N4UgiF_UmlscyxxlExgI-nOXd-5U5sbhdFwq-8lHnzjxnntAtAXcETPgzFeX3-MoH5bPo/s1600/bilkis-monday-adressing-photograph-sanjeev-conference-delhi_7d09af1e-3092-11e7-9a1e-ae80039293d8_1661614736018_1661614736018.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="1600" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibyBEEo1aK69_UbYr8o9RwmoI9r_1n29qv8yBf-7s6KIECJQyvo1GwShHmKJcEsIr_uD2itk84Yna0PvzbG3aCnel1-dISDiJz1OQkF6x30A8r6iPPtj3N4UgiF_UmlscyxxlExgI-nOXd-5U5sbhdFwq-8lHnzjxnntAtAXcETPgzFeX3-MoH5bPo/w400-h225/bilkis-monday-adressing-photograph-sanjeev-conference-delhi_7d09af1e-3092-11e7-9a1e-ae80039293d8_1661614736018_1661614736018.jpg" width="400" /></a></div><b><br /></b></span></div><span style="font-size: large;"><b>बिल्किस </b>बानोवर बलात्कार करणाऱ्या त्या ११ जणांची गुजरात सरकारने सुटका केली आहे. गोध्रा कांडानंतर गुजरातमध्ये उसळलेल्या दंगलीत दाहोद जिल्ह्यातील रणधीकपूर गावात बिल्किस बानोवर सामूहिक बलात्कार झाला होता. त्यावेळेला ती पाच महिन्यांची गर्भवती होती. तिच्या तीन वर्षांच्या मुलीला मारण्यात आलं. त्या लहानगीसह घरातील सातही जणांची हत्या करण्यात आली. बिल्किस बानोवर अकरा जणांनी बलात्कार केला. २१ जानेवारी २००८ ला मुंबई उच्च न्यायालयाने त्यांना दोषी ठरवत गजाआड केलं होतं. जन्मठेप दिली. १५ वर्षानंतर जास्त काळ कैदेत व्यतित केल्यानंतर सुटका व्हावी म्हणून त्यांनी अर्ज केला. निर्णय गुजरात सरकारने घ्यायचा होता. सरकारने त्यांच्या सुटकेचा निर्णय घेतला तो १५ ऑगस्ट रोजी. भारतीय स्वातंत्र्याच्या अमृत महोत्सवी सोहळ्याच्या दिवशी. तुरुंगाच्या बाहेर येताच त्या अकरा जणांचं हार घालून स्वागत करण्यात आलं. गुजरातमधल्या सत्ताधारी पक्षाचे एक आमदार म्हणाले, 'ते दोषी असले तरी ब्राह्मण आहेत. त्यांच्यावर चांगले संस्कार झालेले आहेत.'<br /><br /><br /></span><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFffa1C9-TyDHsEcQPyMPaAl_XIr_mMd-T9ZNmoyv9WUKVnGRCf2HbDLyCPeetjcOuXKiqW-s7TGSVGDheivE4-sy5vXlSRVSUUAzVgFGo37RISAtOSRWlwaWWxfQD473UGBLT_8XFjX741E9RBmBcX5io5B2jYEZx3dds36Yty2EKVmMLXCO8ojSN/s670/18bilkis1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="417" data-original-width="670" height="249" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFffa1C9-TyDHsEcQPyMPaAl_XIr_mMd-T9ZNmoyv9WUKVnGRCf2HbDLyCPeetjcOuXKiqW-s7TGSVGDheivE4-sy5vXlSRVSUUAzVgFGo37RISAtOSRWlwaWWxfQD473UGBLT_8XFjX741E9RBmBcX5io5B2jYEZx3dds36Yty2EKVmMLXCO8ojSN/w400-h249/18bilkis1.jpg" width="400" /></a></div><br /><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">देश थंड आहे? <br />बिल्किस बानो मुसलमान आहे, म्हणून तिच्यावरचा बलात्कार क्षम्य आहे? की बलात्कार करणारे काही ब्राह्मण होते म्हणून बलात्काराचा गुन्हाही क्षम्य आहे?<br /><br />तर शिवसेनेच्या सामनाने विचारलं, हे कसलं हिंदुत्व?<br /><br />साध्या भाबड्या हिंदू माणसालाही हा प्रश्न पडला असेल. बलात्कार करणे हिंदुत्वाला मान्य आहे का? <br /><br />सरळमार्गी ब्राह्मणांनाही कदाचित प्रश्न पडला असेल, ब्राह्मण असल्याने हत्या आणि बलात्काराचा गुन्हाही क्षम्य कसा असू शकतो? <br /><br />मनुस्मृती या धर्मशास्त्रात ब्राह्मण असल्यास हे दोन्ही गुन्हे क्षम्य केले आहेत. पण ब्राह्मणेतरांनी किंवा शुद्रांनी असे गुन्हे केल्यास त्यास कठोर शिक्षा आहे. वेद मंत्र उच्चारल्यास जीभ छाटावी आणि ऐकल्यास कानात शिसं ओतावं, हा मनुस्मृतीचा दंड आहे.<br /><br />डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांनी मनुस्मृतीचं दहन केलं ते बापूसाहेब सहस्त्रबुद्धे या पुरोगामी विद्वान ब्राह्मणाच्या हातून. मनुस्मृतीतली एक एक ऋचा बापूसाहेब सहस्त्रबुद्धे वाचून दाखवत होते. त्याचा अर्थ सांगत होते. साध्या माणुसकीला मान्य नसणारा तो मजकूर ते अग्नीच्या स्वाधीन करत होते.<br /><br />बिल्किस बानो ही मुसलमान असल्याने ती अत्याचाराला पात्र आहे, हे सावरकरी हिंदुत्ववादाचे सार आहे. या वाक्यावर ज्यांना राग येईल त्यांनी विनायक दामोदर सावरकर यांचं 'सहा सोनेरी पानं' हे पुस्तक वाचावं. कल्याणच्या सुभेदाराच्या सुनेला 'पर स्त्री माते समान' असा मान देत छत्रपती शिवरायांनी सन्मानाने परत पाठवलं. अफजल खानाच्या वधानंतर त्याच्या कुटुंबाला अभय दिलं. त्याच्या बायकोला आणि मुलांना सुरक्षित आणि सन्मानाने परत पाठवलं. एका गरीब स्त्रीवर अत्याचार करणाऱ्या रांझेच्या पाटलाचे हात पाय तोडण्याची शिक्षा छत्रपती शिवरायांनी दिली होती. हिंदुत्वाचे जनक असलेल्या सावरकरांना हिंदवी स्वराज्याच्या संस्थापकांचं हे औदार्य मान्य नाही. छत्रपती शिवरायांना सावरकर दोष देतात. अत्याचाराची परतफेड केली नाही म्हणून बुळगा ठरवतात. परस्रीयांचा सन्मान केला म्हणून शिवरायांचा घोर अवमान करतात. छत्रपतींची ती सदगुण विकृती मानतात. <br /><br />छत्रपतींच्या हिंदवी स्वराज्यात परस्त्रीलाही अभय होतं. <br /><br />छत्रपती शिवरायांना सहा सोनेरी पानांमध्ये सावरकर स्थान देत नाहीत. <br /><br />फक्त शिवरायांनाच नाही पोर्तुगीजांवर विजय संपादन करणाऱ्या पराक्रमी चिमाजी अप्पांनी एका सुंदर पोर्तुगीज स्त्रीची अशीच परत पाठवणी केली. चिमाजी अप्पा जन्माने ब्राह्मण, तरीही सावरकर त्यांना दोष देतात. मस्तानीशी लग्न करणारा बाजीराव पेशवाही हिंदुत्वाला म्हणूनच मान्य नाही. <br /><br />गुजरात सरकारच्या ज्या समितीने त्या अकरा जणांच्या सुटकेचा निर्णय घेतला त्यात सी. के. राऊळ होते. ते म्हणाले, 'दोषी ब्राह्मण आहेत. ब्राह्मणांवर चांगले संस्कार असतात. त्यांना अडकवलं असणार.'<br /><br />ते सारे अकरा ब्राह्मण होते का? खचितच नाही. फक्त तीन ब्राह्मण होते. पाच ओबीसी, दोन एससी, एक बनिया. अत्याचारी कोणत्या जातीचा आहे म्हणून अत्याचार माफ होऊ शकत नाही. <br /><br />दिल्लीतल्या निर्भयाची आई आशा देवी संतापून म्हणाल्या, 'त्यांना तर फाशीच व्हायला हवी होती.' <br /><br />पीडिता बिल्किस बानो म्हणाल्या, 'मी सुन्न आहे.'<br /><br />- कपिल पाटील <br />(सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद)<br /><br />-------------------<br /><br />महिलांचा आदर करणारे शिवराय - श्रीमंत कोकाटे <br /><a href="https://www.esakal.com/saptarang/shrimant-kokate-write-chhatrapati-shivaji-maharaj-article-editorial-172022">https://www.esakal.com/saptarang/shrimant-kokate-write-chhatrapati-shivaji-maharaj-article-editorial-172022</a></span></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-64866231771136897512022-08-07T21:15:00.003+05:302022-08-07T21:35:14.026+05:30कमंडलच्या ऐरणीवर मंडल<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5WGc_YU8xDEAJ7rHgv7Kj6p8GnthZ8xeKRzZBGI2EijBp52lz8nqMsa8xjOBS8mwkyRYHUcAo0QgGZAoqVRL4urhLbZyYhA8kgoubMIpxMJOyrctmzipKU6Zi1rAyNxhpoROTdCdM_vXz8EREvWB5LHqEUh8dOKTNzTJIliM6tchdwGFjEXt1zZN7/s5000/Lohiya%20Lalu%20Nitish%20Bhujbal%20Fadanvis.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2731" data-original-width="5000" height="350" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5WGc_YU8xDEAJ7rHgv7Kj6p8GnthZ8xeKRzZBGI2EijBp52lz8nqMsa8xjOBS8mwkyRYHUcAo0QgGZAoqVRL4urhLbZyYhA8kgoubMIpxMJOyrctmzipKU6Zi1rAyNxhpoROTdCdM_vXz8EREvWB5LHqEUh8dOKTNzTJIliM6tchdwGFjEXt1zZN7/w640-h350/Lohiya%20Lalu%20Nitish%20Bhujbal%20Fadanvis.jpg" width="640" /></a></div><br /><span style="font-size: large;"><i>ज्ञान, कौशल्य आणि सर्जनशीलतेचा मिलाप होतो, तेथेच नवनिर्मिती घडते. शोधांचं अवकाश निर्माण होतं. या मिलापाची आणि अवकाशाच्या निर्मितीची सुरूवात आता कुठेशी होते आहे. मंडल आयोगाच्या शिफारशींमध्येच या अवकाशाची शक्यता दडलेली आहे. 32 वर्षे झाली. मंडल अजून पुरता अमलात आलाय कुठे?</i><br /><br /><b>पिछडा पाँवे सौ में साठ!</b><br />डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या या जादूई घोषणेने उत्तरेच्या राजकारणात मोठी उलथापालथ घडवून आणली. तोवर विंध्या पलिकडचं राजकारणही उच्चवर्णीयांची मक्तेदारी होती. लोहियांनी दलित, ओबीसी नेतृत्वात प्राण फुंकले. पारंपरिक सत्तेच्या परिघात कधीही नसलेल्या समाज समूहातून नवं नेतृत्व उभं राहिलं. ब्राह्मण, रजपूत, ठाकूर यांच्या पलीकडे असलेल्या उपेक्षित जनजातींना सत्तेची कवाडं खुली झाली.<br /><br />कर्पूरी ठाकूर, बी. पी. मंडल यांच्यापासून ते मुलायमसिंग यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, नितीश कुमार, लालूप्रसाद यादव, उपेंद्रसिंग कुशवाह यांच्यापर्यंत. खूप मोठी रांग आहे ही. मंडलोत्तर राजकारणात या नावांबद्दल बोटं मोडली जातात. पण जयप्रकाशजींच्या आंदोलनात तुरंगात गेलेल्या या त्या वेळच्या तरुण नेत्यांनी काँग्रेसचा पायाच डळमळीत केला होता. लालूप्रसादांचा कथित चारा घोटाळा आणि मुलायमसिंग यादव यांची अलिकडची असंबद्ध वक्तव्ये सोडली तर लोहियांच्या या चेल्यांकडे बोट दाखवता येईल असं एकही वाईट उदाहरण नाही. उलट ज्या ग्रामीण दारिद्र्याच्या आणि सामाजिक विषमतेच्या पार्श्वभूमीतून हे नेतृत्व उभं राहिलं त्याचं कौतुक दोन दशकं होत होतं. 7 ऑगस्ट 1990 या तारखेनंतर चित्र पालटलं.<br /><br />कर्पूरी ठाकूर मुख्यमंत्री असताना त्यांच्या कुटुंबाचा उदरनिर्वाह केसकर्तनातून होत होता. लालूप्रसाद यादव यांच्या पत्नी चुलीवरती स्वयंपाक करत होत्या. मुलायमसिंग शाळेत शिक्षक होते. गांधींचा मार्ग आणि आंबेडकरांचा विचार ज्यांच्या समाजवादातून अविष्कृत झाला होता तो लोहियावादाचा झेंडा या मंडळींच्या खांद्यावर होता. राजकारणातील सत्ताधारी वर्गाशी त्यांचा संघर्ष होता. पण या झेंड्यामुळे भारतीय राजकारणात त्यांची विश्वासार्हता तितकीच मोठी होती. त्यांच्या बदनामीला सुरूवात झाली ऑगस्ट 1990 नंतर. मंडल आयोगाच्या शिफारशींची अंमलबजावणी करण्याची घोषणा पंतप्रधान व्ही. पी. सिंग यांनी केल्यानंतर.<br /><br />व्ही. पी. सिंग यांनी 7 ऑगस्ट 1990 रोजी घोषणा केली. 13 ऑगस्टला नोटिफिकेशन जारी झालं आणि देशात आग लागली. निर्णय एकट्या व्ही. पी. सिंगांचा नव्हता. शरद यादव, रामविलास पासवान, मुलायमसिंग यादव, लालूप्रसाद यादव आणि नितीशकुमार या साऱ्यांचा त्यामागे रेटा होता. व्ही. पी. सिंगांचे पुतळे जाळले जाऊ लागले. देशातला तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग आणि वर्तमानपत्रेही मंडल विरोधात आग ओकत होती. 'बंद बाटलीतलं भूत व्ही. पी. सिंगांनी बाहेर काढलं' अशी टीका आजही होते. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनाचं नेतृत्व करत दिल्लीचे मुख्यमंत्री झालेले अरविंद केजरीवाल यांच्यासारखी आयआयटीतली मंडळी तेव्हा मंडलच्या विरोधात रस्त्यावर होती. मंडलच्या विरोधात उघड भूमिका न घेणारे, सामाजिक न्यायाचे पुरस्कर्ते म्हणवणारे योगेंद्र यादव यांच्यासारखे बुद्धिवंत 'बंद बाटलीतलं मंडलचं भूत' असंच म्हणतात.</span><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNAsagKx9xnED0QE_101fVHOeNC3hHuB7lcKuy4P8iIlXvUu5F58Vh-doEZ0FXxVxjOhvL3ZRPbVbH8T7b69_nltwISpWESggtWdF0_ESOsASf999f2XRkgajNnRWE3Se4uL_CYfRfW6Jd-TAyxjBhRA9zMa3tflG6imgiSOIckUbZ16Njb7q1tr8Y/s1600/Mandal%20Aayog_VP%20Sing.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="924" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNAsagKx9xnED0QE_101fVHOeNC3hHuB7lcKuy4P8iIlXvUu5F58Vh-doEZ0FXxVxjOhvL3ZRPbVbH8T7b69_nltwISpWESggtWdF0_ESOsASf999f2XRkgajNnRWE3Se4uL_CYfRfW6Jd-TAyxjBhRA9zMa3tflG6imgiSOIckUbZ16Njb7q1tr8Y/w370-h640/Mandal%20Aayog_VP%20Sing.jpg" width="370" /></a></div><span style="font-size: large;"><br />मंडल आयोगाच्या फक्त दोन शिफारशी आजपर्यंत अमलात आणल्या आहेत. नोकरी आणि शिक्षणातल्या आरक्षणाच्या. या वर्गाच्या मुक्तीचा जो व्यापक जाहीरनामा मंडल आयोगाने मांडला आहे, त्याला अजून स्पर्श झालेला नाही. तो न होताही उलथापालथ किती घडली. जाती व्यवस्थेने आणि वर्णाश्रमाने ज्ञान आणि कौशल्य यांची फारकत केली. श्रमाचं नाही श्रमिकांचं विभाजन केलं. प्रतिष्ठेची उतरंड तयार केली. पारंपरिक कौशल्य, कारागिरी, कला, सर्जनशीलता आणि अपार कष्टाची तयारी असलेल्या वर्गाला ज्ञानापासून तोडून टाकलं.<br /><br />स्वातंत्र्यानंतरच्या 75 वर्षांत दोन-चार अपवाद सोडले तर देशात संशोधक निपजले नाहीत. जगातल्या पहिल्या पाचशे विद्यापीठात एकही भारतीय विद्यापीठ नाही. ज्ञान, कौशल्य आणि सर्जनशीलतेचा मिलाप होतो, तेथेच नवनिर्मिती घडते. शोधांचं अवकाश निर्माण होतं. या मिलापाची आणि अवकाशाच्या निर्मितीची सुरूवात आता कुठेशी होते आहे. डॉ. आंबेडकरांच्या संविधानातील तरतुदी आणि मंडल आयोगाच्या शिफारशींमध्येच या अवकाशाची शक्यता दडलेली आहे. संविधानातल्या तरतुदी कायद्यात आणि प्रत्यक्षात उतरत नाहीत, मंडल आयोगाच्या सर्व शिफारशी प्रत्यक्षात अमलात येत नाहीत तोवर या शक्यतांना धुमारे फुटणार नाहीत.<br /><br />मंडलचा हा परिणाम कुणालाच पुसता आलेला नाही. त्यांच्यासाठी भूत असलेला मंडल कमंडलात बंद करण्याचा किती प्रयत्न झाला. देशाला कमंडलच्या त्या राजकारणात मोठी किंमत चुकवावी लागली. लालकृष्ण अडवाणींनी रथ यात्रा काढली. मंडल रोखण्यासाठी धर्मद्वेषाची आग देशभर पेटवण्यात आली. बाबरी मशीद शहीद करण्यात आली. पुढे भाजपला सत्ता मिळाली. पण मंडलचं भूत त्यांच्या मानगुटीवर बसलं. मंडलच्या भुतांना भगवी वस्त्र चढवण्यात त्यांना यश जरूर आलं. पण मंडलला गाडण्यात नाही.<br /><br />कमंडलचं राजकारण फक्त एकटा भाजपच खेळला काय? काँग्रेसही तोच खेळ खेळत होती. राममंदिराचं टाळं त्यांनीच उघडलं. मंडल हे त्यांच्यासाठी बाटलीत बंद करण्यासाठी भूतच होतं. 12 डिसेंबर 1980 रोजी बी. पी. मंडल यांनी आपला अहवाल आणि शिफारशी पंतप्रधान इंदिरा गांधांच्या हाती सोपवल्या. पुढे दहा वर्षे तो अहवाल बाटलीत बंद करून ठेवण्यात काँग्रेसने धन्यता मानली. काँग्रेस नेतृत्वाची पारंपरिक सत्ता अबाधित ठेवण्यासाठी त्यांनी हे करणं त्यांच्या धोरणाला साजेसं होतं. मंडल विरोधात देशात आग लावण्यात भाजप, विद्यार्थी परिषद आणि त्यांच्या अन्य संघटना पुढे होत्या. तर त्या आगीत तेल टाकण्याचं काम देशभर काँग्रेसवालेच करत होते.<br /><br />मंडल आयोगाने नवीन काय केलं? ती तर घटनात्मक तरतूद होती. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ज्या संविधानिक तरतुदीसाठी आग्रही होते, त्यात ओबीसींच्या सवलतींचा मुद्दा प्रमुख होता. घटनेतलं कलम 340 ही डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांची मोठी देणगी आहे. हे कलम म्हणतं, ‘सामाजिक आणि शैक्षणिक दृष्ट्या मागासलेल्या वर्गांच्या स्थितीचे आणि त्यांना ज्या अडचणी सोसाव्या लागतात त्याचे अन्वेषण करणे आणि अशा अडचणी दूर करण्यासाठी व त्यांची स्थिती सुधारण्यासाठी संघराज्याने किंवा कोणत्याही राज्याने कोणत्या उपाययोजना कराव्यात त्या संबंधी शिफारशी करण्यासाठी आयोग नियुक्त करता येईल.’<br /><br />घटनेतील याच कलमाचा आधार घेत 1977 मध्ये सत्तेवर आलेल्या मोरारजी देसाई यांच्या नेतृत्वाखालील जनता सरकारने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल यांच्या अध्यक्षतेखाली आयोग नेमला. अर्थात त्यामागे समाजवादी ओबीसी नेतृत्वाचा आणि मधू लिमयेंचा मोठा दबाव होता. त्याआधी 1953 मध्ये काका कालेलकर आयोग नेमला गेला होता. 1955 मध्ये त्यांचा अहवालही आला. परंतु अंतर्विरोधांनी भरलेल्या त्या अहवालात स्वतःलाच गुंडाळण्याची शिफारस होती. मंडल आयोग येण्यासाठी नंतर 25 वर्षे लागली. शैक्षणिक आणि सामाजिकदृष्ट्या मागासलेल्या वर्गांना 25 वर्षे न्याय नाकारला गेला. मंडल आयोगाच्या शिफारशी स्वीकारल्यानंतर 25 वर्षांनंतर या वर्गांची काय स्थिती आहे? मंडल आयोगाने 52 टक्के लोकसंख्या असलेल्या ओबीसींना 27 टक्के आरक्षण सुचवलं. देशाच्या केंद्रीय विद्यापीठांमध्ये आजच्या घडीलाही ओबीसींचे फक्त 2 टक्के प्रोफेसर आहेत. देशाचं सरकार, विविध मंत्रालयं आणि सार्वजनिक उपक्रम यात ओबीसी नोकरदारांचा टक्का आहे फक्त 4.69 टक्के. दुसऱ्या वर्गात हे प्रमाण 10.63 टक्के आहे. तृतीय वर्ग कर्मचाऱ्यांमध्ये 18.98 टक्के आहे. तर चतृर्थ श्रेणीमध्ये 12.55 टक्के आहे. ओबीसी म्हणजे महाराष्ट्राच्या भाषेत भटक्या विमुक्तांसह इतर सर्व मागासवर्गीय. ओबीसी म्हणजे तथाकथित चातुर्वर्णात शूद्र या श्रेणीत येणारे सर्व.<br /><br />आरक्षणाच्या विरोधात दिल्ली पाठोपाठ सर्वात मोठं आंदोलन झालं ते गुजरातमध्येच. संघ प्रणित विद्यार्थी परिषदांसारख्या संघटना त्यात पुढे होत्या. त्याच भाजपला आज देशाच्या पंतप्रधानपदी ओबीसी असलेल्या नरेंद्र मोदींना स्वीकारावं लागलं. आरक्षण विरोधात चूड लावत सवर्ण मतांची बेगमी एका बाजूला भाजपने केली. तर दुसऱ्या बाजूला पक्षाचं मंडलीकरण करत ओबीसी नेत्यांच्या खांद्यावरून अनेक राज्यांमध्ये सत्ता खेचून आणली. पक्षाच्या राष्ट्रीय धोरणाच्या विपरीत महाराष्ट्रात मात्र भाजप नेतृत्वाने मंडलच्या समर्थनाची भूमिका अगदी सुरुवातीपासून घेतली. भाजपच्या या मंडलीकरणाचं श्रेय प्रमोद महाजनांना जातं. खरं तर त्यांचे गुरू वसंतराव भागवत यांनी त्याचा पहिला प्रयोग केला. गोपीनाथ मुंडेंचं नेतृत्व पुढे आणण्यात आलं. हा भागवत प्रयोग पुढे अन्य राज्यांतही भाजपला सत्ता देता झाला. प्रमोद महाजन, गोपीनाथ मुंडे मंडल समर्थनाच्या परिषदांमध्ये पुढे होते. तर दुसऱ्या बाजूला मंडलला उघड विरोध पण ओबीसींना सत्ता असा प्रयोग शिवसेनेत बाळासाहेब ठाकरेंनी केला.<br /><br />मंडलच्या परिणामांची दखल भाजपने ज्या पद्धतीने घेतली. तशी दखल कम्युनिस्टांसह देशातल्या अन्य पुरोगामी पक्षांना घेता आली नाही. मंडल आयोगापुढे साक्ष देताना कम्युनिस्ट पश्चिम बंगालने तर विरोधात भूमिका घेतली होती. काँग्रेस देशभर कोसळायला सुरवात झाली ती त्या पक्षाच्या मंडल विरोधी भूमिकेमुळेच. उत्तर भारतात लोहियावादी असलेले जनता दल व समाजवादी गट आजही आपले अस्तित्व टिकवून आहे, ते मंडलचा झेंडा खांद्यावर असल्यामुळेच. त्याच जनता दलाच्या महाराष्ट्रातील त्यावेळच्या नेतृत्वाने मंडल समूहांना सामावून घेतलं नाही. त्यामुळे तो पक्ष महाराष्ट्रातून बाद झाला. दिल्लीत एकदा मधू लिमये हयात असताना मी त्यांना याबाबत प्रश्न केला होता, तेव्हा त्यांनी तेच विश्लेषण केलं होतं. 'एस. एम. जोशी यांचा तेवढा अपवाद बाकी महाराष्ट्रातील तत्कालीन समाजवादी नेतृत्व ब्राह्मणी राहिलं आणि त्यांनी ओबीसी नेतृत्वाला स्पेस कधी उपलब्ध करून दिली नाही. म्हणूनच मी (मधू लिमये) स्वतः महाराष्ट्रात न थांबता बिहार आणि उत्तरप्रदेशात लक्ष घालण्याचं ठरवलं.' हे मधू लिमयेचं उत्तर होतं. अशीच काहीशी स्थिती छगन भुजबळांची राहिली. काँग्रेस किंवा नंतर राष्ट्रवादीने छगन भुजबळांना अशी स्पेस दिली नाही. <br /><br />दक्षिणेत तमिळनाडूत सत्ताधारी आणि विरोधी पक्ष दोघंही मंडलवादी आहेत. म्हणून टिकून आहेत. शरद पवारांनाही छगन भुजबळ, सुनिल तटकरे आणि जितेंद्र आव्हाड म्हणून हवे असतात. तर देवेंद्र फडणवीस ओबीसींचा कैवार घेत राष्ट्रवादी आणि काँग्रेसच्या राजकारणावर सहज मात करू शकतात.<br /><br />मंडल वजा करून देशाच्या कोणत्याच भागात राजकारण होऊ शकत नाही. पण मंडल अहवाल राजकारणातल्या जातीय समीकरणापुरताच मर्यादित आहे काय? मंडल अहवालामध्ये एक सुंदर वाक्य आहे, ‘सत्तेच्या वर्तुळात माझा माणूस.’ याच सूत्रावर ‘पिछडा पाँवे सौ में साठ’, हे लोहियांचं गणित उभं होतं. बी. पी. मंडल हे लोहियांचेच पट्टशिष्य. जादू या सूत्रानेच केली आहे.<br /><br />32 वर्षांनंतरही ही जादू संपलेली नाही. कमंडलच्या जोरावर ज्यांच्या हातात सत्ता आहे, त्यांना आजही सर्वात जास्त भीती मंडलचीच वाटते. म्हणून ओबीसीची जनगणना केली जात नाही. महाराष्ट्रात 'महा विकास आघाडी'चं सरकार होतं. काँग्रेस, राष्ट्रवादी आणि शिवसेना यांच्या सरकारने ओबीसी जनगणनेची संधी हातातून घालवली. मागासवर्गीय आयोगाने मागितलेले ४०० कोटी द्यायला नकार दिला. वेळ काढला. कोविडचं कारण सांगितलं गेलं. त्यातून स्थानिक स्वराज्य संस्थांमधील ओबीसी आरक्षणाचा मुद्दा जो लटकला तो अर्धामुर्धाच हाती आला आहे. मागच्या अडीच वर्षात ओबीसी आरक्षणाला जो फटका बसला तो भरून न येणारा राहिला आहे. फुले - शाहू - आंबेडकरांचा महाराष्ट्र मध्यप्रदेशचा कित्ता गिरवत राहिला. बिहार, तामिळनाडू आणि कर्नाटककडेही त्यांनी पाहिलं नाही. बिहारमध्ये नितीशकुमारांनी सत्ता वंचित महादलितांसाठी केलेला महाप्रयोग कमालीचा यशस्वी झाला. कर्पूरी ठाकूर, बी. पी. मंडल आणि मधू लिमये यांच्या पुढे जात सामाजिक आणि मानवी प्रतिष्ठाही नसलेल्या छोट्या छोट्या महादलित जातींना त्यांनी सत्तेचे भागीदार बनवलं. कुठेही आरोपांची राळ न उठवता ओबीसी जनगणनेचा आग्रह धरला. राज्याच्या पातळीवर राजद आणि भाजपसह सर्व पक्षांना त्यांनी ओबीसी आणि जातीनिहाय जनगणनेसाठी राजी करून घेतलं.<br /><br />तब्बल 32 वर्षांनंतर मंडलचा प्रश्न पुन्हा ऐरणीवर आला आहे. तो फक्त मंडल मधल्या शिफारशींपुरता मर्यादित नाही. कारण ऐरण कमंडलाची आहे. जय श्रीरामाच्या घंटानादात हरवलेल्या बजरंगी भाईजान जाती समूहांच्या सामाजिक, आर्थिक व राजकीय न्यायाचा प्रश्न पुन्हा अधोरेखित झाला आहे. द्रौपदी मुर्मू देशाच्या राष्ट्रपती झाल्या, याचा आनंद आणि अभिमान असला तरी त्या कैफात आदिवासींच्या आशा, आकांक्षा विसरल्या जाण्याची शक्यता नाही. संकटात आलेलं ओबीसींचं आरक्षण लोकसंख्येत 50 टक्के असलेला समुदाय कायमचा गमावून बसेल ही शक्यताही नाही. जाट - मराठ्यांसारख्या शेतकरी समूहांच्या आरक्षणाच्या आणि आर्थिक न्यायाच्या मागणीला पुढच्या काळात आणखीन धुमारे फुटण्याची शक्यता आहे. भारतीय राजकारणाचा हा अग्नीपथ नजीकच्या काळात सर्वांचीच परीक्षा घेणार आहे.<br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">आमदार कपिल पाटील</a><br />अध्यक्ष, लोक भारती</span><div></div></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-5889603568236007222022-07-25T14:41:00.002+05:302022-07-25T15:08:48.145+05:30धेय्य धुंद, मस्त देशभक्त कवी वसंत बापट<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1FADaeCy5b-fR2teAyM4iqFkst9I6ZOHBOhZU5f13DylvTgAl7ieaXUKvNY-I5LLkGyWv04nYB2XLbOzuxBV-qEnij5AEE4hqXZ9FgTXOG2EpPkNdU7kXQy7c8chI-VoMxv-95MHL0M79xKxUjVvjJ8iDDZ5TetMCi1GZfIV_Ham3mCq9QRCPanXo/s1288/E7jFn4cVEAYbx4N.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1288" data-original-width="1032" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1FADaeCy5b-fR2teAyM4iqFkst9I6ZOHBOhZU5f13DylvTgAl7ieaXUKvNY-I5LLkGyWv04nYB2XLbOzuxBV-qEnij5AEE4hqXZ9FgTXOG2EpPkNdU7kXQy7c8chI-VoMxv-95MHL0M79xKxUjVvjJ8iDDZ5TetMCi1GZfIV_Ham3mCq9QRCPanXo/w320-h400/E7jFn4cVEAYbx4N.jpg" width="320" /></a></div><br /><span style="font-size: large;"><br /></span></div><span style="font-size: large;"><b>'धुंद फुंद शीळ घुमे <br />युवकांच्या ओठी <br />गोड गोड गीत घुमे <br />युवतींच्या ओठी <br />आज तुझ्यासाठी भारता' </b><br /><br /><br />युवकांच्या ओठांवर गाणी कोणती आहेत, त्यावरून त्या देशाचं भविष्य सांगता येतं. साने गुरुजींच्या पाठोपाठ सेवा दल फुललं ते वसंत बापटांच्या गाण्यांवर. वसंत बापटांनी धुंद, मस्त गाणी लिहली. ती गाणी होती धेय्य धुंदीची. मस्त देशभक्तीची. बापटांनी धमाल गाणी लिहली. गंभीर प्रार्थना लिहली. गोड गीतं लिहली. धुंद, मस्त शीळ घातली. ती सेवा दलापुरती राहिली नाहीत. महाराष्ट्राची, देशाची बनली. <br /><br />स्वातंत्र्याच्या चळवळीत बापटांनी क्रांती गीतं लिहली. गीतांमधून 'जय सुभाष'चा नारा दिला. पंढरपुरच्या सत्याग्रहात समतेची गर्जना दिली. कलापथकासाठी नृत्य गीतं लिहली. कामगार, शेत मजुरांच्या घामाची गाणी केली. <br />'भाग्य लिहलेलं माझं तुझं <br />घाम आलेल्या भाळावरी <br />स्वप्न लपलेलं माझं तुझं <br />इथे बरड माळावरी' <br /><br />स्वातंत्र्योत्तर सेवा दलाचा इतिहास वसंत बापटांच्या गाण्यांनी लिहावा लागेल. <br />'सदैव सैनिका पुढेच जायचे <br />न मागुती तुवा कधी फिरायचे' <br /><br />हे सेवा दलाचे धेय्य गीत तर सेवा दलाचा इतिहास आणि ओळख सांगताना बापट लिहतात, <br />'सेवा दल सेवा दल ध्यास जयां <br />हर्षाने उल्लेखिल भावी इतिहास तयां <br /><br />कोणाचे दास्य नको, परक्यांचे धनिकांचे <br />सर्वांचे राज्य असो, देशातील श्रमिकांचे<br /> <br />तोवरि रूचणार नसे सोन्याचे घास जयां <br />सोन्याने उल्लेखिल भावी इतिहास तयां' <br /><br />स्वातंत्र्याचा जयजयकार करताना बापट लिहतात, <br />'कुणी कुणाहूनी मोठा नाही, <br />कुणी कुणाहूनी छोटा नाही <br />समान सारे भाई भाई, <br />हा आमुचा निर्धार <br />जाती पाती ह्यांच्या भिंती <br />आता कोसळणार <br />मानव तितुका एकच आहे, <br />हेच खरे ठरणार' <br /><br />आणखी एका प्रार्थनेचा उल्लेख करावा लागेल. कारण ती प्रार्थना लहानपणापासून मनात आहे. सेवा दलाशी जो जोडला गेला आहे, त्याच्या मनात ती आहे. अर्थात कवी वसंत बापट यांचीच, <br />'देह मंदिर चित्त मंदिर एक तेथे प्रार्थना <br />सत्य सुंदर मंगलाची नित्य हो आराधना <br /><br />दु:खितांचे दु:ख जावो ही मनाची कामना <br />वेदना जाणावयाला जागवू संवेदना' <br /><br />बापटांच्या पत्नी नलूताई बापट सांताक्रूझला साने गुरुजी शाळा चालवत होत्या. त्यांनी बापटांना सांगितलं, 'भिन्न देव, धर्म आणि पंथ आड न येणारी एखादी प्रार्थना लिहून दे.' आणि बापटांनी लिहलं,<br />'भेद सारे मावळू द्या वैर साऱ्या वासना <br />मानवाच्या एकतेची पूर्ण होवो कल्पना <br />मुक्त आम्ही फक्त मानू बंधूतेच्या बंधना <br />देह मंदिर चित्त मंदिर एक तेथे प्रार्थना' <br /><br />कवी वसंत बापट हे सेवा दलाचे कार्यकारी विश्वस्तही होते. साने गुरुजींच्या सहवासात त्यांनी स्वतःचं जानवं तोडलं. पंढरपूरच्या सत्याग्रहात ते गुरुजींसोबत होते. पण नंतर कधी मंदिरात गेले नाहीत. देह आणि चित्ताला मंदिर मानून त्यांनी ही प्रार्थना लिहली.<br /><br />वसंत बापट विद्वान होते, व्यासंगी होते. मुंबई विद्यापीठाच्या गुरुदेव टागोर अध्यासनाचे ते विभागप्रमुख होते. पक्के समाजवादी होते. देशात लोकशाहीसाठी झालेल्या संघर्षातही त्यांनी भाग घेतला. आणीबाणीच्या विरोधात आणि नंतर जनता प्रयोगातही. जनता पार्टीचा प्रयोग फसला. दोष समाजवाद्यांना दिला गेला. तेव्हा पार्ले टिळक मंदिरात त्यांनी दिलेल्या भाषणातून त्यांचा सात्विक संताप मी प्रत्यक्ष पाहिला आहे. जातीभेदाचा आणि मनातूनही न गेलेल्या अस्पृश्यतेचा दाह रामसुंदर दास आणि कर्पूरी ठाकूर या मुख्यमंत्र्यांना का भोगावा लागला? असा संतप्त सवाल करत त्यांनी जनसंघीयांवर जोरदार टीका केली होती. समाजवाद हा त्यांचा ध्यास होता. त्यांच्या गीतागीतातून तो व्यक्त झाला. संगमरवरातून मूर्ती घडवणाऱ्या अभिजात मूर्तिकाराच्या शिल्प प्रक्रियेचे संगमरवरी वर्णन त्यांच्या एका कवितेत आहे. वसंत बापटांची प्रत्येक कविता तशीच संगमरवरी शिल्प कृती सारखी आहे. ते सौंदर्याचे पूजक होते. आणि शब्द शिल्पकारही. <br /><br />आज त्यांचा जन्मदिवस. <br />जन्मशताब्दी.<br />विनम्र अभिवादन!<br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">आमदार कपिल पाटील</a>, कार्यकारी विश्वस्त, राष्ट्र सेवा दल</span>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-24727784790699622932022-07-14T15:38:00.006+05:302022-07-14T16:51:49.837+05:30गोलबंदी होणार कशी?<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3Y-fAx-qlIpLi4oWCdN5Hc4MbhmomKbEE0a_WOKEIMA5BEIwV0iqj91xpVcAVJxb5ehz4QP656NZinziv65na7EVOL0gNrARIsS82J6VT7HhnR4y2E3Q7ms5faLXfU2UX_hcCqUZIwvQanQNjiwGZd3V0-vBR-TjydjvZxq7M4wu_6zpoJZCe1p8k/s1200/Upfront-murmu.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="675" data-original-width="1200" height="360" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3Y-fAx-qlIpLi4oWCdN5Hc4MbhmomKbEE0a_WOKEIMA5BEIwV0iqj91xpVcAVJxb5ehz4QP656NZinziv65na7EVOL0gNrARIsS82J6VT7HhnR4y2E3Q7ms5faLXfU2UX_hcCqUZIwvQanQNjiwGZd3V0-vBR-TjydjvZxq7M4wu_6zpoJZCe1p8k/w640-h360/Upfront-murmu.jpg" width="640" /></a></div><br /><span style="font-size: large;"><b>शिवसेनेने</b> द्रौपदी मुर्मू यांच्या राष्ट्रपती पदाच्या उमेदवारीला पाठिंबा दिला. त्यावर काँग्रेसची प्रतिक्रिया होती, ''सेनेचा हा निर्णय अनाकलनीय आहे.'' <br /><br />खरंतर काँग्रेसचीच प्रतिक्रिया अनाकलनीय म्हणावी अशी. काँग्रेसच्या आजवरच्या इतिहासाला साजेशी.<br /><br />शिवसेना आज संकटात आहे. या संकटाने निर्माण केलेल्या राजकीय कंपल्शनपोटी त्यांनी द्रौपदी मुर्मू यांना पाठिंबा दिला आहे, असं मानायला जागाही आहे. म्हणजे तसा निष्कर्ष काढणं सोपं असलं तरी मोदी, भाजप सरकारच्या विरोधात राजकीय एकजूट करण्याची गरज असताना खुद्द काँग्रेसचीच तयारी नाही, हे या प्रतिक्रियेने पुन्हा एकदा समोर आलं.<br /><br />मागची आठ वर्ष काँग्रेस आणि विरोध पक्षांना चितपट करत केंद्रात मोदी आणि भाजपचं राज्य आहे. या सरकारच्या विरोधात गोलबंदी करण्यामध्ये विरोधी पक्ष सपशेल अपयशी ठरले आहेत. काश्मीरचं ३७० कलम भाजप सरकारने एका फटक्यात रद्द केलं. काश्मीरचे दोन तुकडे केले. अयोध्येच्या राम मंदिरच्या बाजूने सुप्रीम कोर्टानेच निकाल दिला. त्याबद्दलही ब्र काढण्याची हिंमत काँग्रेस किंवा अन्य विरोधी पक्षांना होऊ शकली नाही, हेही समजू शकतं. पण सीएए, एनआरसीच्या प्रश्नांवर विरोधी पक्षांची एकजूट करण्यात विरोधी नेतृत्वाला यश आलं नाही. ते आंदोलन तरुणांनी केलं होतं. अल्पसंख्य समुदायाच्या प्रतिक्रिया अत्यंत संयत होत्या. त्या आंदोलनाच्या प्रभावामुळे केंद्र सरकारला दोन पावलं मागे जावं लागलं. <br /><br />शेतकऱ्यांच्या प्रश्नांवर पंजाब आणि उत्तरप्रदेशातल्या उठावाने देशभर एक नवी संधी चालून आली होती. वर्षभर शेतकरी दिल्लीच्या सरहद्दीवर ठाण मांडून होते. पण विरोधी पक्षांमधले घटक पक्ष त्यांच्या आधीच्या भूमिकांमुळे पुन्हा गोलबंदी करू शकले नाहीत. पंजाब आणि उत्तरप्रदेश निवडणुकींच्या तोंडावर खुद्द प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यांनीच माघार घेतली. शेतकरी विरोधी कायदे मागे घेतले. इंदिरा गांधींनंतर सर्वाधिक बलाढ्य असलेल्या नेत्याला अशी माघार घ्यावी लागणं, ही मोठी संधी होती. ती हरपल्यामुळे उत्तरप्रदेशात विरोधी पक्षांना पराभव पत्करावा लागला. पंजाबात काँग्रेसचं सरकार असूनही ते सपशेल पराभूत झालं. आम आदमी पक्षाला भाजपने सत्तेचा दरवाजा उघडून दिला. दलित अत्याचार आणि अल्पसंख्याकांच्या मॉब लिंचिंग प्रकरणांपासूनही भाजप आणि संघ परिवाराने मोठ्या शिताफीने स्वतःला अलग करून घेण्यात यश मिळवलं.<br /><br />बिहारमधील बेल्छी गावात दलित हत्याकांडानंतर इंदिरा गांधी हत्तीवरून जाऊन पोचल्या होत्या. उत्तरप्रदेशातल्या हाथरस गावी राहुल गांधी आणि प्रियांका गांधी गेले खरे. पण उत्तरप्रदेशात राजकीय पटावरून आधीच अदृश्य झालेली काँग्रेस दलितांना आता आधार वाटत नाही. ना मुस्लिम समाजालाही काँग्रेस वाचवू शकेल याची खात्री राहिलेली नाही. शेतकरी आंदोलनातही काँग्रेसकडून शेतकऱ्यांना कोणतीच अपेक्षा नव्हती. आधीच्या दहा वर्षातल्या काँग्रेस राजवटीतला आर्थिक अजेंडा फारसा वेगळा नव्हता. <br /><br />यात राहुल गांधींचा दोष बिलकुल नाही. मनमोहन सिंगांच्या राजवटीत राहुल गांधींना शिताफीने सत्तेपासून दूर ठेवणाऱ्या जी २३ गटाने ही परिस्थिती त्यांच्यापुढे वाढून ठेवली आहे. पुन्हा राहुल गांधींच्याच नेतृत्वाला दोष देण्यासाठी तो सगळा ग्रुप एका पायावर उभा आहे.<br /><br />इंदिरा गांधी यांनी लादलेली आणीबाणी आणि त्याविरुद्ध जनता पक्षाचा झालेला उठाव ही त्यावेळच्या विरोधी पक्षांची एकप्रकारची गोलबंदीच होती. पण ती गोलबंदी केवळ इंदिरा हटावच्या नाऱ्यातून आलेली नव्हती. <br /><br />पाकिस्तानचे दोन तुकडे करत बांग्लादेशची निर्मिती १९७१ मध्ये इंदिरा गांधी यांनी केली, तेव्हा त्या लोकप्रियतेच्या सर्वोच्च लाटेवर होत्या. गुंगी गुडिया म्हणून हिणवलं जात होतं, त्या इंदिरा गांधींना अटल बिहारी वाजपेयी यांनी दुर्गेची उपमा दिली. त्यानंतर अवघ्या ७ वर्षात देशातलं वातावरण बदललं. बिहार आणि गुजरातमधल्या भ्रष्टाचार विरोधी नाऱ्यांनी तरुणांचं आंदोलन उभं राहिलं. जयप्रकाशजींच्या नेतृत्वाखाली देशातले सगळे विरोधी पक्ष जनसंघासह एक झाले. जनता पक्ष जन्माला आला. १८ महिन्यांच्या आणिबाणीनंतर भारतीय जनतेने उठाव केला होता. सुरवात भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनातून झाली होती. जयप्रकाशजींनी संपूर्ण क्रांतीचा नारा देऊन त्या उठावाची परिणीती सत्तापरिवर्तनात केली. लोकशाही वाचवण्यासाठी दुसऱ्या स्वातंत्र्याची लढाई, असं वर्णन केलं गेलं होतं त्याचं. डावे समाजवादी, जनसंघ आणि काही प्रादेशिक शक्ती यांची एकजूट ही काँग्रेस विरोधावर उभी होती. जनता पक्ष फुटला पण काँग्रेस विरोधाच्या त्याच मुद्द्यावर भाजपने देशभर आपली ताकद उभी केली. फुटलेल्या जनता पक्षातील प्रादेशिक नेतृत्वाला आणि अन्य प्रादेशिक पक्षांना चुचकारत भाजपने काँग्रेस विरोधावर हिंदुत्वाला स्वार केलं. <br /><br />आणीबाणीने लोकशाहीचा गळा घोटला होता. आता आणीबाणी घोषित नसूनही लोकशाहीचे सगळे स्तंभ पोखरले गेले आहेत. तीन मोठी आव्हानं उभी आहेत. भारतीय संविधानाला अपेक्षित असलेलं संघराज्य, सेक्युलॅरिझमचा आशय आणि लोकशाहीची इमारत. तिघांनाही जबरदस्त आव्हान मिळालं आहे. भारतीय समाजातील विविध घटकात कमालीची अस्वस्थता आहे. बेरोजगारीच्या प्रश्नावर प्रचंड असंतोष आहे. अग्निपथावर अग्निवीरांनी दिलेल्या प्रतिक्रियेची धग अजूनही निवळलेली नाही. संकटात असलेले शेतकरी आणि टिपेला पोचलेली महागाई. हे सगळे मुद्दे असतानाही काँग्रेस प्रणित विरोधी पक्षांची सगळी लढाई ही व्यक्तिशः नरेंद्र मोदी यांच्या विरोधात केंद्रीत झाली आहे. मोदी देशाचं नेतृत्व करत असले, त्यांच्या नेतृत्वाखाली भाजपचं सरकार असलं तरी मोदी आणि हे मुद्दे हे दोन वेगळे भाग आहेत. अस्वस्थता अन् असंतोष पचवण्याची ताकद मोदींच्या लोकप्रियतेत आहे. मोदींची प्रत्येक चाल ही विरोधी पक्षांना निष्प्रभ करते आहे. <br /><br />रमजानच्या काळात एका इफ्तारीला स्वातंत्र्य चळवळीचा वारसा असलेल्या मुस्लिम संघटनेच्या एका नेत्याने देशाच्या एका युवा नेत्याला सांगितलं की, ''तुम्ही मुसलमानांची चिंता करायचं सोडून द्या. तुम्ही जितकं मोदी, मोदी कराल तितके मोदी अधिक मोठे होतील. या देशातला हिंदू सेक्युलर होता व आहे. त्याला कसं वाचवायचं त्यावर तुम्ही काही करत नाही आहात. खऱ्या प्रश्नांवर गोलबंदी करत नाही आहात.''<br /><br />द्रौपदी मुर्मू यांच्या नावाची घोषणा भाजपचे राष्ट्रीय अध्यक्ष जे. पी. नड्डा यांनी केली. ती विरोधी पक्षांचा उमेदवार जाहीर झाल्यानंतर. विरोधी पक्षांनी राजनाथ सिंग बोलायला आले असताना संधी घेतली नाही. थोडा इंतजार केला नाही. अटल बिहारी वाजपेयी यांच्या मंत्रिमंडळात अर्थमंत्री राहिलेले पूर्व भाजपाई यशवंत सिन्हा यांना उमेदवारी जाहीर करून टाकली. <br /><br />यशवंत सिन्हा हेच विरोधी पक्षांच्या राजकारणाचे सिम्बॉल असतील तर भाजपपेक्षा विरोधी पक्ष कोणता वेगळा पर्याय देत आहे? <br /><br />नड्डा म्हणाले, ''विरोधी पक्षांनी सहमती दाखवली नाही म्हणून आम्हाला द्रौपदी मुर्मू यांचं नाव जाहीर करावं लागतंय. द्रौपदी मुर्मू पूर्व भारतातल्या आहेत. महिला आहेत. आणि आदिवासी आहेत.'' <br /><br />भाजपची राजवट आणि जनता पक्ष, जनता दलाच्या अल्पकालीन राजवटी वगळता देशावर प्रदीर्घ काळ काँग्रेसचंच राज्य होतं. काँग्रेसला आदिवासींनी हमेशा भरभरून मतदान केलं. सत्तेच्या सर्वोच्च शिखरांवर आदिवासींना स्थान मात्र काँग्रेसने कधी दिलं नाही. <br /><br />''द्रौपदी मुर्मू यांच्यापेक्षा माझं काम जास्त आहे'' हे यशवंत सिन्हा यांचं विधान धक्कादायक होतं. मनुस्मृतीच्या विरोधात डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी जो विद्रोह केला त्याच्याशी आता कुठे तरी सहमती दाखवणाऱ्या काँग्रेस आणि अन्य डाव्या पक्षांचे राष्ट्रपती पदाचे उमेदवार मनुस्मृतीचीच भाषा बोलतात, हे आश्चर्यकारक आहे. <br /><br />नड्डा यांनी डॉ. राधाकृष्णन् यांच्याशी द्रौपदी मुर्मू यांची तुलना केली. ही तुलना काहींना मान्य होणार नाही कदाचित. पण राधाकृष्णन् जर होऊ शकतात तर द्रौपदी मुर्मू का नकोत? हा साधा सवाल आहे. संघ परिवार एरवी वनवासीची भाषा करत असली तरी नड्डा यांनी द्रौपदी मुर्मू या आदिवासी आहेत, ट्रायबल आहेत, याचा आवर्जून उल्लेख केला. <br /><br />मुर्मू यांचं नाव जाहीर झाल्यानंतर ज्या त्वरेने नितीश कुमार आणि नवीन पटनायक यांनी पाठिंबा जाहीर केला तितकी त्वरा नाही पण नंतरही फेरविचार करायला विरोधी पक्ष तयार झाले नाहीत.<br /><br />डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांना भारतरत्न द्यायला जनता दलाचं सरकार यावं लागलं. जयपाल सिंह मुंडा यांना भारतरत्न तर फार दूर. साधा पद्मभूषण पुरस्कारही मिळाला नाही. याचं वैषम्य आदिवासी प्रबुद्ध वर्गात हृदयातल्या जखमेसारखं आजही ठसठसतं आहे. जयपाल मुंडा यांनी हॉकीच्या सुवर्णकाळात भारतीय टीमचं तीनदा नेतृत्व केलं. संविधान सभेचे ते सदस्य होते. नंतर लोकसभेतही ते आदिवासींचे प्रखर आवाज बनून राहिले. ऑक्सफर्ड विद्यापीठातल्या या महान विद्वानाच्या योगदानाची दखल आजवर आपण घेऊ शकलो नाही. शिवसेनेने द्रौपदी मुर्मू यांना पाठिंबा दिला तर हे अनाकलनीय असल्याची प्रतिक्रिया काँग्रेस नेते व्यक्त करतात. <br /><br />नितीश कुमार आणि नवीन पटनायक त्यांच्या राज्यामधला सामाजिक सलोखा बिघडू देत नाहीत. सेक्युलॅरिझमच्या मुद्द्यावर तडजोड करत नाहीत. नितीश कुमार तर भाजप सोबत राहूनही सीएए, एनआरसीच्या विरोधात विधिमंडळात ठराव करतात. हिंदू - मुस्लिम भोंग्याचं राजकारण राज्याच्या सीमेबाहेर ठेवतात. ओबीसी जनगणनेची प्रक्रिया सहमतीच्या राजकारणातून सुरु करतात. <br /><br />जयपाल सिंह मुंडा यांच्यावरील अन्यायाच्या जखमेवर द्रौपदी मुर्मू यांच्या पाठिंब्याचं मलम लावण्याऐवजी यशवंत सिन्हा यांच्या उमेदवारीचं मीठ जखमेवर शिंपडलं जात असेल तर गोलबंदी होणार कशी? <br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील</a><br />(सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद आणि अध्यक्ष, लोक भारती)</span>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-24720239249577238902022-04-29T12:49:00.002+05:302022-04-29T12:59:26.751+05:30नास्तिकांवरच्या हल्ल्याचं कारण ...<div><span style="font-size: large;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMhv4UtBrc6jfs4MP3pcfmk8vcR7CdFoY9VnVDECz6eaTDJZudQ7gschZNua6f1KYHJzu2l5_TyaEv15KItluDNd5MFX3nkrio3MALIKStoMO0tmWrEt_yMxVgnBpoUInCa8IiusACutCjYyhOMKlwdRo98jDbY3xDNBffoPycWLgb0mq0EoEXBVFi/s1200/Sharad%20Pawar%20Raj%20Thackeray.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="1200" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMhv4UtBrc6jfs4MP3pcfmk8vcR7CdFoY9VnVDECz6eaTDJZudQ7gschZNua6f1KYHJzu2l5_TyaEv15KItluDNd5MFX3nkrio3MALIKStoMO0tmWrEt_yMxVgnBpoUInCa8IiusACutCjYyhOMKlwdRo98jDbY3xDNBffoPycWLgb0mq0EoEXBVFi/w640-h480/Sharad%20Pawar%20Raj%20Thackeray.jpg" width="640" /></a></div><br /><b><br /></b></span></div><span style="font-size: large;"><b>राज</b> ठाकरेंचा भोंगा संजय राऊत म्हणतात तसा भाजप प्रायोजित होता काय? त्यांनी नवी बांग दिली आहे. त्यांची राजकीय पहाट त्यातून उजाडेलही कदाचित. प्रश्न तो नाही. राज ठाकरेंच्या माऱ्याने दोन गोष्टी तात्काळ घडल्या. एक, शरद पवार आस्तिक असल्याचे पुरावे त्यांच्या निकटवर्तीयांकडून दिले गेले. दोन, पुण्याचा नास्तिक मेळावा रद्द करायला आघाडी सरकारच्या पोलिसांनी भाग पाडलं.<br /><br />शरद पवार ईश्वरनिष्ठ आहेत की नाहीत, याची चर्चा करण्याचं कारणही नाही. त्यांनी कधीही त्याचं अवडंबर केलं नाही. सार्वजनिक पूजापाठ केले नाहीत. देव धर्माच्या बाजाराला त्यांनी कधी उत्तेजन दिलं नाही. सुशीलकुमार शिंदे यांच्या घरात गणपती येतो, पण शिंदे असोत किंवा शरद पवार किंवा अजित पवार. मनातल्या आणि घरातल्या देवाला त्यांनी राजकारण्याच्या चव्हाट्यावर उभं केलं नाही. मंत्री, मुख्यमंत्री पदाची शपथ घेताना देवाच्या नावाने नाही, गांभीर्यपूर्वक त्यांनी शपथ घेतली. त्या शपथेचं कारण एकदा शिंदेंनी सांगितलं होतं. 'राजकारण ईश्वरनिष्ठ किंवा धर्मनिष्ठ नाही, गांभीर्यपूर्वक झालं पाहिजे. संविधाननिष्ठ झालं पाहिजे, अशी शिकवण यशवंतराव चव्हाणांनी घालून दिली आहे.'<br /><br />ठाण्याच्या उत्तर सभेत राज ठाकरेंनी शरद पवार नास्तिक आहेत, देव धर्मावर त्यांचा विश्वास नाही, असा हल्ला चढवला. दुसऱ्या दिवशी शरद पवारांचे नारळ फोडतानाचे आणि मारुती समोर हात जोडतानाचे फोटो ट्वीट झाले. 'नास्तिक' शरद पवारांना इतकी माघार का घ्यावी लागली? राज ठाकरेंचा हल्ला इतका प्रखर होता की एकूणच बिघडलेल्या वातावरणाची धास्ती अधिक होती? </span><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">धास्ती स्वाभाविक आहे. 'सियांवर रामचंद्र की जय' या घोषणेत आणि 'राम राम' घालत होणाऱ्या भेटीत मर्यादा पुरुषोत्तमाची आश्वासक गळा भेट असते. 'जय श्रीरामा'च्या कर्कश घोषणांमध्ये दंग्यांचं आवतण असतं.<br /><br />१९५४ च्या 'नास्तिक' चित्रपटात कवी प्रदीप यांच्या गीतातले शब्द आहेत. <br /><br />राम के भक्त रहीम के बंदे<br />रचते आज फ़रेब के फंदे<br />कितने ये मक्कर ये अंधे<br />देख लिये इनके भी धंधे<br />इन्हीं की काली करतूतों से<br />बना ये मुल्क मशान ...<br /><br />भयाचं माहोलचं असं आहे. सीतामैय्याच जिथे घाबरलेली आहे. तिथे आस्तिकतेचे पुरावे दिले तर नवल काय? <br /><br />पंढरपूरच्या विठोबाच्या पूजेचे फोटो मात्र कुणीही ट्वीट केले नाहीत. कारण पंढरींचा राजा हा नास्तिकांचा नाथ. नास्तिकांवर हल्ला करणाऱ्यांना ते पुरतं ठाऊक आहे. जिथे धर्म आणि जातीचंही बंधन नाही. उच्च, नीचतेलाही जागा नाही. तो संतांचा विठ्ठल. कबीराचा राम, बसवण्णांचे इष्टलिंग, मीरेचा कृष्ण वैदिकतेचे पाश मोडून उभा राहिलेला असतो. ईश्वरवाद आणि नास्तिकवाद यातलं अंतर आताच्या निरीश्वरवाद्यांना माहित नसेल कदाचित. धर्म हे द्वेषाचं स्फोटक साधन ज्यांच्या हाती आहे, त्या धर्म संसदेतल्या सभासदांना मात्र ते ठाऊक आहे. त्यांचे फरेब के धंदे ३०० वर्षांपूर्वी संत तुकाराम महाराजांनी मात्र ओळखले होते.<br /><br />उच्च नीच काही नेणे भगवंत l तिष्ठे भावभक्ती देखोनियां l l<br />चर्म रंगू लगे रोहिदासासंगें l कबीराचे मागें शेले विणी l l<br />सजन कसाया विकूं लागे मांस l माळ्या सांवत्यास खुरपू लगे l l<br />नरहरी सोनारा घडूं फुंकू लागे l चोखामाळ्यासंगे ढोरें ओढी l l<br />नामयाची जनीसवें वेची शेंणीं l धर्मा घरी पाणी वाहे झाडी l l<br />नाम्यासवें जेंवी नव्हे संकोचित l ज्ञानियाची भींत अंगे ओढी l l<br />मिराबाईसाठी घेतो विषप्याला l दामाजीचा जाला पाडेगार l l<br />घडीमाती वाहे गोऱ्याकुंभाराची l हुंडी त्यामे हत्याची अंगे भरी l l<br />पुंडलीकासाठी अजूनी तिष्ठत l तुका म्हणे मात धन्य त्याची l l<br /><br />खुद्द तुकोबारायांनी दाखला दिला आहे. सजन कसायासाठी कृष्ण कन्हैया मटणाच्या दुकानात उभा राहतो. तिथे कर्नाटकात मटणाची दुकानं बंद करण्याची फर्मानं सुटली आहेत. महाराष्ट्रात मढीच्या कानिफनाथांच्या जत्रेत भटक्यांनी शिजवलेल्या मटणाची पातेली लाथांनी उलटी केली गेली.<br /><br />धार्मिक उन्मादाच्या घोषणा. हलाल खायचं, की नाही खायचं याचा वाद. हिजाब घातला म्हणून परीक्षेलाही बसू द्यायचं नाही. असा माहोल देशात आहे. हल्ला फक्त मुसलमानांवर आहे, हा भाबडा समज नास्तिकतेवरच्या हल्ल्याने खोटा ठरवला आहे. नास्तिक चार्वाकालाही हिंदू धर्म परंपरेत मान्यता आहे. जागा आहे. असा डाव्या आणि पुरोगाम्यांचाही समज असतो. चार्वाक होता तेव्हा हिंदू धर्म नावाचा शब्द नव्हता. ती वैदिक ब्राह्मणी परंपरा. त्या परंपरेला ब्राह्मण चार्वाकही जिवंत राहणं मान्य नाही. <br /><br />अयोध्येला परतलेल्या प्रभू रामाच्या दरबारात एका ब्राह्मण चार्वाकाने रामाला नास्तिकतेचा उपदेश केला. पुरोहितशाहीची निर्भत्सना केली. तेव्हा चिडलेल्या पुरोहित वर्गाने हा चार्वाक म्हणजे ब्राह्मणाचं सोंग घेतलेला राक्षस आहे, असा हल्लाबोल केला. 'थांब चार्वाका आमच्या हुंकारानेच तुझा वध करतो.' रामाच्या दरबारात चार्वाकाचं मॉब लिंचिंग झालं. युधिष्ठिराच्या दरबारातही महाभारतातल्या हिंसाचाराचं पाप धर्मराजाच्या पदरात टाकण्याची हिंमत आणखी एका चार्वाकाने केली होती. त्या चार्वाकाचीही चिडलेल्या वैदिकांनी राक्षस ठरवून तिथेच हत्या केली. नास्तिक दर्शनाच्या बाजूने बोलणाऱ्या पट्टराणी द्रौपदीला धर्मराजाने दरबारातच गप्प केलं. राक्षसांचं निर्दालन 'शास्त्र प्रमाण' आहे. डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, कॉ. गोविंद पानसरे, एम. एम. कलबुर्गी यांच्या हत्येपूर्वी 'सनातन'ने त्यांना राक्षस ठरवलं होतं. कलबुर्गींसाठी धारवाडला जाऊन राहिलेल्या डॉ. गणेश देवी यांचीही अलीकडेच दानव म्हणून संभावना केली गेली.<br /><br />फरक इतकाच की, शरद पवारांना नास्तिक म्हणून जाहीर करणारे सनातनी नाहीत.<br /><br />नास्तिक परंपरा म्हणजे निरीश्वरवाद नव्हे. जे वेद प्रामाण्य मानत नाहीत ते नास्तिक, अवैदिक. या जगाचा कुणी एक नियंता आहे आणि तो रिमोट कंट्रोलने हे विश्व चालवतो यावर नास्तिकांचा विश्वास नाही. गंगा स्नानाने पुण्य प्राप्ती, धर्म प्राप्ती होते, असं ते मानत नाहीत. जातीवादाचा दर्प ते बाळगत नाहीत. शरीराला यातना करून पापातून मुक्ती मिळते यावरही ते विश्वास ठेवत नाहीत. आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म या भाकड कथांवर ते विश्वास ठेवत नाहीत. सातव्या शतकातील 'धर्म कीर्ती'ने असल्या भाम्रक कल्पनांवर विश्वास ठेवणाऱ्यांना मूर्ख म्हटलं आहे.<br /><br /></span><div><span style="font-size: large;">निरीश्वरवादी, बुद्धीप्रामाण्यवादी, अज्ञेयवादी, नास्तिक, सांख्यवादी यातलं अंतर अनेकांना माहित नसतं. चाणक्य विष्णुगुप्त ईश्वरनिष्ठ होते. पण आपला अर्थशास्त्र हा ग्रंथ नास्तिक असल्याचं ते अर्पण पत्रिकेतच सांगतात. बळीराजाचे गुरु शुक्राचार्य आणि चार्वाकांचे गुरु बृहस्पती यांना आपला ग्रंथ अर्पण करतात. तथागत गौतम बुद्ध ईश्वराच्या चर्चेत जात नाहीत. पण बौद्धमत नास्तिक आहे. महावीरांच्या तत्वज्ञानात ईश्वराला जागाच नाही. जैन धर्म अर्थात नास्तिक मानला जातो. चंद्रगुप्त जैन होता. त्याचा पुत्र बिंदुसार आजीवक होता. देवनामप्रिय प्रियदर्शी अशोक बौद्ध. तिघंही नास्तिक. पण तिघंही ईश्वराला मानत होते. सम्राट हर्षवर्धन, गौतमी पुत्र सातकर्णी निरीश्वरवादी नव्हते. पण नास्तिक मताचे पुरस्कर्ते होते.<br /><br />महात्मा फुले ईश्वराला निर्मिक म्हणून पाहत होते. पण महात्मा फुलेंचं सारं तत्वज्ञान वेद, मनुस्मृती आणि पुराणांचं भंजन करणारं होतं. त्यांचा सत्यशोधक समाज अर्थातच नास्तिक होता. प्राचीन काळातील नास्तिकांचेही काही विधी असत. सत्यशोधक समाजाचेही काही विधी महात्मा फुलेंनी घालून दिले होते. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांनी बौद्ध धर्म स्वीकारला तेव्हा त्यांना ईश्वर, वेद आणि मनुस्मृती यांच्यावर आधारलेल्या ब्राह्मणी हिंदू धर्माच्या बेडीतून आपल्या समाजाला मुक्त करायचं होतं. बौद्ध आणि जैन धर्माचेही काही विधी आहेत. पण म्हणून ते रूढार्थाने आस्तिक ठरत नाहीत. <br /><br />महात्मा गांधी ईश्वरनिष्ठ होते. आणि धर्मनिष्ठ हिंदूही. त्यांच्याशी गोरा गांधी म्हणजे गोपाराजू रामचंद्र राव यांचा देव धर्मावरून वाद झाला. गोरा गांधी गांधीवादी पण कट्टर निरीश्वरवादी होते. 'ईश्वर सत्य आहे' असं सांगणाऱ्या गांधीजींना ते ईश्वर नसल्याची प्रमाणे देत होते. वादाच्या शेवटी गांधी म्हणाले, 'सत्य हाच ईश्वर आहे.' अस्पृश्यतेचं समर्थन करणाऱ्या प्रत्येक धर्मग्रंथाचा मी धिक्कार करतो, असं गांधीजी स्पष्ट सांगत. तेव्हा ते नास्तिक ठरतात. नथुराम गोडसेने गांधींना १९४४ मध्येच रावण ठरवलं होतं. अग्रणी या त्याच्या वर्तमानपत्रात ते कार्टून प्रसिद्ध झालं होतं. ज्यात गांधी, नेहरू, सुभाष, पटेल यांना रावण ठरवण्यात आलं होतं. आणि रावण वध करण्याऱ्या रामाच्या भूमिकेत होते सावरकर व हेडगेवार. सावरकर बुद्धिप्रामाण्यवादी होते. पण नास्तिक नव्हते. त्यांना वेद आणि मनुस्मृती वंद्य होती. <br /><br />स. रा. गाडगीळांनी 'लोकायत' या त्यांच्या चार्वाक दर्शनावरील ग्रंथात गाणाऱ्या कुत्र्याची गोष्ट सांगितली आहे. बक दालभ्य (ग्लव मैत्रय) वेदाध्ययनासाठी जाताना ते चमत्कारिक दृश्य पाहिले होते. पांढऱ्या कुत्र्याला जमलेले कुत्रे म्हणत होते, 'हे भगवन् आम्ही भुकेले आहोत. मंत्र गानाने अन्नप्राप्ती करून द्याल काय?' त्या सफेद श्वानाच्या पाठोपाठ जमलेल्या कुत्र्यांनी मंत्र पठणाचा हिंकार स्वर लावला. डॉ. राधाकृष्णन म्हणतात, 'पुरोहितांच्या मंत्रविद्येचं विडंबन करण्यासाठी कुत्र्यांकडून हे विडंबन उदगीथगान करण्याचा उपनिषदकारांचा हेतू असावा.' स. रा. गाडगीळ म्हणतात, 'वर्गवर्णप्रधान यज्ञ प्रस्थापित झाल्यानंतर या नव्या समाज रचनेत वरिष्ठ वर्गीयांनी श्रमजीवी लोकांना अर्थ-कामप्रधान, असुर, लोकायत, चार्वाक, प्राकृतजन या विशेषणांनी उल्लेखावयास प्रारंभ केला.' नास्तिक राक्षसांचं हे वर्णन आहे. राक्षस म्हणजे जे रक्षण करतात ते. <br /><br />बक दालभ्य यांची गाणारी कुत्री मंत्र पठणाने अन्नप्राप्तीची इच्छा करतात. वैदिक आर्यांचा अन्नब्रह्मवाद यज्ञातल्या अग्नीची प्रार्थना करतो,<br />''नू नच्श्रित्रं पुरुवाजाभिरूती अग्ने रयिं मधवद्भ्य श्च्व धेहि l<br />ये राधसा श्रावसा चात्यन्यास् त्सुवीयेंभिच्श्रमि ll १<br /><br />याचा अर्थ -<br />हे धनसंपन्न अग्ने, आमच्यावर अन्य कोणाहीपेक्षा अधिक अन्न, धन, संपत्ती आणि पुत्रपौत्र यांचा वर्षाव कर.''<br /><br />वैदिक आर्य अन्न, धान्य, सुखाची अपेक्षा करताना 'अन्य कोणाहीपेक्षा' फक्त आपल्याला जास्त मिळावं यावर जोर देतात. स्वार्थ प्रार्थना.<br /><br />श्रवण बेळगोळच्या 'चामुंडराये करविले' या आधीचा आणखी एक मराठी शिलालेख आहे. रायगड जिल्ह्यात अलिबाग चौल मार्गावर अक्षीजवळ तो सापडला. १०१० वर्षांपूर्वीचा. महाराष्ट्राच्या या पहिल्या शिलालेखातील प्रार्थना वैदिक आर्यांच्या अगदी विपरीत आहे. ही अवैदिक प्रार्थना म्हणते, 'जगी सुष (सुख) संतु (नांदो).'<br /><br />विपरीत अर्थ लावणे आणि पाखंडी ठरवणे हे सोपे आहे. पण कार्ल मार्क्स म्हणतो त्याप्रमाणे, सर्व समीक्षेची सुरवात ही धर्माच्या समीक्षेने होते. तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी म्हणतात, 'श्रद्धा म्हणजे विशिष्ट विचारांच्या सतत्येची खात्री. हल्ली ज्ञानाचा कमी उपयोग करणाऱ्यांच्या मनातील खात्रीला श्रद्धा म्हणतात. निश्चय म्हणजे श्रद्धा. आता त्याचा अर्थ तर्काचा व बुद्धिवादाचा प्रतियोग झाला आहे... श्रद्धांची तपासणी सुरु झाली की श्रद्धा हादरू लागते. म्हणून नव्या विचारांना पाखंड किंवा नास्तिक म्हणतात.... कृष्ण, बुद्ध, ख्रिस्त, महंमद हे धर्मसंस्थापकसुद्धा जुन्या धर्माच्या दृष्टीने महापाखंडीच होते.'<br /><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">पण वस्तुस्थिती आजही तीच आहे. जगातील अत्यंत धर्मनिष्ठ राष्ट्रांमध्ये भारताचा क्रमांक पहिला लागतो.<br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील</a><br />(सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद.)</span></div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-16470410623403555312022-03-23T13:10:00.005+05:302022-03-23T14:26:22.677+05:30 भगतसिंग, गांधी आणि सावरकर<span style="font-size: large;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh0aWp4QSluiDcYtwlU9rtTRy4MvliH1eQDNDkGPDby0OAa_rjMFUEEdPrhdtfc9QsnLDlOaEjrpPbjBz5zaABU7wtYaIVPx-TIQ6wlTVu3PDiTq0BZcNn177XYjkUEQBBLe6u24uLulgu7rXyE40yiq7RdG2xBHgQJQlZmPzXW6Ogm480-JORaEs3H/s1368/Bhagatsingh%20Gandhi.jpg"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh0aWp4QSluiDcYtwlU9rtTRy4MvliH1eQDNDkGPDby0OAa_rjMFUEEdPrhdtfc9QsnLDlOaEjrpPbjBz5zaABU7wtYaIVPx-TIQ6wlTVu3PDiTq0BZcNn177XYjkUEQBBLe6u24uLulgu7rXyE40yiq7RdG2xBHgQJQlZmPzXW6Ogm480-JORaEs3H/w640-h478/Bhagatsingh%20Gandhi.jpg" /></a><br /><br />आज शहीद दिन. शहीद-ए-आज़म भगतसिंग, सुखदेव, राजगुरू यांच्या हौतात्म्याचा दिवस. गांधींची तेव्हा काय भूमिका होती? सावरकर काय करत होते?<br /><br />‘४ जून १९४१’ या पुस्तकाचा भाग चौथा -<br />.........................</span><div><span style="font-size: large;"><br />भाग ४<br /><br />'कोई दूसरा ऐसा करता तो मैं इसे गद्दारी से कम न मानता...'<br /><br /><b>भगतसिंगाचे</b> ते शब्द खूपच कठोर होते. ते कठोर शब्द त्याने वडिलांसाठी वापरले होते.<br /><br />आपल्या मुलाला फाशी होणार आहे, म्हटल्यानंतर कोणता बाप अस्वस्थ होणार नाही? भगतसिंगाचं घराणं काही सामान्य घराणं नव्हतं. वडील सरदार किशन सिंग आणि काका सरदार अजित सिंग दोघंही शेतकऱ्यांचे नेते होते, स्वातंत्र्यसेनानी होते. महाराष्ट्रातील त्यावेळच्या दुष्काळग्रस्तांना केवढा मोठा आधार दिला होता त्यांनी. १८९८ च्या दुष्काळात महाराष्ट्रातील दुष्काळग्रस्तांच्या अनाथ मुलांना ते पंजाबात घेऊन गेले होते. आणि त्यांच्यासाठी त्यांनी अनाथालय काढलं होतं. <br /><br />आझादीचा ध्यास आणि क्रांतीची पूजा, भगतसिंग त्यांच्याकडूनच तर शिकला होता. पण लाहोर कटात राजगुरू आणि सुखदेव सोबत भगतसिंगांना कोर्टाने फाशीची शिक्षा सुनावली. तेव्हा बापाचं हृदय पिळवटून निघालं. का नाही होणार तसं? स्वातंत्र्यसेनानी असले तरी तेही एक बाप होते. अवघ्या २३ वर्षांचा होता भगतसिंग तेव्हा. भगतसिंगांच्या वडीलांनी मुलाच्या बचावासाठी कोर्टाकडे अर्ज केला होता. भगतसिंगाला मात्र ते आवडलं नाही. खरं तर तो भडकलाच. खुद्द आपल्या वडिलांवर.<br /><br />४ ऑक्टोबर १९३० ला भगतसिंगाने आपल्या पूज्य पिताजींना पत्र लिहलं. 'तुम्ही वडील आहात माझे म्हणून मला भीती वाटते की, तुमच्यावर दोषारोपण करताना, तुमची निंदा करताना मी सभ्यतेच्या सीमा ओलांडून जाऊ नये. माझे शब्द जास्त कठोर होऊ नयेत.'<br /><br />भगतसिंगांची जयंती २८ सप्टेंबरला येते. २ ऑक्टोबरला गांधी जयंती. या पाच दिवसात हिंदुत्ववाद्यांचा सोशल मीडिया सभ्यतेच्या सगळ्या सीमा ओलांडून वाहू लागतो. एरव्ही सावरकर प्रेमाने उतू जाणाऱ्या हिंदुत्ववाद्यांना भगतसिंगाचा उमाळा येतो. २३ मार्चची तारीख उजाडली की अंधभक्तांच्या चॅनलवरून भगतसिंगची फाशी गांधीजींनी का वाचवली नाही? नेहरूनी प्रयत्न का केले नाहीत? अशा बिनबुडाच्या सवालांचा धुरळा उडवायला ते लागतात. सावरकरांना किंवा हिंदुत्ववाद्यांना तो हा प्रश्न विचारत नाहीत.<br /><br /><b>नास्तिक भगतसिंग </b><br />भगतसिंग तर कट्टर हिंदुत्व विरोधी होता. त्याचा कोणत्याच धर्मावर विश्वास नव्हता. तो केवळ धर्मनिरपेक्ष वृत्तीचा नव्हता तर निधर्मी होता. तो निरीश्वरवादी होता. त्याहीपेक्षा तो नास्तिक होता. सावरकर निरीश्वरवादी होते, पण नास्तिक नव्हते. (निरीश्वरवादी होते की नाही प्रश्न आहेच. पण तसा त्यांचा दावा होता.) नास्तिक म्हणजे जे वेदांना मानत नाहीत ते. सावरकर हिंदुत्ववादी होते. देवाला मानत नसतील कदाचित ते पण नास्तिक निश्चित नव्हते. हिंदुत्वाचे जनक होते सावरकर. तर भगतसिंग हिंदुत्वाचा घोर विरोधी होता. सावरकर धर्मद्वेषाच्या राजकारणाचेही जनक होते. फॅसिझमचे पुरस्कर्ते होते. भगतसिंगांना धर्मद्वेषाचं राजकारण मान्य नव्हतं. भगतसिंगांची लढाई ब्रिटिश साम्राज्यशाहीच्या विरोधात होती, तशीच फॅसिझमच्या विरोधातही.<br /><br />गांधीजी एका अर्थाने धार्मिक होते. ईश्वराला मानत होते. पण गांधीजींचं संपूर्ण राजकारण धर्मनिरपेक्ष होतं. किंबहुना भारतीय धर्मनिरपेक्षतेचा दुसरा समान अर्थाचा शब्द इतिहासात शोधायचा असेल तर तो आहे, गांधी. फॅसिझमच्या विरोधातलं उत्तर जग शोधतं तेही 'गांधीं'मध्येच.<br /><br />गांधींवरती वर्णाश्रमाचा एक आरोप केला जातो. जो बेबुनियाद आहे. प्रख्यात आंबेडकरी विचारवंत रावसाहेब कसबेंपासून गांधी आंबेडकरी विचारांचे अभ्यासक निशिकांत कोलगेंपर्यंत सर्वांनी ते आता सिद्ध केलं आहे. वेदांना मानत नाही, ती नास्तिक परंपरा भारतात प्राचीन काळापासून आहे. सावरकर नास्तिक परंपरांचा निषेध करतात. बुद्ध - महावीरांचा धिक्कार करतात. सावरकर वेदांचे समर्थक आहेतच. त्याहून मनुस्मृतीचेही कट्टर समर्थक आहेत. वेदांच्यानंतर सर्वोच्च पूजनीय मनुस्मृतीच असल्याचा दावा सावरकर करतात. अस्पृश्यांसाठी वेगळं पतितपावन मंदिर बांधणारे सावरकर, जातिप्रथेमुळे हिंदू वंशाची पवित्रता कायम राहिल्याचा दावा करतात.<br /><br /><b>ब्राम्हणी मूल्यांच्या विरोधात गांधी </b><br />गांधीजी बुद्ध, महावीरांना आपलं मानतात. गांधीजी अस्पृश्यतेचं समर्थन करणाऱ्या प्रत्येक हिंदू ग्रंथांची निर्भत्सना करतात. शंभर वर्षांपूर्वी पुण्यात म्हणजे १९२१ मध्ये गांधीजी प्रथम आले होते. तेव्हा त्यांनी 'अस्पृश्यतेचं पाप हे ब्राम्हणांची निर्मिती' असल्याचं विधान करून वरिष्ठ वर्णींयांचा रोष ओढवून घेतला होता. तिखट प्रतिक्रिया आल्यावर त्यांनी खुलासा केला की, 'मी ब्राम्हणांच्या विरोधात नाही. गोखलेंना गुरु मानतो. (* सदानंद मोरे - लोकमान्य ते महात्मा) पण अस्पृश्यता निर्माण करणाऱ्या ब्राह्मणी ''मूल्यां''च्या विरोधात आहे.'<br /><br />भगतसिंगने वयाच्या २० - २२ व्या वर्षी जातीप्रथेचा धिक्कार करून अस्पृश्यतेच्या विरोधात लिखाण केलं. सेंट्रल असेम्ब्लीत फेकलेल्या बॉम्बपेक्षा त्याची जाती चिकित्सा अधिक विध्वंसक आहे.<br /><br />फाशीची शिक्षा होणार हे माहित असूनही भगतसिंग स्वतःला वाचवण्यासाठी यत्किंचितही धडपडत नव्हता. त्याची फाशी वाचावी म्हणून गांधीजींनी केलेले प्रयत्न सर्वश्रुत आहेत. त्याचा हिंसक मार्ग गांधींना पसंत नव्हता. पण त्याच्या साहस आणि वीरतेचं त्यांना कौतुक होतं. (सावरकरांच्या विचारांशी मतभेद असूनही, सावरकरांची अंदमानातून सुटका व्हावी यासाठी सर्वाधिक प्रयत्न केले तेही गांधीजींनीच.) <br /><br />गांधी, नेहरूंच्या पुढाकारानेच समाजवादी क्रांतिकारी नेते आणि राष्ट्र सेवा दलाच्या चळवळीतील एक प्रेरक शक्ती, अरुणा असफ अलींचे पती असफ अली, भगतसिंगांचं वकीलपत्र घेऊन उभे राहिले होते. पण भगतसिंगाला वकील घेणंही मान्य नव्हतं. त्याला गुन्हा लपवायचा नव्हता. हसत हसत त्याला फासावर जायचं होतं. माफी मागणं हे सत्याग्रही तत्त्वज्ञानाच्या विरोधात आहे, हे माहित असूनही गांधीजी दयेचा अर्ज करून भगतसिंगाची शिक्षा वाचवता येईल का? या प्रयत्नातही होते. अर्थात ते भगतसिंगाला मान्य असणं शक्य नव्हतं. असफ अली भगतसिंगाला समजवायला निघालेही होते. तेव्हा भगतसिंगाने त्यांना भेटायला स्पष्ट नकारच दिला.<br /><br /><b>भगतसिंगने काय सांगितलं?</b></span></div><div><span style="font-size: large;">आपल्या वडिलांना ४ ऑक्टोबर १९३० च्या पत्रात तो लिहतो, 'तुम्हाला वाटतंय की, मी माझा बचाव करावा. पण तुम्हाला हेही माहित आहे की, मला हे मान्य नाही. मैंने कभी भी अपना बचाव करने की इच्छा नहीं जताई और न ही मैंने कभी इस पर संजीदगी से गौर किया है।'<br /><br />भगतसिंगाचं हे पत्र त्या पार्श्वभूमीवर आहे, जेव्हा त्याच्या फाशीचा खटला सुरु आहे. वडिलांना तो म्हणतो की, 'तुम्ही राष्ट्रभक्त आहात. स्वातंत्र्यसेनानी आहात. पण कसोटीच्या क्षणी आपण कमजोर पडत आहात. तुमचं हे पाऊल मला मान्य नाही.'</span></div><div><span style="font-size: large;"><br />भगतसिंग केवळ शहीद नाही झाले. शहीद-ए-आज़म आहेत आजही ते. वडिलांना लिहिलेले त्यांचं पत्र पुन्हा पुन्हा वाचलं पाहिजे. एक नुकतीच मिसरूड फुटलेला तरुण ज्या निग्रहाने, शौर्याने, हिंमतीने, दृढ निश्चयाने, अविचलतेने, निर्भयतेने फाशीचा स्वीकार करतो. फाशीच्या वाटेवर वडिलांना असं पत्र लिहतो, ती भाषा, तो निर्धार यांची तुलना फक्त गांधीजींच्या सत्याग्रहाशीच करता येईल. भगतसिंगाची ही भाषा सत्याग्रहापेक्षा वेगळी नाही. सत्याग्रहात गुन्ह्याची कबुली द्यायची असते. कारण तो ठरवून केलेला आहे. शिक्षेची स्वीकृती आणि परिणामांची पर्वा न करण्याचा निश्चय या सत्याग्रहाच्या पूर्वअटी आहेत. <br /><br />भगतसिंगचे वडील किशन सिंग यांनी पुढे एकदा आपल्या भाषणात म्हटलं होतं, 'भगतसिंह ने मुझसे कहा कि चिंता मत करो l मुझे फाँसी हो जाने दो l लेकिन उसने मुझसे एक जोरदार दरख्वास्त की - आपको अपने जनरल (गाँधी) का समर्थन करना है l आपको सभी कांग्रेसी नेताओं का समर्थन करना चाहिए l तभी आप देश के लिए आज़ादी जीत पाओगे l' <br /><br />'इन्कलाब बॉम्ब आणि पिस्तुलाच्या गोळीतून येत नाही. क्रांती हिंसेतून फुलत नाही', असं भगतसिंग सांगतो तेव्हा हिंसेच्या मर्यादा आणि अहिंसेच्या महती तो जणू सांगत असतो. १९४२ च्या ऑगस्ट क्रांतीत गांधीजी 'Do or Die', 'करो या मरो'चा आखरी संदेश देतात. तेव्हा हिंसा, अहिंसेच्या निरर्थक वादाला त्यांनी मूठमाती दिलेली असते. पुण्यातल्या शेवटच्या तुरुंगवासात गांधीजींकडे तक्रार जाते, समाजवाद्यांच्या हिंसक कारवायांबद्दल. अच्युतराव पटवर्धन, लोहिया, जयप्रकाश, एस. एम., साने गुरुजी यांच्या नेतृत्वाखाली झालेल्या भूमिगत, हिंसक क्रांती लढ्याबद्दल बापूंकडे काही लोक तक्रार करतात. गांधीजी, 'समाजवादी नवतरुणांना 'करो'चा खरा अर्थ कळला आहे', असंच सांगतात. सेवा दलाचे अध्वर्यू ग. प्र. प्रधान आणि इतिहासकार सदानंद मोरे यांनी गांधी समर्थनाचा तो प्रसंग लिहून ठेवला आहे.<br /><br /><b>हिंसा - अहिंसा </b></span></div><div><span style="font-size: large;">साने गुरुजींनी श्यामच्या पत्रात लिहलं आहे, 'आम्ही हिंसेचे भक्त नसलो तरी हिंसा अपरिहार्य असेल तरच ती आम्ही करू. आम्ही साधी माणसे. याच घटकेला सारे बदलू दे असे आम्हांला वाटणार. बदलण्यासाठी आम्ही खटपट करणार. आजपर्यंत साधुसंतांनी उपदेश केले. परंतु कोणी ऐकले? ख्रिस्ताने सांगितले, ''सुईच्या नेढ्यातून उंट जाईल; परंतु श्रीमंत मनुष्य स्वर्गात जाणार नाही.'' कोणी ते ऐकले? कुराण सांगते, ''तू एकट्याने खाऊ नकोस, व्याज घेऊ नकोस.'' परंतु कोण ऐकतो? पठाणही आता सावकार बनले! ''श्रीमंतांनो, तुम्ही ट्रस्टी व्हा'' असे तुम्ही सांगता. कोणता श्रीमंत हे ऐकत आहे? या श्रीमंताविरुध्द आम्ही अहिंसक सत्याग्रह करुन काय होणार? आमच्यावर गोळ्या घातल्या जाणार. आम्ही असे मरायला तयार नाही. उपासमारीने मरण. गोळीबाराने मरण. आमचे रोज मरणच आहे! ज्याच्यामुळे मरण आहे त्याला नष्ट करायला आम्ही उभे राहू. हिंसा-अहिंसा आमच्यासमोर प्रश्न नाही. कोटयवधी गरिबांची हाय हाय होत आहे. ही जी श्रमणाऱ्या लोकांची तिळतिळ हिंसा होत आहे. ती थांबविण्यासाठी मूठभर लोकांची हिंसा करावीच लागली तर ती आम्ही करू. आम्ही रक्तासाठी तहानलेले नाही. परंतु अपरिहार्यच झाले तर रक्त सांडायलाही आम्ही मागेपुढे पाहणार नाही. हिंसेतून हिंसा निर्माण होते, युद्धातून युद्ध निर्माण होते असे तुम्ही म्हणता. भांडवलशाही समाजरचना आहे, सम्राज्यवाद आहे तोपर्यंतच हे असे चालेल. कारण एक साम्राज्यशाही दुसऱ्या साम्राज्यशाहीचा पराजय करते. ती पराभूत साम्राज्यशाही पुन्हा जोर करुन त्याचा सूड उगविते. जोपर्यंत अशी ही समाजरचना आहे, तोपर्यंत युद्धे राहणार. शेवटच्या हिंसेने एकदा समाजवादी वर्गविहीन समाजरचना निर्माण झाली की स्पर्धा संपेल. साम्राज्ये अस्तगत होतील. मग कोण कोणाशी लढणार? मग हिंसा कोठून दिसेल? हिंसेने हिंसाच निर्माण होईल ही गोष्ट शेवटपर्यंत सत्य नाही.'<br /><br />आपल्या त्याच पत्रात साने गुरुजींनी गांधीजींना कोट केलंय, 'परंतु गांधीजी नेहमी म्हणतात, I see red ruin ahead - पुढे मला रक्तपात दिसत आहे.' सेवा दलातील तरुणांना स्वातंत्र्य युद्धाची हाक देताना साने गुरुजींच्या भाषेत एकाचवेळी गांधी, सुभाष , भगतसिंग येतात. ते त्यात भेद करत नाहीत. गांधींना मानणारे समाजवादी तेव्हा नेताजी सुभाषबाबू आणि शहीद भगतसिंग यांच्यावरही तितकंच प्रेम करत होते. हिंसा, अहिंसेच्या वादात ते पडले नाहीत. क्रांतीत माणसाचं रक्त सांडता कामा नये, ते कमीत कमी सांडेल याची काळजी त्यांनी घेतली. खुद्द भगतसिंग आणि बटुकेश्वर दत्तांनी सेंट्रल असेम्ब्लीत पहिला बॉम्ब टाकला, तेव्हाही त्यांचा कोणाला मारण्याचा उद्देश नव्हता. <br /><br />हिंसा, अहिंसेच्या नावावर हिंदुत्ववाद्यांनी स्वातंत्र्य लढाईबद्दल अनेक प्रश्न उपस्थित केले. त्यांना भगतसिंग, गांधी आणि साने गुरुजी कळत नाही, असं नाही. माहित आहेत. पण त्यांचं हे हिंसेचं तत्वज्ञान ब्रिटिश साम्राज्यशाहीच्या विरोधात कधीच हत्यार बनलं नाही. ते सदैव स्वकीयांचा छळ, शोषण करण्याच्या कामी आलं. भेदभाव आणि धर्मद्वेषाची आग लावण्यासाठी इंधन म्हणून खर्ची पडत आलं. नथुरामी हिंदुत्ववाद्यांनी भारतमातेपेक्षा ब्रिटिशमातेला निष्ठा अधिक वाहिली. <br /><br /><b>ना माफी, ना बचाव </b></span></div><div><span style="font-size: large;">भगतसिंगांनी ना माफी मागितली, ना वकील केला, ना बचाव केला. स्वतःच्या हाताने पुष्पहाराप्रमाणे फास गळ्यात घातला. 'स्वातंत्र्यवीर' म्हणून ज्यांचा गौरव होतो ते विनायक दामोदर सावरकर यांनी मात्र अंदमानच्या पहिल्या सहा महिन्यातच माफी मागायला सुरवात केली. एक नाही पाच माफीपत्र. अंदमानात जाईपर्यंत सावरकरांच्या क्रांतीकार्याला कितीही मर्यादा असल्या तरी नाकरण्याचं कारण नाही. स्वातंत्र्यवीर ही उपाधी त्यांनी स्वतःच घेतली असली तरी मराठी भाषकांनी त्याच नावाने त्यांचा उल्लेख केला. अंदमानाच्या काळ कोठडीत हजारो भारतीय शहीद झाले. अपरिमित यातना भोगत. महाराष्ट्रातील ४०० जण होते त्यात. परत नाही आले ते. त्यांना कुणी स्वातंत्र्यवीर म्हणत नाहीत. त्यांची ना चिरा ना पणती.<br /><br />अलीकडेच ज्यांचं निधन झालं ते सेवा दलाचे ज्येष्ठ समाजवादी कार्यकर्ते मधु अडेलकरांनी त्या अनाम क्रांतीवीरांचा इतिहास शोधून काढला. त्या अनाम वीरांच्या अस्थींचं विसर्जन मुंबईच्या समुद्रात करण्यात आलं. तेव्हा मधु अडेलकर, प्रभाकर कुंटे, प्रकाश मोहाडीकर यांच्यामुळे मलाही त्यात सहभागी होता आलं. त्या अस्थींचं समुद्रात विसर्जन करताना प्रकाश मोहाडीकर, कुंटे या वृद्धांचे हात थरथरत होते. त्या थरथरत्या हातांना स्पर्श करत मी त्या नावेत उभा होतो. तेव्हा समुद्राच्या लाटांबरोबर शहिदांना अनाम ठेवल्याची खंत मनावर आदळत होती.<br /><br />अनाम वीरांच्याबाबत 'ना चिरा ना पणती' असं म्हटलं जातं. राष्ट्र सेवा दलाचे अध्यक्ष असताना डॉ. गणेश देवी यांनी ४०० हून अधिक नावं शोधली. त्या प्रत्येकाच्या गावात जाऊन राष्ट्र सेवा दल 'एक चिरा आणि एक पणती' लावणार आहे. कधी चुकूनही माफी न मागता मरण पत्करलेल्या त्या सर्वांची आठवण स्वातंत्र्यवीर म्हणून करण्याची गरज आहे.<br /><br />भगतसिंग याचा चौथा सहकारी होता बटुकेश्वर दत्त. सेंट्रल असेम्ब्लीत म्हणजे पार्लमेंटवर बॉम्ब टाकण्यात तोही होता. त्याला जन्मठेपेची शिक्षा झाली. अंदमानात काळ्या पाण्यावर पाठवण्यात आलं. त्याने कधीही माफी मागितली नाही. किंवा सुटका करून घेतली नाही. स्वातंत्र्यानंतर भगतसिंगाच्या आईला तो भेटला. आजारपणात त्याचा मृत्यू झाला तोही भगतसिंगाच्या आईच्या मांडीवर. तो फासावर गेला नाही म्हणून भारतीयांच्या विस्मरणात गेला. (कदाचित भगतसिंग, सुखदेव, राजगुरू यांची फाशी माफ झाली असती तर? बटुकेश्वर दत्तप्रमाणे त्यांच्याही वाट्याला इतिहासाचं विस्मरण आलं असतं? स्वातंत्र्यसेनानी म्हणून नाव जरूर त्यांचं कदाचित घेतलं गेलं असतं. पण ते शहीद-ए-आज़म ठरले असते?) <br /><br /><b>भगतसिंग आणि गांधींची भाषा एक </b></span></div><div><span style="font-size: large;">भगतसिंगांच्या त्या पत्राची आठवण गांधी जयंतीला यासाठी काढायला हवी की, हिंदुत्ववादी कितीही प्रचार करोत भगतसिंग आणि गांधीजी यांची सत्याग्रही भाषा एक आहे. ब्रिटिश सत्तेपुढे न झुकण्याचा निर्धार एक आहे. विस्मयचकित करणारी दोघांची निर्भयता एक आहे. कठोरातल्या कठोर शिक्षेची तमा नाही, कारण देशावरची अविचल निष्ठा एक आहे. माफीची, दयेची भीक न मागण्याचा पक्का निर्धार एक आहे. <br /><br />गांधीजींना 'यंग इंडिया' मधील लिखाणाबद्दल साबरमती आश्रमात १० मार्च १९२२ ला अटक झाली. १८ मार्च १९२२ रोजी त्यांना कोर्टापुढे उभं करण्यात आलं. राजद्रोहाच्या खटल्याखाली. राजद्रोहाचा हा दुसरा खटला होता. त्या कोर्टाचे जज मि. ब्राऊन यांनी स्वतःच त्या खटल्याची तुलना लोकमान्य टिळकांच्या खटल्याशी केली. जज म्हणाले, 'I mean the case against Bal Gangadhar Tilak under the same section. The sentence that was passed upon him as it finally stood was a sentence of simple imprisonment for six years. You will not consider it unreasonable, I think, that you should be classed with Mr. Tilak ... '<br /><br />गांधीजी म्हणाले, 'I would say one word. Since you have done me the honour of recalling the trial of the late Lokamanya Bal Gangadhar Tilak, I just want to say that I consider it to be the proudest privilege and honour to be associated with his name...'<br /><br />पण खटल्यातली फक्त हीच वाक्य महत्त्वाची नाहीत. या खटल्यात गांधीजींना गुन्हा नाकारता आला असता. शिक्षेतून सुटका करून घेता आली असती. किमान कमी करून घेता आली असती. गांधीजींनी स्वतःचा बचाव स्वतःच केला. पण बॅरिस्टरी कौशल्य पणाला लावून नाही. बचाव कसला, कबुली जबाब. गांधीजी म्हणाले, '...I do not ask for mercy. I do not plead any extenuating act. I am here, therefore, to invite and cheerfully submit to the highest penalty that can be inflicted upon me for what in law is a deliberate crime and what appears to me to be the highest duty of a citizen. The only course open to you, the judge, is as I am just going to say in my statement, either to resign your post, or inflict on me the severest penalty, if you believe that the system and law you are assisting to administer are good for the people. I do not expect that kind of conversion, but by the time I have finished with my statement, you will perhaps have a glimpse of what is raging within my breast to run this maddest risk which a sane man can run.'<br /><br />महात्माजींनी कठोरातल्या कठोर शिक्षेचा स्वीकार केला. जजला उलट सुनावलं. कोर्टाला अंगावर घेण्यासारखंच होतं ते. पण त्यांना सुटका करून घ्यायची नव्हती. भगतसिंग आणि गांधीजी यांच्यातलं हे कमालीचं साम्य आहे.<br /><br />ब्रिटिशांच्या समोर ठीक होत. ते खरोखरीचं शौर्य होतं. पण आजही 'भारत माता की जय' ही घोषणा आपल्या शाब्दिक देशभक्तीची खूण बनली आहे. त्या ऐन स्वातंत्र्य युद्धात कुणी ब्रिटिश मातेचा गौरव केला असता तर? त्याला आजचे अंधभक्त देशद्रोही म्हणाले असते का? खरंच प्रश्न आहे. सावरकरांची माफीपत्र, त्यातली भाषा आणि 'माय'बाप ब्रिटिश सरकारला वाहिलेली निष्ठा त्यांनी वाचली नसेल काय?<br /> <br /><b>सावरकर ब्रिगेड का नाही?</b></span></div><div><span style="font-size: large;">सावरकरांना प्रत्येक क्रांती कार्याचं श्रेय देण्याची जणू स्पर्धा असते. अगदी नेताजी सुभाष बाबूंना आझाद हिंद फौज काढायला सावरकरांनी सांगितलं, इथपर्यंत सांगितलं जातं. भगतसिंगाला सावरकरांनी बॉम्ब मिळवून दिला होता, एवढा शोध लावायचा आता फक्त बाकी आहे. नेताजी सुभाष बाबू सावरकरांना जरूर भेटले होते. पण त्याचवेळी बॅ. महंमद अली जिना यांनाही मुंबईत येऊन भेटले होते. आणि या दोघांकडून निराशा झाल्याचं नेताजींनी भावाला पाठवलेल्या पत्रात लिहून ठेवलं आहे. सावरकरांबद्दल नेताजींनी जे लिहलं आहे, ते वाचल्यानंतर कुणीही सावरकरांना नेताजींचा गुरु मानणार नाही. नेताजी पक्के सेक्युलर होते. साम्राज्यशाहीच्या विरोधात होते. सावरकरांनी प्रेरणा दिली असती तर आझाद हिंद फौजेतली एखादी तुकडी सावरकरांच्याही नावावर असती. तसं झालं नाही. नेताजींच्या आझाद हिंद फौजेत गांधी ब्रिगेड होती. नेहरू ब्रिगेडही होती. राणी लक्ष्मी ब्रिगेड होती. सावरकरांच्या नावाने एकही ब्रिगेड नव्हती. असण्याची शक्यता नव्हती. नेताजींना सावरकर मान्य नव्हते. नेताजी हिटलरला जरूर भेटले, पण सावरकरांना प्रमाणे ते हिटलरप्रेमी यत्किंचितही नव्हते. ब्रिटिश फौजेतील भारतीय जवानांना बाहेर काढत नेताजी जेव्हा आझाद हिंद फौज संघटित करत होते, तेव्हा सावरकर ब्रिटिश सैन्यात सामील होण्याचं आवाहन करत होते. अंदमानातून बाहेर पडलेले सावरकर पूर्णपणे ब्रिटिश समर्थक बनले होते. ब्रिटिश सरकार त्यांच्यासाठी मायबाप बनलं होतं. 'ने मजसी ने परत मातृभूमीला, सागरा प्राण तळमळला' असं अंदमानच्या आधी लिहणारे सावरकर, आता ब्रिटिश मातेच्या सेवेसाठी तळमळत होते.<br /><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiC56uU4JmREW5DeXpOtE6hcu28kTzxjUyfdpZL_XtAN0q5hEwocCCdhIajoOaGJZnYKP00f0y25qD3iM_Q3igj0Pp2eDRJf7Xx_mDhOYqMR0ipeFq_quJiexqkViWubuebfDBkVEFhxeEjYz1E-2466Ft_Zo5D26UAutC9r6rpfzAd4-uvwURt_8mr/s2048/NEW%20RSD%20Book%20KP%20Cover_2%20June%202021.jpg"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiC56uU4JmREW5DeXpOtE6hcu28kTzxjUyfdpZL_XtAN0q5hEwocCCdhIajoOaGJZnYKP00f0y25qD3iM_Q3igj0Pp2eDRJf7Xx_mDhOYqMR0ipeFq_quJiexqkViWubuebfDBkVEFhxeEjYz1E-2466Ft_Zo5D26UAutC9r6rpfzAd4-uvwURt_8mr/w640-h640/NEW%20RSD%20Book%20KP%20Cover_2%20June%202021.jpg" /></a> <br /><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">गांधी, काँग्रेस आणि मुसलमान यांना विरोध करण्याच्या शर्तीच्या करारावरच सावरकर अंदमानातून बाहेर आले होते. सावरकरांनी १४ नोव्हेंबर १९१३ रोजी लिहलेल्या प्रदीर्घ माफी पत्रात, जे माफी पत्र त्यांनी स्वतःच्या हातांनी Sir Reginald Craddock यांच्या हाती दिलं होतं. सावरकर म्हणतात, 'अनंत उपकार आणि दया दाखवून आपण माझी मुक्तता कराल, तर इंग्रज सरकारच्या प्रति मी निष्ठा राखीन... माझं मत परिवर्तन हे अंतकरणातून झालं आहे. आणि आचरणही पुढे तसंच राहील... जे ताकदवर असतात तेच क्षमाशील असतात. एक बिघडलेला मुलगा परत घरी आला तर तो आईवडिलांच्या दारात नाही येणार तर तो कुणाकडे जाईल...'<br /><br />इंग्रजांनी दिलेल्या सगळ्या अटी सावरकरांनी स्वीकारल्या आणि त्यांचं पालन अखेरपर्यंत त्यांनी केलं. सावरकरांचं पहिलं माफीपत्र ३० ऑगस्ट १९११ चं आहे. त्यानंतर १९१३. १९१४. १९१८. आणि शेवटचं १९२०. अशा पाच mercy petitions (दयेचे अर्ज) त्यांनी केल्या. ब्रिटिश सरकारच्या प्रति पूर्ण वफादारी आणि समर्थन त्यांनी केल्यानंतरच त्यांची सुटका झाली.<br /><br />सेल्युलर जेल, पोर्ट ब्लेअर इथून ३० मार्च १९२० ला जो शेवटचा माफीनामा सावरकरांनी पाठवलाय त्यात ते पुन्हा म्हणतात, 'माफी मिळावी म्हणून मी आज हे लिहीत नाहीये. खूप आधीच मी सरकारच्या प्रति निष्ठा आणि समर्पण अर्पण केलं आहे... माझी सुटका माझ्यासाठी नवा जन्म असेल. सरकारची संवेदनशीलता, करुणा माझ्या मनाला आणि भावनांना प्रभावित करील आणि मी व्यक्तीश: सदैव ब्रिटिश सरकारचा होऊन राहीन...'<br /><br />सावरकरांची सुटका ब्रिटिशांनी अखेर केली. ब्रिटिशांच्या 'फोडा आणि झोडा' या धोरणाला यश मिळायला लागलं होतं. ब्रिटिश योजनेनुसार काँग्रेसच्या लढाईत फूट पाडण्यासाठी हिंदू - मुस्लिम बखेडा उभा करणं आवश्यक होतं. त्यांना हिंदूंचा नेता हवा होता. सावरकर हिंदू महासभेचे नेते झाले. आणि जिना मुसलमानांचे. ब्रिटिश योजनेनुसार सारं काही पार पडलं.<br /><br />यशवंतराव चव्हाणांच्या आयुष्यातला एक प्रसंग बालाजी जाधव या युट्युबरने नुकताच सप्रमाण सादर केलाय. सावरकर रत्नागिरीला असताना त्यांना भेटायला तरुण यशवंतराव चव्हाण आणि त्यांचे सहकारी गेले होते. भगतसिंगच्या फाशीची बातमी त्यादिवशी देशभर पसरली होती. रत्नागिरीतही लोक दुःख आणि शोक व्यक्त करत असताना सावरकर त्या तरुणांना म्हणाले, 'हा कसला तुमचा हुतात्मा. खरा क्रांतीकारक मी आहे.'<br /><br />यशवंतराव चव्हाणांची ती सावरकर भेट शेवटची. त्यानंतर त्या वाटेल ते कधी गेले नाहीत.<br /><br />क्रमशः<br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil">कपिल पाटील</a>, कार्यकारी विश्वस्त, <a href="https://www.facebook.com/RSDIndian/">राष्ट्र सेवा दल</a><br /><br />-------------------------- <br /><br /><b>याच संदर्भातील इतर ब्लॉग - </b><br /><br />४ जून कशासाठी? <br />Tap to read - <a href="https://bit.ly/3petwTT">https://bit.ly/3petwTT</a><br /><br />राखीगढीच्या प्राचीन कब्रस्थानात...<br />भाग १<br />Tap to read - <a href="https://bit.ly/3uKBIfH">https://bit.ly/3uKBIfH </a><br /><br />जळक्या हिंदूराष्ट्राचा भयंकर खेळ <br />भाग २<br />Tap to read - <a href="https://bit.ly/2RLh41D">https://bit.ly/2RLh41D</a><br /><br />काँग्रेसी हिंदुत्वाची डिग्री आणि नथुरामी कटामागचं कारण<br />भाग ३<br />Tap to read - <a href="https://bit.ly/2UwX43S">https://bit.ly/2UwX43S</a></span><div style="font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif;"><div style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"></div></div></div><div><br /></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-87628787985874416882021-12-12T11:24:00.001+05:302021-12-12T13:17:51.789+05:30महाराष्ट्र पुरुष शरद पवार <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhuk9cOdFEWRRfX-zAtx-FQkV9qV0YfF9bliqdu9msyAphP-VN4_FClVb2lxkT0ZvQlG4-K1XCrkLmeXQa4IHvVx8x0coKeNl3Tg8OZD_URE_rXtcHeQH-du3gyb0PWOAAbz6dHGbkWgBfQfsxJSgnQynoeMzl3r7nRbzD1_hJbbMA1xlafX8iI5rvo=s2048" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1536" data-original-width="2048" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhuk9cOdFEWRRfX-zAtx-FQkV9qV0YfF9bliqdu9msyAphP-VN4_FClVb2lxkT0ZvQlG4-K1XCrkLmeXQa4IHvVx8x0coKeNl3Tg8OZD_URE_rXtcHeQH-du3gyb0PWOAAbz6dHGbkWgBfQfsxJSgnQynoeMzl3r7nRbzD1_hJbbMA1xlafX8iI5rvo=w640-h480" width="640" /></a></div><br /><span style="font-size: large;"><br /></span><div><span style="font-size: large;"><b>शरद पवार</b> एक जितीजागती दंतकथा बनले आहेत. कॅन्सरवर मात करून कैक वर्ष उलटली आहेत. पाय जायबंदी होऊनही हा माणूस हातात काठी न घेता चालतो. वयाची, आजारपणाची पर्वा करत नाही. वादळ येवो, अतिवृष्टी होवो, पूर येवो, भूकंप येवो शरद पवार वादळी वाऱ्यासारखे फिरतात. निवडणुकीत साताऱ्याला भर पावसात झालेली त्यांची सभा गाजली. वारंच फिरलं. 'वारा खात, गारा खात, बाभूळ झाड उभंच आहे.' कवितेची ही ओळ आता बदलावी लागेल. खेड्यातल्या लोकांना बाभूळ झाड माहित आहे आणि शरद पवारही. शहरातल्या नव्या पिढीला बाभूळ झाड माहित नसेल कदाचित पण शरद पवार नक्की माहित आहेत.<br /><br />लातूरला भूकंप झाला, कलेक्टर पोचण्याच्या आत मुख्यमंत्री असलेले शरद पवार किल्लारीला जाऊन पहाटे पोचले होते. कोसळलेली घरे त्यांनी वर्षभरात उभी केली. गावं वसवली. दुःख आणि वेदनांवर मात करत लोकांना उभं केलं. बॉम्ब स्फोटात मुंबई हादरली होती. पवारांनी २४ तासांच्या आत मुंबईचं स्टॉक एक्सचेंज पुन्हा चालू केलं. दंगलीच्या काळात पवार साहेब दिल्लीत स्वस्थ बसू शकले नाहीत. ते मुंबईत धावून आले. मराठवाड्यात नामांतराच्या प्रश्नावरून दंगल पेटली. पोलादी हातांनी त्यांनी दंगल शमवली. आपली सत्ता गमावून. पण मराठवाडा विद्यापीठाचं नामांतरही करून दाखवलं. दोन्ही समाजांची मनं जुळवण्यासाठी पुन्हा शरद पवारच उभे राहिले.<br /><br />८० - ८१ व्या वर्षी त्यांना कुणी सांगितलंय फिरायला? पण ते ऐकायला तयार नसतात. कोकणात वादळ आलं, शरद पवार धावून गेले. अतिवृष्टीत खेड्यापाड्यातली पिकं झोपून गेली, शरद पवार बांधांवर पोचले. सत्तेवर असोत, नसोत पवार ठिकाणावर गेले नाहीत असं झालेलं नाही. ते विरोधी पक्ष नेते असताना मी पाहिलंय. उरणच्या शेतकऱ्यांवर सरकारचा गोळीबार सुरु असताना धावून जाणारे शरद पवारच होते. शरद पवार हा माणसांचा माणूस आहे. फक्त नेता नाही. नेते खूप असतात. पण माणसात माणूस म्हणून राहणारे, माणूस माणूस समजून घेणारे शरद पवार एकच असतात. जात, पात, धर्म, प्रांताच्या सीमा ओलांडून माणुसकीच्या बांधावर ते उभे असतात.<br /><br />स्थानिक स्वराज्य संस्थांमध्ये महिलांना त्यांचा वाटा देणारे शरद पवार. मंडल आयोगाची अंमलबजावणी करणारे शरद पवार. मुस्लिम ओबीसींना सवलती देणारे शरद पवार. भटक्या विमुक्तांच्या पाठीशी उभे राहणारे शरद पवार. शेल्टी हत्याकांडानंतर आदिवासींच्या पाड्यावर जाणारे शरद पवार. आदिवासी हितांच्या बाबत यत्किंचितही तडजोड न करणारे शरद पवार. असे शरद पवार आपण जेव्हा पाहतो तेव्हा त्यांना केवळ ग्रेट मराठा लीडर का म्हटलं जातं कळत नाही. शरद पवारांच्या विकासाच्या मॉडेलबाबत अनेकदा टीका झाली आहे. राजकारणातील त्यांच्या घटापटाच्या डावांबद्दलही लिहलं गेलं आहे. त्यांनी दिलेले शह, काट शह देशभरात चर्चेत राहिले आहेत. पत्रकारितेत असताना मी त्यांच्या राजकीय निर्णयांवर अनेकदा कठोर टीका केली आहे. पण हे कबुल केलं पाहिजे की, या सगळ्यातून उरतात ते शरद पवार ज्यांच्यात एक कमालीचा माणूस प्रेमी राजकीय नेता फक्त दिसतो. विचाराने ते पक्के सत्यशोधक आहेत. इहवादी आहेत. कर्मकांडांपासून कोसो दूर राहतात. राजकारणातल्या माणसाला या गोष्टी सहज जमणं शक्य नसतं. हमीद दलवाईंना त्यांच्या उपचारासाठी आपल्या घरात ठेवणारे शरद पवार. फारुख अब्दुलांच्या मुलाचं उमरचं आपल्या घरात मुलासारखं संगोपन करणारे शरद पवार. पहिल्याच मुलीनंतर विचारपूर्वक कुटुंब नियोजन करणारे शरद पवार. मोतीराज राठोड, लक्ष्मण माने यांना प्रतिष्ठा देणारे शरद पवार. दलित, मुस्लिम, ओबीसी प्रश्नांकडे आणि नेतृत्वाकडे समन्यायाने पाहणारे शरद पवार. प्रकाश आंबेडकरांच्या भेटीसाठी राजगृहावर जाणारे शरद पवार. मृणाल गोरेंच्या आजारपणात त्यांची विचारपूस करायला जाणारे शरद पवार. दिल्लीत हरवलेल्या महाराष्ट्रातील स्त्री चळवळीतील कार्यकर्त्यांच्या मदतीसाठी रात्रभर जागणारे शरद पवार. कितीही मतभेद झाले तरी बाळासाहेब ठाकरेंशी असलेली मैत्री घट्ट ठेवणारे शरद पवार. किती गोष्टी सांगता येतील.<br /><br />विरोधी पक्षांशी सन्मानाने वागणं. त्यांचं काम प्राधान्याने करणं. ही महाराष्ट्राची एक खासियत आहे. संस्कृती आहे. यशवंतराव चव्हाणांची ती देणगी आहे. वसंतराव नाईकांपासून वसंतदादा पाटलांपर्यंत. बॅ. ए. आर. अंतुलेंपासून ते देवेंद्र फडणवीस आणि आता मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे यांच्यापर्यंत महाराष्ट्राच्या प्रत्येक मुख्यमंत्र्यांनी ती परंपरा पाळली आहे. पण या परंपरेचं मूर्तिमंत प्रतिक म्हणून जर कुणाला पाहायचं असेल तर ते शरद पवारांनाच पाहावं लागेल. शरद पवारांच्या भांडवली विकासाचं मॉडेल कदाचित मान्य होणार नाही. पण ग्राम विकासाला आणि सहकाराला काळाप्रमाणे बदलण्याची ताकद फक्त शरद पवारांकडेच होती आणि आहे. कोकणात फुललेल्या फळबागा आणि सोलापूरच्या पर्जन्य छायेखालील प्रदेशात फुललेल्या सीताफळाच्या बागा ही शरद पवारांचीच देणगी आहे. म्हणून असेल कदाचित शरद पवारांच्या नावाने ग्राम समृद्धीची योजना सरकारने आघाडी सरकारने सुरु केली आहे.<br /><br />८१ वर्षांचं आयुष्य आणि ६१ वर्षांचं राजकारण. भाजप, काँग्रेसच्या तुलनेत राष्ट्रवादी हा तसा लहान पक्ष. तुलनाच करायची तर सेनेपेक्षाही कमी आमदार. एका राज्याची त्याला मर्यादा आहे. पण शरद पवारांना ती नाही. श्रीनगरपासून चैन्नईपर्यंत आणि अहमदाबादपासून कलकत्यापर्यंत शरद पवारांचा राजकीय दबदबा मोठा आहे. ६ दशकांच्या राजकारणात तो अबाधीत राहिलेला आहे. देशातल्या उद्योगपतींना आणि खेड्यातल्या शेतकऱ्यांना एकाच वेळी दोघांनाही शरद पवार आपला माणूस वाटतात. ही पवारांची खासियत आहे.<br /><br />युपीएचं चेअरमन पद मिळण्याची चर्चा आज काल वर्तमानपत्रात आहे. त्यात तथ्य किती ते माहित नाही. त्यात खुद्द पवारांनाही आता स्वारस्य राहिलेले नाही. पण शरद पवार कधीतरी पंतप्रधान होतील असं महाराष्ट्रातील अनेकांचं स्वप्न आहे. ते आधीच व्हायला हवे होते. ती संधीही होती. शरद पवार जेव्हा विरोधी पक्षात होते, तेव्हा त्यांनी देशातल्या तमाम डाव्या, पुरोगामी आणि प्रादेशिक पक्षांची मोट बांधली होती. त्या सगळ्या पक्षांचे तेच नेते होते. राजीव गांधी पंतप्रधान झाल्यानंतर शरद पवार पुन्हा काँग्रेसमध्ये परतले. ते परतले नसते तर देवेगौडा आणि गुजराल यांच्याऐवजी शरद पवार पंतप्रधान झाले असते. पवारांनी त्यावेळी घेतलेला निर्णय हा यशवंतराव चव्हाणांपासून ते महाराष्ट्रातल्या त्यांना मानणाऱ्या नेत्यांच्या दडपणाचा तो भाग होता. महाराष्ट्रातील साखर कारखाने, सहकारी चळवळ आणि ग्रामीण नेतृत्व या प्रत्येकाचं प्रेशर होतं शरद पवारांवर. त्यामुळे शरद पवारांनी स्वतंत्रपणे पुढे जाण्याऐवजी काँग्रेसमध्ये घरवापसी केली. आणि तीच मोठी चूक ठरली. अन्यथा ते देशाचे अनेक वर्ष नेतृत्व करताना दिसले असते. शरद पवार अगदी तरुणपणात मुख्यमंत्री झाले. ते काँग्रेसमुळे नव्हे, तर एस. एम. जोशींमुळे. जनता पक्षाच्या पाठिंब्यामुळे. जनता पक्षातल्या संघीय नेतृत्वाकडे महाराष्ट्र जाऊ नये म्हणून एस. एम. जोशींनी शरद पवारांना सोबत घेतलं आणि नेतृत्व दिलं. शरद पवारांना तेव्हा समाजवादाचं आकर्षण होतं. राष्ट्र सेवा दलामुळे असेल. एस. एम. जोशींना त्यामुळे पवारांबद्दल कायम ममत्व वाटलं. शरद पवारांनीही आयुष्यभर एस. एम. जोशींबद्दल कृतज्ञता बाळगली. तीच वाट त्यांना पुढे पंतप्रधान पदापर्यंत घेऊन जाऊ शकली असती. पण तसं झालं नाही. राष्ट्रवादी काँग्रेसपासून त्यांचा पुन्हा तो प्रवास सुरु झाला आहे.<br /><br />पण पवारांवर मोठाच अन्याय झाला. केवळ पंतप्रधान पदाच्या स्वप्नापुरतं हे मी म्हणत नाही. शरद पवारांना समजून घेण्यात महाराष्ट्र कमी पडला, असं खेदाने म्हणावसं वाटतं. कारणं काहीही असोत. शरद पवारांवर झालेला हा अन्याय त्याला महाराष्ट्राचं राजकारण जितकं कारण आहे, महाराष्ट्रातील माध्यमं आणि बुद्धिजीवी वर्ग जितका कारण आहे, तितकंच कारण शरद पवार स्वतःही आहेत. शरद पवारांमधल्या राजकारण्याने ज्यांना महाराष्ट्र पुरुष म्हणता येईल अशा एकमेव शरद पवार नावाच्या नेत्यावर अन्याय केला आहे.<br /><br />शरद पवारांचं मला भावतं ते त्यांच्यातलं माणूसपण. त्यांच्यातला सत्यशोधक. सामाजिक न्यायाच्या प्रति असलेली त्यांची निष्ठा. त्यांच्या राजकीय निष्ठांबद्दल महाराष्ट्रात आणि देशात अनेकदा चर्चा झाली आहे. राजकीय निष्ठा म्हणजे व्यक्ती निष्ठा हे काँग्रेसमधलं गणित शरद पवारांना कधीच मान्य नव्हतं. म्हणून निष्ठावंतांच्या गर्दीत ते कधीच सामील झाले नाहीत. जेव्हा जेव्हा अपमान झाला तेव्हा तेव्हा ते स्वतंत्रपणे उभे राहिले. <br /><br />औरंगजेबाच्या दरबारात हजारी सरदारांच्या रांगेत उभं राहायला छत्रपती शिवरायांनी नकार दिला. शिवरायांचा तो स्वाभिमानी बाणा हा महाराष्ट्राच्या अस्मितेचा ऊर्जा बिंदू आहे. शरद पवारांनी त्यांच्या राजकारणात अस्मितेच्या या मुद्द्यावर कधीही तडजोड केली नाही. पण अस्मितेच्या नावावर अलगथलग राजकारण त्यांनी कधी केलं नाही. <br /><br />छत्रपती शिवरायांनी अठरा पगड मावळे एकत्र केले. जात आणि धर्माचा भेद संपवला. हे सर्वसमावेशक राजकारण यशवंतराव चव्हाण यांनी महाराष्ट्राच्या स्थापनेबरोबर पुनर्स्थापित केलं. यशवंतरावजींनी शरद पवारांना आपला मानसपुत्र आणि राजकीय वारस मानलं. महाराष्ट्राचा मंगल कलश आणणाऱ्या नेत्याने अचूक निवड केली होती. शरद पवारांनी ती सार्थ ठरवली. <br /><br />यशवंतरावजींनी दिलेली फुले - शाहू - आंबेडकर ही शब्दावली शरद पवारांनी केवळ राजकीय वारा भरलेले शब्दांचे बुडबुडे म्हणून स्वीकारले नाहीत. त्या विचारांवरच त्यांनी राजकारण केलं. काँग्रेसपासून अलग झाले. परंतु गांधी - नेहरूंच्या राजकारणाचा धागा हातातून त्यांनी कधी निसटू दिला नाही. <br /><br />उद्धव ठाकरे यांच्या नेतृत्वाखाली महाविकास आघाडीचं सरकार स्थापन करण्यासाठी त्यांचाच पुढाकार होता. तो प्रयोग करतानाही त्यांनी महाराष्ट्राची घडी कधी विस्कटू दिली नाही. महाराष्ट्राच्या महावस्त्रात फुले - शाहू - आंबेडकर यांच्यासोबत प्रबोधकर ठाकरेंचाही वाटा आहे. प्रबोधनकार शाहू महाराजांचे समर्थक होते. महात्मा फुलेंना मानणाऱ्या सत्यशोधक ब्राह्मणेतर चळवळीचे ते अग्रणी होते. नथुरामी संप्रदायापासून गांधीजींचे प्राण प्रबोधनकार ठाकरे यांनीच दोनदा वाचवले होते. प्रबोधनकरांच्या नंतर बाळासाहेब ठाकरेही मराठी अस्मितेचा एक भाग बनले. उद्धव ठाकरे यांच्याकडे नेतृत्व देण्यामागे शरद पवारांनी तोच मोठा विचार केला होता. <br /><br />शरद पवारांकडे हे सारं आलं कुठून? एकच उत्तर आहे, शारदाबाई गोविंदराव पवार. त्यांच्या आई.<br /><br />देशाच्या इतिहासात महामानवांची चर्चा खूप होते. पराक्रमी पुरुषांच्या गाथा खूप लिहल्या जातात. शिल्पकार सारे देशाचे असोत किंवा राज्याचे असोत किंवा विशिष्ट्य समाजाचे शिल्पकार फक्त पुरुषच ठरवले जातात. पण देशातल्या महामानवींचा इतिहास जिथे लिहला जात नाही, तिथे राज्याराज्यातल्या कर्तबगार स्त्रियांचं चरित्र कोण लिहणार? 'मेकर्स ऑफ इंडिया' या पुस्तकात डॉ. रामचंद्र गुहा यांनी महाराष्ट्रातील ताराबाई शिंदेंचा समावेश केला आहे. अजून काही स्त्रियांचा खरं तर त्यांनी समावेश करायला हवा होता. जगभरच्या स्त्रीयांच्या हक्काचे कायदे बदलायला भाग पाडणाऱ्या डॉ. रखमाबाईंचा उल्लेखही रामचंद्र गुहांनी केलेला नाही. तिथे महाराष्ट्र घडवणाऱ्या स्त्रियांची चर्चा होताना कशी दिसेल? जिजामाता आणि सावित्रीबाई फुले किंवा अहिल्याबाई यांचं आपण नाव घेतो. पण त्या झाल्या महामानवी. महाराष्ट्र ज्यांनी घडवला त्यात अनेक लखलखत्या स्त्रियांची चरित्र लिहली गेली पाहिजेत. ती सांगितली जात नाहीत. संख्येने भल्या त्या मोजक्या असतील. पण महाराष्ट्र घडवणाऱ्या त्या स्त्रियांच्या यादीत सत्यशोधक शारदाबाई गोविंदराव पवार यांचं नाव आवर्जून सांगावं लागेल. महाराष्ट्र घडवण्याऱ्यांमध्ये शारदाबाईंचाही एक वाटा होता. तसा महाराष्ट्राला शरद पवारांसारखा नेता शारदाबाईंमुळेच मिळाला. केवळ जन्माने नाही. शारदाबाईंनी त्यांना घडवलं. पवार साहेबांचा आज गौरव करताना शारदाबाईंना विसरून चालणार नाही.<br /><br />शरद पवार यांना सहस्रचंद्र वाढदिवसाच्या हार्दिक शुभेच्छा!<br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" rel="nofollow" target="_blank">कपिल पाटील</a><br />(कार्यकारी विश्वस्त - राष्ट्र सेवा दल, आमदार - मुंबई शिक्षक मतदार संघ, अध्यक्ष - लोक भारती.)</span><br /><div></div></div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-74688314187068486732021-10-30T11:28:00.000+05:302021-10-30T11:28:11.843+05:30स्वातंत्र्य, समता आणि मानवतेसाठी निनादणारा आवाज काळाच्या पडद्याआड....<div><span style="font-size: large;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-aSw9Qa3SL2I/YXzToGnKZnI/AAAAAAAAH20/S4CBD83Jck4ogCSxxhWrdJ05jCex3-pngCLcBGAsYHQ/s900/Liladhar%2Bhegade.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="900" height="640" src="https://1.bp.blogspot.com/-aSw9Qa3SL2I/YXzToGnKZnI/AAAAAAAAH20/S4CBD83Jck4ogCSxxhWrdJ05jCex3-pngCLcBGAsYHQ/w640-h640/Liladhar%2Bhegade.jpg" width="640" /></a></div><br /><b><br /></b></span></div><span style="font-size: large;"><b>कवी</b> वसंत बापटांच्या 'देह मंदिर चित्त मंदिर एक तेथे प्रार्थना...' या प्रार्थनेतली 'मानवाच्या एकतेची पूर्ण होवो कल्पना' ही ओळ गावी ती लीलाधर हेगडे यांनीच. भुपेन हजारिका यांचा आवाज तुम्ही ऐकलाय का? मी तुलना बिलकुल करत नाही. पण त्यांचा भारदस्त आवाज आणि त्यातली घन आर्तता तुम्हाला अनुभवता येईल जेव्हा लीलाधर हेगडे ही ओळ गात होते तेव्हा. लीलाधर हेगडे यांनी साने गुरुजींच्या पंढरपूर सत्याग्रहात वसंत बापटांसोबत 'महाराष्ट्र शाहीर' कार्यक्रम महाराष्ट्रभर नेला. आणि राष्ट्र सेवा दल कलापथकाला नवा आवाज मिळाला.</span><div><span style="font-size: large;"><br />सेवा दलाचे शाहीर आणि कलापथकाचा आवाज एवढीच लीलाधर हेगडे यांची ओळख नाही. महाराष्ट्र दर्शन, शिव दर्शन, भारत दर्शन अशा एका पाठोपाठ एका कलापथकीय कार्यक्रमांमुळे सेवा दलाला देशभर एक नवी ओळख मिळाली. त्या मागचा आवाज अर्थात लीलाधर हेगडे यांचा होता. पण लीलाधर हेगडे यांचं मोठं काम हे की, अस्पृशता निवारण चळवळीत आपलं उमेदीचं आयुष्य त्यांनी झोकून दिलं. भिंगरी लागून गावोगाव फिरले. कैक मंदिरं खुली केली. कधी संघर्ष करावा लागला. कधी नैराश्य आलं. पण डफावरची थाप थांबली नाही.<br /><br />'तुझ्या कामामधून, तुझ्या घामामधून<br />पिकल उद्याचं रान<br />चल उचल हत्यार<br />गड्या होऊन हुशार<br />तुला नव्या जगाची आण'<br /><br />अशा शाहीरीतून कितीतरी सेवा पथकांना हेगडेंनी कार्यप्रवण केलं. त्यांनी अनेक पुस्तकंही लिहली. अण्णा पवार आज शंभरीत आहेत. सिंध प्रंतात सेवा दलाचं काम पोचवणारे अण्णा नंतरच्या पिढीतील सेवा दलाला माहीत नाहीत. चीन युद्धात हे अण्णा पवार भारतीय सेना दलात होते. चीनी सैनिकांशी त्यांनी घनघोर संघर्ष केला. त्यांची कथाच हेगडे यांनी कादंबरीरूपाने लिहून काढली.<br /><br />लीलाधर हेगडे राष्ट्र सेवा दलाचे अध्यक्षही राहिले. तो एका अर्थाने त्यांचा सन्मान होता. लीलाधर हेगडे ठाण्याचे. सेवा दलाच्या पहिल्या शाखेपैकी एक. पालघर जिल्ह्यात आणि कोकणात गावोगावी शाखा उघडण्यात हेगडेंचा मोठा वाटा आहे. सेवा दलाचा इतिहास लिहण्याच्या निमित्ताने त्यांना भेटायला गेलो होतो. शरीर अंथरुणाला खिळलेलं होतं. ९४ वय होतं. त्यांच्या पत्नी सुहासिनी हेगडे आणि मुलगा राजू हेगडे यांनी त्यांना सांगितलं कपिल पाटील आला आहे. मला म्हणाले, 'तुझ्या गावची वरोरची शाखा मी सुरू केली. तुझे वडील हरिश्चंद्र पाटील आणि काका लक्ष्मण पाटील माझ्याच शाखेत होते.' ७० हून अधिक वर्ष झाली असतील. आठवण इतकी लख्ख ताजी. मी विस्मयचकित होऊन पाहतच राहिलो.</span></div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-BYSQ61Y_86I/YXzT9nik0-I/AAAAAAAAH28/plNmHagfM-IXzP5zhapD-VwjJfkekGpyACLcBGAsYHQ/s1080/FB_IMG_1635567259293.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="694" data-original-width="1080" height="412" src="https://1.bp.blogspot.com/-BYSQ61Y_86I/YXzT9nik0-I/AAAAAAAAH28/plNmHagfM-IXzP5zhapD-VwjJfkekGpyACLcBGAsYHQ/w640-h412/FB_IMG_1635567259293.jpg" width="640" /></a></div><br /><span style="font-size: large;"><br />लीलाधर हेगडे यांचे आज सकाळी वृद्धापकाळाने निधन झाले. स्वातंत्र्य चळवळ, साने गुरुजींचा पंढरपूर सत्याग्रह, संयुक्त महाराष्ट्राची चळवळ आणि राष्ट्र सेवा दलाचं कलापथक यातील त्यांचं योगदान मोठं होतं. स्वातंत्र्य, समता आणि मानवता या मूल्यांसाठी निनादणारा लीलाधर हेगडे यांचा आवाज काळाच्या पडद्याआड गेला आहे. मुंबईत सांताक्रूझच्या झोपडपट्टीत साने गुरुजींच्या नावाने त्यांनी उभं केलेलं आरोग्य मंदिर आणि शाळा हे हेगडेंच्या स्मृती अमर करणार आहेत. सारं आयुष्य त्यांनी समाजासाठी दिलं. मृत्यूनंतरही देहदान केलं. <br /><br />शाहीर लीलाधर हेगडे यांना विनम्र श्रद्धांजली!<br />- कपिल पाटील</span><p></p></div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;">३० ऑक्टोबर २०२१</span></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-66444348235188973162021-10-15T20:48:00.001+05:302021-10-15T20:48:45.510+05:30भुजबळ नावाचं वादळ पंचाहत्तरीत<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-OiIejmLK4C4/YWmbRZaI11I/AAAAAAAAH1c/qzPY1ZM2xeY23FhEQ8PstBoxV6LZiR01QCLcBGAsYHQ/s500/bhujbal.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="366" data-original-width="500" height="468" src="https://1.bp.blogspot.com/-OiIejmLK4C4/YWmbRZaI11I/AAAAAAAAH1c/qzPY1ZM2xeY23FhEQ8PstBoxV6LZiR01QCLcBGAsYHQ/w640-h468/bhujbal.jpg" width="640" /></a></div><br /><span style="font-size: large;"><br /><b> छगन भुजबळ</b> नावाचं वादळ पंचाहत्तरीत पोचलं आहे.<br /><br />सत्तेचा अमृतकुंभ कुणाच्याच लेखी नसतो. पण मिळालेल्या सत्तेचा वापर कुणासाठी?<br /><br />या प्रश्नाचं उत्तर भुजबळांनी जेव्हा जेव्हा सत्ता हाती आली, तेव्हा तेव्हा दिलं आहे.<br /><br />भुजबळांच्या वाट्याला तर हलाहल अधिक आलं. न केलेल्या अपराधाची शिक्षा त्यांना भोगावी लागली. मरणाला हात लावून ते परत आले. ती त्यांची विजिगीषू वृत्ती प्रत्येक संघर्षात दिसते.<br /><br />सीमावासियांच्या सत्याग्रहात वेषांतर करून कर्नाटकात शिरण्याचं त्यांनी दाखवलेलं धाडस शिवसेनेचा सर्वात फायर ब्रँड नेता म्हणून त्यांना ओळख देऊन गेलं. पण त्याहून मोठं बंड त्यांनी केलं, ते मंडल आयोगाच्या अंमलबजावणीसाठी. ज्यांच्यावर श्रद्धा आणि निष्ठा आजही आहे, त्या शिवसेनाप्रमुख बाळासाहेब ठाकरे यांची साथ त्यांनी सोडली. ओबीसींच्या संविधानिक अधिकारांना त्यांनी पक्ष निष्ठेपेक्षा अधिक महत्त्व दिलं. मंडल आयोगासाठी त्यांनी देशभर संचार केला. संघर्ष केला. राज्याराज्यात ओबीसींचे मेळावे घेतले. आज देशातील ओबीसींचे ते एक सर्वात मोठे नेते बनले आहेत. आणि जातीनिहाय जनगणनेचे पुढारकर्तेही. <br /><br /><br />मंडल आयोगाच्या अंमलबजावणीचे शिल्पकार आणि ओबीसींचे सर्वांत आदरणीय नेते शरद यादव यांनीच 'ओबीसींची उद्याची आशा आणि एकमेव उमेद' म्हणून छगन भुजबळांचा नुकताच गौरव केला. देशातील ओबीसी चळवळीच्या नेतृत्वाची धुरा शरद यादव यांनी जणू भुजबळांच्या खांद्यावर टाकली. <br /><br />मराठवाडा विद्यापीठाला डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांचं नाव देण्यामध्ये भुजबळांचा वाटा मोठा आहे. नामांतरासाठी बहुजन समाजाच्या मनपरिवर्तनात त्यांनी केलेली कामगिरी कुणीही नाकारणार नाही. <br /><br /><br />भुजबळांबद्दल अनेक अपसमज पसरवले गेले. अपसमजाचे ते अनेकदा शिकार झाले. गांधी विरोधकांना त्यांनी उपरोधाने मारलेला टोला त्यांनाच त्रासदायक ठरला होता. मराठा आरक्षणाला त्यांनी कधीच विरोध केला नाही. मात्र ते करताना कटुता येऊ नये आणि मराठा आरक्षणही सफल व्हावं यासाठी त्यांनी दिलेल्या सूचनांचा गैरअर्थ काढला गेला. <br /><br /><br />ते स्वतःच काल म्हणाले तसं, महाराष्ट्राचे मुख्यमंत्री ते होऊ शकले असते. पण मंडल आयोगाच्या अंमलबजावणीसाठी आणि मराठवाडा विद्यापीठाच्या नामांतरासाठी शरद पवारांनी जी जोखीम उचलली त्याचवेळी भुजबळांनी आपल्या निष्ठा शरद पवारांना वाहिल्या. ज्या मुद्द्यांसाठी त्यांनी सेना सोडली त्यांच मुद्द्यांसाठी त्यांनी शरद पवारांना साथ दिली. आणि त्याच मुद्दयांसाठी मुख्यमंत्री पदाच्या शक्यतेचाही मोह धरला नाही. इतिहासात याची दखल महाराष्ट्राच्या इतिहासाला घ्यावी लागेल. फुले, शाहू, आंबेडकरी चळवळीलाही त्यांच्या या त्यागाची दखल घ्यावी लागेल.<br /><br /><br />छगन भुजबळ यांना वाढदिवसाच्या मनःपूर्वक शुभेच्छा! <br /><br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">आमदार कपिल पाटील</a>, अध्यक्ष, लोक भारती</span>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-26961763026940761932021-10-05T18:53:00.003+05:302021-10-05T19:07:25.366+05:30जागतिक शिक्षक दिन, सरकारला आठवण<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-h6PpJpeWgEg/YVxRW4z9pAI/AAAAAAAAH0Y/-BaL1BpEVr8HdahKSIm8RSfy1_gw43JdACLcBGAsYHQ/s1024/world-teachers-day-1.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="685" data-original-width="1024" height="428" src="https://1.bp.blogspot.com/-h6PpJpeWgEg/YVxRW4z9pAI/AAAAAAAAH0Y/-BaL1BpEVr8HdahKSIm8RSfy1_gw43JdACLcBGAsYHQ/w640-h428/world-teachers-day-1.jpg" width="640" /></a></div><span style="font-size: large;"><br /></span><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><span style="font-size: large;"><b>सारं </b>जग आज (५ ऑक्टोबर) जागतिक शिक्षक दिवस साजरा करत आहे. भारताप्रमाणे अनेक देशात शिक्षक दिन साजरा होतो. प्रत्येकाची तारीख वेगळी असते. भारत आणि महाराष्ट्र सरकार ५ सप्टेंबरला शिक्षक दिन साजरा करतात. शिक्षक भारती, आद्य शिक्षिका सावित्रीबाई फुले (सहशिक्षिका फातिमा बी) यांचा ३ जानेवारी हा जन्मदिवस, शिक्षक दिन म्हणून साजरा करते.<br /><br />शिक्षक दिन आला की सगळ्यांना गुरु ब्रम्हा आठवतो. शिक्षकांना शुभेच्छा दिल्या जातात. UNESCO ने ५ ऑक्टोबरचा जागतिक शिक्षक दिवस केवळ शुभेच्छांसाठी ठरवलेला नाही. १९९४ पासून जगभरच्या १०० देशात हा दिवस साजरा होतो, तो केवळ शिक्षकांच्या प्रति आदर व्यक्त करण्यासाठी नाही.<br /><br />UNESCO, ILO, UNICEF आणि Education International यांच्या संयुक्त निवेदनात म्हटलं आहे, ''On World Teachers’ Day, we are not only celebrating every teacher. We are calling on countries to invest in them and prioritize them in global education recovery efforts so that every learner has access to a qualified and supported teacher. Let’s stand with our teachers!''<br /><br />यावर्षीची थीम आहे, 'Teachers at the heart of education recovery.' कोविडच्या अत्यंत कठीण काळात शिक्षकांनी शिक्षण पोचवण्यासाठी जो महाप्रयास केला त्याचं कौतुक करणं आणि त्याला मान्यता देणं, हा त्यामागील उद्देश आहे. शिक्षकांचं वेतन, त्यांचा दर्जा, त्यांची प्रतिष्ठा याकडे यानिमित्ताने लक्ष वेधलं जावं. उच्च अर्हता, क्षमता आणि प्रेरित शिक्षक समाजाला मिळावेत अशी UNESCO ची अपेक्षा आहे.<br /><br />आपल्याकडे आपत्ती असो, कोविड असो किंवा जनगणना असो. निवडणुका, सर्व प्रकारची सर्वेक्षणं अगदी प्राण्यांची गणना असली तरी शिक्षकांना कामाला जुंपलं जातं. कोविडची ड्युटी करताना किती शिक्षकांनी प्राण आहुती दिली. अजूनही त्यांच्या कुटुंबियांना मदत मिळालेली नाही. त्याची किंमत न करता शिक्षक जणू फुकट पगार खातात अशी भाषा केली जाते, तेव्हा दुःख होतं.<br /><br />शिक्षकांना २०टक्के पगार द्यायचा की ४० टक्के पगार द्यायचा, घोषित करायचं की अघोषित करायचं याचा काथ्याकुट वित्त विभाग करतं तेव्हा दुःख होतं. शिक्षण सेवक, नवीन शिक्षक भरती, जुनी पेन्शन, रात्रशाळा, वेळेवर पगार, अतिरिक्त शिक्षक समायोजन, शिक्षक बदली, अर्धवेळ शिक्षक, आयटी शिक्षक, अंगणवाडी ताई यातल्या शोषणावर सरकार बोलायला तयार नाही. आता भरीस भर केंद्र सरकारचं नवीन शिक्षण धोरण येतंय.<br /><br />आपल्या बजेटमध्ये पूर्वी आरोग्यावर जीडीपीच्या अर्धा टक्के खर्च होत असे आणि शिक्षणावर अडीच टक्के. कोविडमुळे आरोग्य सुधारणा होऊ लागल्या आहेत. पण आरोग्य सेवकांचं शोषण मात्र थांबलेलं नाही. तीच स्थिती शिक्षणाची आणि शिक्षकांची. त्यात सुधारणा व्हावी हीच या जागतिक शिक्षक दिनाच्या निमित्त अपेक्षा. आणि शिक्षकांना शुभेच्छा!<br /><br /><br />- <a href="https://www.facebook.com/KapilHPatil" target="_blank">कपिल पाटील</a><br /><br />सेव्हन हिल्स हॉस्पिटल, मुंबई <br />दि. ०५ ऑक्टोबर २०२१</span><div><br /></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-2182858254546388054.post-90128771013508360012021-08-30T14:46:00.003+05:302021-08-30T14:57:25.811+05:30कृष्ण प्रेम <p><span face="Arial, Helvetica, sans-serif" style="background-color: white; color: #222222;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-WJU8yyZVBeA/YSyhuZDwotI/AAAAAAAAHwY/C7Ql0bcVlBsNZQCaby2xxAKEG_skKiywgCLcBGAsYHQ/s599/FB_IMG_1630307386484.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="599" data-original-width="512" height="640" src="https://1.bp.blogspot.com/-WJU8yyZVBeA/YSyhuZDwotI/AAAAAAAAHwY/C7Ql0bcVlBsNZQCaby2xxAKEG_skKiywgCLcBGAsYHQ/w548-h640/FB_IMG_1630307386484.jpg" width="548" /></a></div><br /><span style="font-size: large;"><br /></span><p></p><p><span face="Arial, Helvetica, sans-serif" style="background-color: white; color: #222222;"><span style="font-size: large;"><b>आज</b> गोकुळाष्टमी. कोरोनाच्या पार्श्वभूमीवर साधेपणाने देशभर कृष्ण जयंती साजरी होते आहे. त्या कृष्णाचं आणि मथुरेचं मनोवेधक वर्णन मौलाना हसरत मोहानी यांनी अत्यंत प्रेमाने केलं आहे. उठसूट हिंदू मुसलमान करणाऱ्या दोन्ही बाजूंच्या डोळ्यात अंजन घालील आणि दोघांच्याही हृदयात प्रेम जागवील अशी मूळ उर्दूतली ही नज़्म आहे. प्रख्यात विचारवंत, सामाजिक कार्यकर्ते Shamsul Islam यांनी मला ती आवर्जून पाठवली होती. आपल्या सर्वांसाठी मी ती पुन्हा शेअर करतो आहे. </span></span></p><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">- कपिल पाटील</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">------------------------------</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">ON JANMASHTAMI </span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">Hindutva and Islamist zealots who believe that India has been a battle ground for Hindus & Muslims must be disappointed by the following poem.</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">जन्माष्टमी पर</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">हिन्दू और मुसलमान कट्टरपंथी जो हमारे देश को हिन्दू और मुसलमानों के बीच एक मैदान-ए-जंग मानते हैं उन्हें यह नज़्म पढ़ कर यक़ीनन दुःख होगा! </span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">Maulana Hasrat Mohani's love for Krishna (original Urdu poem with Hindi & English translation)</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">Maulana Hasrat Mohani (1875-1951) was a renowned literary figure, politician, freedom fighter and an Islamic scholar. He coined the war-cry of the freedom struggle INQUILAB ZINDABAD (LONG LIVE REVOLUTION) which was popularized by martyrs like Bhagat Singh. He revered Krishna greatly. His one Urdu poem in praise of Krishna is reproduced here. </span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">मौलाना हसरत मोहानी का कृष्ण प्रेम (मूल उर्दू नज़्म हिंदी और अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ)</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">मौलाना हसरत मोहानी (1875-1951) एक प्रसिद्द मौलवी और स्वतंत्रता सेनानी थे । यह मौलाना हसरत मोहानी ही थे जिन्हों ने आज़ादी की जंग को लोकप्रिय नारा 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' दिया जिसे भगत सिंह जैसे महान शहीदों ने लगातार बुलंद करके अमर कर दिया। वे दूसरे धर्म के देवी-देवताओं का भी सम्मान करते थे। कृष्ण के प्रति उनका प्रेम अद्भुत व असीम है। इसी प्रेम का प्रदर्शन उनकी इस लाजवाब नज़्म में मिलता है ।</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">मूल उर्दू नज़्म: </span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">:</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: start;"><span style="font-size: large;">متھرا کا نگر ہے عاشقی کا</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: start;"><span style="font-size: large;">دم بھرتی ہے آرزو اُسی کا</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: start;"><span style="font-size: large;">ہر ذرہ سر زمینِ گوکُل</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: start;"><span style="font-size: large;">دعویٰ ہے جمالِ دلبری کا</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: start;"><span style="font-size: large;">برسانا و نندگاوں میں بھی</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: start;"><span style="font-size: large;">دیکھ آئے ہیں جلوہ ہم کسی کا</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"> </span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: start;"><span style="font-size: large;">پیغامِ حیاتِ جاوِداں تھا</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: start;"><span style="font-size: large;">ہر نغمہ کرشن کی بانسری کا</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"> </span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: start;"><span style="font-size: large;">وہ نورِسیاہ تھا کہ حسرت</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: start;"><span style="font-size: large;"> سرچشمہ فروغِ آگہی کا</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"> </span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">हिंदी अनुवाद:</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">मथुरा का नगर है आशिक़ी का</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">दम भरती है आरज़ू उसी का</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">हर ज़र्रा[i] सरज़मीन-ए-गोकुल</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">दावा है जमाल-ए-दिलबरी[ii] का</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">बरसाना व नंदगांव में भी</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">देख आए हैं जलवा हम किसी का</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">पैग़ाम-ए-हयात-ए-जाविदां[iii] था</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">हर नग़मा[iv] कृष्ण की बांसुरी का</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">वह नूर-ए-स्याह[v] था कि हसरत</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">सरचश्मा फरोग़-ए-आगही[vi] का</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">[i. ज़र्रा=कण. ii. जमाल-ए-दिलबरी=प्रेमी का सौंदर्य. iii. पैग़ाम-ए-हयात-ए-जाविदां=जीवन अमर होने का संदेश. iv. नग़मा= गीत. v. नूर-ए-स्याह=कलिमा की ज्योति. vi.सरचश्मा फ़रोग़-ए-आगही का=जानकारी का स्रोत]</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">English translation:</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">Mathura--the place of love, Intense desire always dies for, Every particle of Gokul Land, Is a trustee of my land,</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">In Barsana & Nandgaon, We have seen the spledour of someone,</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">Every melody of Krishna's flute, Was a message of Eternal Life,</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">Though he was black light, Was a source of knowledge-rays! </span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;">Translations by SAJJAD HUSAINI.</span></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span style="font-size: large;"><br /></span></div>Kapil Patilhttp://www.blogger.com/profile/10267057448653271927noreply@blogger.com1