विधायक कपिल पाटील का प्रकाश जी जावडेकर को पत्र
दिनांक : २१/०२/२०१८
प्रति,
माननीय श्री. प्रकाश जी जावडेकर
मानव संसाधन विकास मंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली
महोदय,
आज २१ फरवरी अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिन है। पूरी दुनिया हर्षोल्लास के साथ अपनी मातृ भाषा का जश्न मना रही है। परंतु बडे खेद के साथ मैं यह पत्र आपको भेज रहा हूं। देश की राजभाषा हिंदी समेत हर प्रदेश की भाषा संकट में है। ICSE बोर्ड के स्कूलों में विदेशी भाषाओं के प्रभाव से हमारी मातृ भाषाओं को दूर रखने की पुरजोर कोशिश हो रही है।
हिंदी केवल राजभाषा नही हमारी एक पहचान है। महात्मा गांधी के विचारो में हिंदी राष्ट्रगंगा है। भारत की हर भाषा इस देश की पहचान है। हर भाषा हमारी राष्ट्रभाषा है। यदि इस कथन का गहराई से विश्लेषण किया जाए तो कई तथ्य हमारे सामने आएंगे। किसी भी देश की भाषा उसकी संस्कृति से जुडी होती है। भारत के हर प्रदेश की भाषा को केवल प्रादेशिक भाषा के रुप में नही पहचाना जा सकता। हर प्रदेश की भाषा हमारी राष्ट्रभाषा है। हिंदी के साथ इन सभी भारतीय भाषाओं ने चाहे वह मराठी, उर्दू, गुजराती, तमिल, मल्यालम, तेलगू, कन्नड, कश्मीरी, पंजाबी, बांग्ला, आसामी, उडिया हो या ईशान्य भारत की कई भाषाएँ हो, इस देश की संस्कृति को समृद्ध किया है। भारत एक विशाल देश है। हर प्रदेश की भाषा जरूर अलग है। मगर इन्ही भारतीय भाषाओं से मिलकर इस देश की संस्कृति का गुलिस्ताँ खिला है। कहा जाता है कि यदि किसी देश की संस्कृति पर हमला करना है तो सबसे पहले उसकी भाषा छीन लेनी चाहिए। वर्तमान संकट कोई बाहर से नही, अंदर से है। संकट हिंदी पर है, और सभी प्रदेश की भारतीय भाषाओं पर है। हमला आयसीएसई बोर्ड ने किया है। आयसीएसई बोर्ड से संलग्न दो हजार से जादा स्कूल देश में है। वहाँ पढनेवाले छात्रों की संख्या लाखो में है। विदेशी भाषाओं का विकल्प दे कर आयसीएसई बोर्ड ने हिंदी तथा अन्य प्रदेश भाषाओं का अस्तित्व ही संकट में डाल दिया है।
हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में १४ सितम्बर सन १९४९ को स्वीकार किया गया। संविधान मे अनुच्छेद ३४३ से ३५१ तक हिंदी को राजभाषा के संबंध में व्यवस्था की गयी है। उसे अपनाने और उसे सम्मान देने की बात की गई है। इसे अहिंदीभाषी महापुरुषों ने आगे बढाया। इसके लिए चाहे महात्मा गांधी की बात की जाय, आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती की बात की जाय, राजगोपालाचार्य अथवा नेताजी सुभाषचंद्र बोस सहित अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की बात की जाय। सबने एक स्वर में हिंदी के महत्त्व को स्वीकर ही नहीं किया बल्कि इसके प्रचार-प्रसार में अपना जीवन खपा दिया। देश को स्वतंत्र कराने में हिंदी भाषा का कितना योगदान रहा है, यह किसी से छिपा नही है। उसी समय हिंदी ने सिद्ध किया था कि अगर भारतीयों को कोई भाषा एक सूत्र में बांध सकती है तो वह भाषा हिंदी ही है।
वर्तमान सरकार कहती है की, हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए वह संकल्पबद्ध है। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद हिंदी में भाषण करते है। मगर केंद्र सरकार संचलित शैक्षणिक बोर्ड इस भाषा के पंख कतरने में कोई कोताही नहीं बरत रहे हैं। वर्तमान समय में अंतर्राष्ट्रीय बोर्डो सहित देश में कुल ५३ बोर्ड सक्रिय हैं। लगभग सभी बोर्डो ने त्रिभाषा सूत्र (फार्मूला ऑफ थ्री लैंग्वजेंस) को अपनाया है। सभी बोर्डो में हिंदी का शिक्षण कार्य अबाध गति से चल रहा है। किंतु यह बडे दुर्भाग्य की बात है कि भारत में संचालित होने वाला एक केंद्रीय बोर्ड जिसे आयसीएसई के नाम से जाना जाता है, उसने हिंदी समेत सभी प्रदेशिक भाषाओं की दुर्गति कर दी है। इन भाषाओं के समकक्ष कुछ विदेशी भाषाओं को विकल्प के तौर पर सामने ला दिया है। इसे समझने के लिए आयसीएसई बोर्ड में हिंदी की पूर्व स्थिति की पडताल जरुरी है।
हिंदी तथा प्रादेशिक भाषाओं की पूर्व स्थिति
आयसीएसई बोर्ड में अंग्रेजी को प्रथम भाषा के रुप में रखा गया है जो अनिवार्य होती है। द्वितीय भाषा के रुप में हिंदी सहित देश की अन्य भाषाओंको एक साथ रखा गया। मतलब, यदि छात्र हिंदी की जगह संस्कृत, उर्दू, उडिया, मराठी, बांग्ला, कन्नड, तमिल इत्यादि किसी भी भारतीय भाषा का चयन करना चाहता है तो कर सकता है। ऐसा दशकों से चला आ रहा था। पाठ्यक्रम में फ्रेंच को भी रखा गया था लेकिन उस भाषा के चयन हेतु बोर्ड ने ग्रीन कार्ड सहित अन्य तमाम शर्तो को रखा था। उन शर्तो को पूरा करने के बाद ही छात्र हिंदी व अन्य प्रदेशिक भाषा के स्थान पर फ्रेंच भाषा ले सकता था। इस नीति के कारण हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं की संप्रभुता बरकरार थी।
बोर्ड में भारतीय भाषाओंकी वर्तमान स्थिति
बोर्ड की भाषा संबन्धी गलत व अव्यवहारिक नीतियों के कारण हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ संकट में है। आयसीएसई बोर्ड ने हिंदी और प्रदेशिक भाषाओं के सामने फ्रेंच सहित कई दूसरी विदेशी भाषाओं को विकल्प के तौर पर पेश कर दिया है। इससे अभिभावक शौक वश अपने बच्चों के लिए विदेशी भाषाओं का चुनाव कर रहै हैं। इस प्रकार का क्षणिक आकर्षण देश की अस्मिता पर भारी पड रहा है। हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ इस प्रकार का खिलवाड दुखद है। इसके लिए जितनी भी भर्त्सना की जाय, कम है। इस संदर्भ में सरकार को तुरंत संज्ञान लेना चाहिए। काैसिंल की भाषा संबन्धी इस नीति के कारण शिक्षकों के समक्ष जो रोजी-रोटी का प्रश्न पैदा हुआ सो अलग।
भारतीय भाषाओं का सम्मान करे
हमें किसी भी विदेशी भाषा से कोई दुराव नही है किंतु यदि आयसीएसई बोर्ड अपने पाठ्यक्रम में विदेशी भाषाओं को पहले ग्रुप में हिंदी व अन्य प्रदेशिक भाषाओं का पर्याय न रखकर अपनी पहिली वाली पाठ्यक्रम की 'भाषा-नीति' बहाल करे या त्रिभाषा सूत्र नीति अपनाकर उसमें फ्रेंच व अन्य विदेशी भाषाओं को स्थान दे या फ्रेंच सहित अन्य विदेशी भाषाओंको मात्र तीसरे ग्रुप (एप्लीकेशंस विषय-ग्रुप) में रखे तो समस्या सुलझ जाएगी। इससे भारतीय भाषाओंका सम्मान बढेगा और इच्छुक छात्र फ्रेंच सहित दूसरी विदेशी भाषाओं का चयन बिना किसी संकोच के कर सकेंगे।
आपका भवदीय,
कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद
kapilhpatil@gmail.com
दिनांक : २१/०२/२०१८
प्रति,
माननीय श्री. प्रकाश जी जावडेकर
मानव संसाधन विकास मंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली
महोदय,
आज २१ फरवरी अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिन है। पूरी दुनिया हर्षोल्लास के साथ अपनी मातृ भाषा का जश्न मना रही है। परंतु बडे खेद के साथ मैं यह पत्र आपको भेज रहा हूं। देश की राजभाषा हिंदी समेत हर प्रदेश की भाषा संकट में है। ICSE बोर्ड के स्कूलों में विदेशी भाषाओं के प्रभाव से हमारी मातृ भाषाओं को दूर रखने की पुरजोर कोशिश हो रही है।
हिंदी केवल राजभाषा नही हमारी एक पहचान है। महात्मा गांधी के विचारो में हिंदी राष्ट्रगंगा है। भारत की हर भाषा इस देश की पहचान है। हर भाषा हमारी राष्ट्रभाषा है। यदि इस कथन का गहराई से विश्लेषण किया जाए तो कई तथ्य हमारे सामने आएंगे। किसी भी देश की भाषा उसकी संस्कृति से जुडी होती है। भारत के हर प्रदेश की भाषा को केवल प्रादेशिक भाषा के रुप में नही पहचाना जा सकता। हर प्रदेश की भाषा हमारी राष्ट्रभाषा है। हिंदी के साथ इन सभी भारतीय भाषाओं ने चाहे वह मराठी, उर्दू, गुजराती, तमिल, मल्यालम, तेलगू, कन्नड, कश्मीरी, पंजाबी, बांग्ला, आसामी, उडिया हो या ईशान्य भारत की कई भाषाएँ हो, इस देश की संस्कृति को समृद्ध किया है। भारत एक विशाल देश है। हर प्रदेश की भाषा जरूर अलग है। मगर इन्ही भारतीय भाषाओं से मिलकर इस देश की संस्कृति का गुलिस्ताँ खिला है। कहा जाता है कि यदि किसी देश की संस्कृति पर हमला करना है तो सबसे पहले उसकी भाषा छीन लेनी चाहिए। वर्तमान संकट कोई बाहर से नही, अंदर से है। संकट हिंदी पर है, और सभी प्रदेश की भारतीय भाषाओं पर है। हमला आयसीएसई बोर्ड ने किया है। आयसीएसई बोर्ड से संलग्न दो हजार से जादा स्कूल देश में है। वहाँ पढनेवाले छात्रों की संख्या लाखो में है। विदेशी भाषाओं का विकल्प दे कर आयसीएसई बोर्ड ने हिंदी तथा अन्य प्रदेश भाषाओं का अस्तित्व ही संकट में डाल दिया है।
हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में १४ सितम्बर सन १९४९ को स्वीकार किया गया। संविधान मे अनुच्छेद ३४३ से ३५१ तक हिंदी को राजभाषा के संबंध में व्यवस्था की गयी है। उसे अपनाने और उसे सम्मान देने की बात की गई है। इसे अहिंदीभाषी महापुरुषों ने आगे बढाया। इसके लिए चाहे महात्मा गांधी की बात की जाय, आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती की बात की जाय, राजगोपालाचार्य अथवा नेताजी सुभाषचंद्र बोस सहित अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की बात की जाय। सबने एक स्वर में हिंदी के महत्त्व को स्वीकर ही नहीं किया बल्कि इसके प्रचार-प्रसार में अपना जीवन खपा दिया। देश को स्वतंत्र कराने में हिंदी भाषा का कितना योगदान रहा है, यह किसी से छिपा नही है। उसी समय हिंदी ने सिद्ध किया था कि अगर भारतीयों को कोई भाषा एक सूत्र में बांध सकती है तो वह भाषा हिंदी ही है।
वर्तमान सरकार कहती है की, हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए वह संकल्पबद्ध है। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद हिंदी में भाषण करते है। मगर केंद्र सरकार संचलित शैक्षणिक बोर्ड इस भाषा के पंख कतरने में कोई कोताही नहीं बरत रहे हैं। वर्तमान समय में अंतर्राष्ट्रीय बोर्डो सहित देश में कुल ५३ बोर्ड सक्रिय हैं। लगभग सभी बोर्डो ने त्रिभाषा सूत्र (फार्मूला ऑफ थ्री लैंग्वजेंस) को अपनाया है। सभी बोर्डो में हिंदी का शिक्षण कार्य अबाध गति से चल रहा है। किंतु यह बडे दुर्भाग्य की बात है कि भारत में संचालित होने वाला एक केंद्रीय बोर्ड जिसे आयसीएसई के नाम से जाना जाता है, उसने हिंदी समेत सभी प्रदेशिक भाषाओं की दुर्गति कर दी है। इन भाषाओं के समकक्ष कुछ विदेशी भाषाओं को विकल्प के तौर पर सामने ला दिया है। इसे समझने के लिए आयसीएसई बोर्ड में हिंदी की पूर्व स्थिति की पडताल जरुरी है।
हिंदी तथा प्रादेशिक भाषाओं की पूर्व स्थिति
आयसीएसई बोर्ड में अंग्रेजी को प्रथम भाषा के रुप में रखा गया है जो अनिवार्य होती है। द्वितीय भाषा के रुप में हिंदी सहित देश की अन्य भाषाओंको एक साथ रखा गया। मतलब, यदि छात्र हिंदी की जगह संस्कृत, उर्दू, उडिया, मराठी, बांग्ला, कन्नड, तमिल इत्यादि किसी भी भारतीय भाषा का चयन करना चाहता है तो कर सकता है। ऐसा दशकों से चला आ रहा था। पाठ्यक्रम में फ्रेंच को भी रखा गया था लेकिन उस भाषा के चयन हेतु बोर्ड ने ग्रीन कार्ड सहित अन्य तमाम शर्तो को रखा था। उन शर्तो को पूरा करने के बाद ही छात्र हिंदी व अन्य प्रदेशिक भाषा के स्थान पर फ्रेंच भाषा ले सकता था। इस नीति के कारण हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं की संप्रभुता बरकरार थी।
बोर्ड में भारतीय भाषाओंकी वर्तमान स्थिति
बोर्ड की भाषा संबन्धी गलत व अव्यवहारिक नीतियों के कारण हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ संकट में है। आयसीएसई बोर्ड ने हिंदी और प्रदेशिक भाषाओं के सामने फ्रेंच सहित कई दूसरी विदेशी भाषाओं को विकल्प के तौर पर पेश कर दिया है। इससे अभिभावक शौक वश अपने बच्चों के लिए विदेशी भाषाओं का चुनाव कर रहै हैं। इस प्रकार का क्षणिक आकर्षण देश की अस्मिता पर भारी पड रहा है। हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ इस प्रकार का खिलवाड दुखद है। इसके लिए जितनी भी भर्त्सना की जाय, कम है। इस संदर्भ में सरकार को तुरंत संज्ञान लेना चाहिए। काैसिंल की भाषा संबन्धी इस नीति के कारण शिक्षकों के समक्ष जो रोजी-रोटी का प्रश्न पैदा हुआ सो अलग।
भारतीय भाषाओं का सम्मान करे
हमें किसी भी विदेशी भाषा से कोई दुराव नही है किंतु यदि आयसीएसई बोर्ड अपने पाठ्यक्रम में विदेशी भाषाओं को पहले ग्रुप में हिंदी व अन्य प्रदेशिक भाषाओं का पर्याय न रखकर अपनी पहिली वाली पाठ्यक्रम की 'भाषा-नीति' बहाल करे या त्रिभाषा सूत्र नीति अपनाकर उसमें फ्रेंच व अन्य विदेशी भाषाओं को स्थान दे या फ्रेंच सहित अन्य विदेशी भाषाओंको मात्र तीसरे ग्रुप (एप्लीकेशंस विषय-ग्रुप) में रखे तो समस्या सुलझ जाएगी। इससे भारतीय भाषाओंका सम्मान बढेगा और इच्छुक छात्र फ्रेंच सहित दूसरी विदेशी भाषाओं का चयन बिना किसी संकोच के कर सकेंगे।
आपका भवदीय,
कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद
kapilhpatil@gmail.com