Tuesday 23 January 2024

कर्पूरी की वेदना, नीतीश का मरहम




मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुआ था वो लड़का। नाई समाज का पहला शिक्षित लड़का था। घर में घनघोर गरीबी थी। बेटे की उपलब्धि से पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे बेटे को उस गाँव के सबसे पढ़े-लिखे और ऊंची जाति के मुखिया के पास ले गए। 'मेरा बेटा फर्स्ट क्लास आया है। इसे और आगे बढ़ना है। आप इसे आशीर्वाद दीजिए।'

'फर्स्ट क्लास आया तो मैं क्या करूं? पहले मेरे पैर दबाओ।'

अपमान और वेदना की उस घटना से कर्पूरी ठाकुर के मन को गहरी चोट पहुंची।

वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उस चोट ने कभी प्रतिशोध का रूप नहीं लिया। अपमान का वो दर्द उनके संकल्प को और मजबूत करता गया।

बिहार के पिछड़े और अति पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के लिए, उनके उत्थान के लिए फैसले लेने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। छोटी-छोटी पिछड़ी जातियों के समूहों को उन्होंने न्याय दिलाने का प्रयास किया। उनके निर्णय आरक्षण और रियायतों तक ही सीमित नहीं थे। उन्होंने बिहार में पिछड़े वर्ग का नया नेतृत्व तैयार किया। जब उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा, तब उनके नाम पर कोई मकान तक नहीं था। उनका परिवार लोगों के बाल काटकर अपना जीवन यापन करता था।

कर्पूरी ठाकुर जब कॉलेज में थे तो एआईएसएफ में थे। उस समय का समस्त युवा वर्ग शोषण और असमानता के विरुद्ध मार्क्स के दर्शन से प्रभावित था। लेकिन भारतीय मार्क्सवादी आंदोलन में उन्हें जाति के सवालों का जवाब नहीं मिला, इसलिए उनका झुकाव समाजवादी आंदोलन की ओर हो गया। डॉ. राम मनोहर लोहिया की जाति नीति से आंबेडकरवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। डॉ. राम मनोहर लोहिया और एसएम जोशी दोनों समाजवादी थे जो महात्मा गांधी को अपना नेता मानते थे। इस समाजवादी नेतृत्व को साथ लेकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। आंबेडकर खुद को समाजवादी कहते थे। महाराष्ट्र के समाजवादी नेता और कार्यकर्ता पहले ही महाड और पर्वती के सत्याग्रह में शामिल हो चुके थे। अगर कर्पूरी ठाकुर ने समाजवादी रास्ता नहीं चुना होता तो आश्चर्य होता।

डॉ. राम मनोहर लोहिया के मंत्र 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' ने उत्तर भारत की राजनीति में हलचल मचा दी। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ओबीसी जातियों से नए नेतृत्व का उदय हुआ। स्वयं ओजस्वी तेज के साथ। बिहार समाजवाद की प्रयोगशाला बन गयी।

बिहार में वैचारिक निष्ठा से राजनीति करने वाले लोगों की बड़ी संख्या थी और अब भी है। गांधी-अंबेडकर और लोहिया-जयप्रकाश का सम्मान करने वाले ये समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर का भी उतना ही सम्मान करते हैं। कर्पूरी ठाकुर को शायद लोहिया, जयप्रकाश की तरह एक दार्शनिक के तौर पर नहीं जाना जाता। हालाँकि, वह पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने राजनीतिक शक्ति के माध्यम से अपनी वैचारिक निष्ठा का आविष्कार किया। सामाजिक न्याय के लिए अपनी सत्ता का त्याग करने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। राजनीति में त्याग और बलिदान का महत्व शायद कम हो गया हो। लेकिन इसका सबसे पहला उदाहरण कर्पूरी ठाकुर ही हैं।

पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने के दृढ़ निश्चय के कारण कर्पूरी ठाकुर को सत्ता का त्याग करना पडा था। मुंगेरीलाल कमेटी की सिफारिश पर वे सवर्णों के कमजोर लोगों को भी न्याय दिलाने वाले थे। इसके बावजूद कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।

कर्पूरी ठाकुर ने कभी भी ऊंची जातियों से नफरत के कारण कोई कदम नहीं उठाया। ऊंची जातियों में जो गरीब वर्ग है उनका पक्ष उन्होंने हमेशा लिया। उन्होंने सामाजिक न्याय के मुद्दे पर जोर दिया। फिर भी कर्पूरी ठाकुर को पद छोड़ना पड़ा। उनके उस बलिदान से बिहार में बड़ी संख्या में वंचित, पीड़ित और शोषित लोगों में जागरूकता आई। इसी जागरूकता को साथ लेकर नीतीश कुमार ने यह दूसरा बड़ा प्रयोग शुरू किया है। उनका पहला प्रयोग अति पिछड़ों को न्याय दिलाना था। इसमें वे बेहद सफल रहे। नीतीश कुमार देश के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पिछड़ों, दलितों और सभी समुदायों की महिलाओं को समान भागीदारी देने का फैसला किया। इससे बिहार में एक मजबूत किलेबंदी का निर्माण किया गया। 'न्याय' के इस किलेबंदी को विरोधी कभी भेद नहीं पाए। नीतीश कुमार ऊंची जातियों के गरीबों को भी हमेशा साथ देते है, इसपर बिहार का विश्वास हैं।

एक और समानता कर्पूरी ठाकुर और नीतीश कुमार के बीच है। बेदाग राजनीतिक जीवन। त्यागशील समर्पित निजी जीवन। सामाजिक न्याय और समाजवाद के प्रति अटूट प्रतिबद्धता। विचार की इस निष्ठा को कर्म में आविष्कृत करने का दर्शन। दर्शन केवल भाषाई शब्दावली होने से काम नहीं आता। वास्तविक मात्रा की प्रभावशीलता आवश्यक है। इसे साबित करने वाले नीतीश कुमार देश के एकमात्र नेता हैं।

चाहे वह सीएए, एनआरसी या जातीय जनगणना या आरक्षण का सवाल हो। नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय और मेल-मिलाप से कभी समझौता नहीं किया। धार्मिक नफरत को बढ़ावा देकर देश की एकता को तोड़ने का हर संभव प्रयास हो रहा है। मगर बिहार धार्मिक सदभावना का मिसाल बना हुआ है।

जातीय जनगणना का मामला बिहार तक ही सीमित नहीं है। यह देश के सभी राज्यों के लिए एक अहम मुद्दा है। ये राजनीति नहीं, सामाजिक न्याय का मुद्दा है। नीतीश कुमार ने बिहार मॉडल से जाति व्यवस्था, महिला दासता, भेदभाव, असमानता, गरीबी और शोषण से मुक्ति का एजेंडा रखा है। इसके माध्यम से वंचित समूहों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। यह कर्पूरी मार्ग है।

कर्पूरी शताब्दी पर उन्हें स्मरण करने और उनका अभिवादन करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? कर्पूरी ठाकूर ने बचपन में जो मानसिक वेदना व प्रताड़ना सहन की, वह देश के करोडो वंचित, पीडित, शोषितों की वेदना है। नीतीश कुमार का हर प्रयास उन वेदनाओं का अंत करने के लिए है। वह केवल मरहम नही लगाते, नई पिढी की उम्मीद और भविष्य के दरवाजे भी खोल देते है। नीतीश कुमार और बिहार सरकार द्वारा स्वीकार किए गए इस मार्ग का पूरा देश इंतजार कर रहा है।

- कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद
राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड)
kapilhpatil@gmail.com