Friday 8 March 2024

महिला दिनानिमित्ताने मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, शिक्षणमंत्री यांना खुले पत्र -



प्रति,
मा. ना. श्री. एकनाथ शिंदे
मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र राज्य

मा. ना. श्री. देवेंद्र फडणवीस
उपमुख्यमंत्री, महाराष्ट्र राज्य

मा. ना. श्री. अजित पवार
उपमुख्यमंत्री, महाराष्ट्र राज्य

मा. ना. श्री. दीपक केसरकर
शिक्षणमंत्री, महाराष्ट्र राज्य


विषय : महिला दिना निमित्ताने काही मागण्या...  

महोदय,
सर्वप्रथम महिला दिनाच्या आणि महाशिवरात्रीच्या हार्दिक शुभेच्छा!
हे दोन्ही विशेष दिवस यंदा एकाच वेळी आले आहेत.

शिव – पार्वतीचं भारतीय मिथक हे डॉ. राममनोहर लोहिया म्हणतात तसं, भारताच्या अतूट आणि विलक्षण एकजुटीचं प्रतीक आहे. पार्वतीच्या वियोगानंतर धरती हादरवून सोडणारं तांडव करणारा शिवशंकर जगातल्या कोणत्याच मिथकात नाही.

भक्ताने पार्वतीची पूजा नाकारली म्हणून अर्ध नरनारी नटेश्वराचं रूप धारण करणारा शिव या देशात पुजला जातो. त्या देशाचं अर्धांग, आधी आबादी उपेक्षित, वंचित आणि पीडित आहे आजही. त्यांना बरोबरीचा हिस्सा आणि प्रतिष्ठित कामही द्यायला आपण तयार नाही आहोत अजून.

महाराष्ट्रात वेगळी स्थिती नाही. स्त्री श्रम शक्तीचं प्रमाण 22 टक्क्यांवरुन 32 टक्क्यांवर आलं आहे. पण त्यांना बरोबरीचं वेतन नाही. प्रतिष्ठित जीवन वेतन तर दूर, किमान वेतनही नाही. स्त्री श्रम शक्तीचा बहुतांश हिस्सा अप्रतिष्ठित श्रमाचा भाग बनून राहिला आहे.

संत मुक्ताई, राजमाता जिजाऊ, लोकमाता अहिल्या, महाराणी ताराराणी, राणी चांदबीबी, क्रांतीज्योती सावित्रीबाई, ज्ञानज्योती फातीमा बी, माता रमाई, कवयित्री बहिणाबाई, डॉ. रखमाबाई, ताराबाई शिंदे ते थेट शारदाबाई पवार, मृणालताई गोरे, स्मिता पाटील अशी मोठी परंपरा आहे महाराष्ट्रात. पण सरकारी, निमसरकारी आणि स्थानिक प्रशासनात स्त्रीचा वाटा नगण्य आहे.

मंत्रीमंडळात अदिती तटकरे नावाने उशिरा का होईना किमान एक स्त्री तरी आली. आमच्या या छोट्या बहिणीने आईचं नाव लावण्याची सक्ती करणारा निर्णय घेतला आहे. त्याचं जरूर स्वागत पण शासनाचा गाडा ज्यांच्या खांद्यावरुन वाहिला जातो आहे त्यातल्या शेवटच्या पायरीवर 3.50 लाख महिला कर्मचारी आहेत. अंगणवाडी ताई, आशा वर्कर्स, मदतनीस, मिड डे मिल तयार करणाऱ्या ताई, आरोग्य कर्मचारी आणि विनाअनुदानित खाजगी संस्थांमधले शिक्षक यांना वेतन मिळत नाही. मानधन मिळते जे लाजिरवाणे आहे.

महात्मा फुले यांनी म्हटलं होतं,

स्त्री पुरुष सर्व कष्टकरी व्हावे। कुटुंबा पोसावे आनंदाने॥

आत्महत्याग्रस्त लाखो शेतकऱ्यांच्या कुटुंबातील विधवांना कुणाचाच आधार नाही. त्या कुटुंबात आनंद कोण पेरणार ? केवळ आनंदाचा शिधा वाटून जबाबदारी झटकता येणार नाही.

आजच्या जागतिक महिला दिनी आपणापुढे काही मागण्या करत आहे,

1) शिक्षक आणि पोलीस भरती यामध्ये महिलांसाठी 50 टक्के आरक्षण ठेवावे.

2) उर्वरित सरकारी नोकऱ्यांमध्ये महिलांसाठी किमान 33 टक्के आरक्षण ठेवावे.

3) अंगणवाडी, आशा वर्कर्स यांना मानधन नको सन्मानपूर्वक जीवन वेतन द्यावे.

4) सर्व Unaided खाजगी संस्था, कस्तुरबा गांधी विद्यालय, अल्पसंख्याक विभाग आणि कंत्राटी कर्मचारी यातील सर्व शिक्षक व कर्मचारी यांना पूर्ण वेतन द्यावे.

5) आत्महत्याग्रस्त शेतकऱ्यांच्या विधवा पत्नी आणि एकल स्त्रीया यांना पेन्शन द्यावे. त्यांच्या मुला – मुलींना सर्व शिक्षण मोफत करावे.

6) खाजगी विद्यापीठ व संस्थांमध्ये प्रवेश घेणारे विद्यार्थी व विद्यार्थिनी स्कॉलरशीप आणि फीशीपचे हकदार असणार नाहीत, अशी तरतूद असणारा कायदा तात्काळ रद्द करावा.

आणि शिक्षणमंत्री महोदय, आपल्यासाठी आणखी विनंती,

एक -
आपल्या बालभारती पुस्तकामधले धडे स्त्री – पुरुष समतेचे धडे देत नाहीत. दादा खेळायला बाहेर जा आणि ताई आईला मदत कर. असं सूचित करणारे दाखले किंवा उदाहरणं असतात. महात्मा गांधी यांनी बालपोथी तयार केली होती, त्यातली आई मुलाला म्हणते, जा ताईला मदत कर, घरातलंही काम कर.

शिक्षणमंत्री महोदय, थोडं लक्ष द्याल ?

दोन -
NEP वर आधारित नव्या पुस्तकातून सावित्रीबाई फुले यांच्या सहकारी फातिमा शेख यांचं नाव डिलिट करण्यात आलं आहे. सावित्रीबाई यांनी महात्मा फुले यांना लिहलेल्या पत्रांमध्ये स्वत: म्हटलं आहे की, ‘फातिमा आहे म्हणून मुलींची (पहिली) शाळा मी चालवू शकते.'

शिक्षणमंत्री महोदय, मग सरकारने हा भेदाभेद करण्याचं कारण काय ?

कृपया दखल घेऊन कार्यवाही व्हावी, हीच अपेक्षा.    

आपला स्नेहांकित,

कपिल पाटील
अध्यक्ष, समाजवादी गणराज्य पार्टी    


Tuesday 23 January 2024

कर्पूरी की वेदना, नीतीश का मरहम




मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुआ था वो लड़का। नाई समाज का पहला शिक्षित लड़का था। घर में घनघोर गरीबी थी। बेटे की उपलब्धि से पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे बेटे को उस गाँव के सबसे पढ़े-लिखे और ऊंची जाति के मुखिया के पास ले गए। 'मेरा बेटा फर्स्ट क्लास आया है। इसे और आगे बढ़ना है। आप इसे आशीर्वाद दीजिए।'

'फर्स्ट क्लास आया तो मैं क्या करूं? पहले मेरे पैर दबाओ।'

अपमान और वेदना की उस घटना से कर्पूरी ठाकुर के मन को गहरी चोट पहुंची।

वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उस चोट ने कभी प्रतिशोध का रूप नहीं लिया। अपमान का वो दर्द उनके संकल्प को और मजबूत करता गया।

बिहार के पिछड़े और अति पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के लिए, उनके उत्थान के लिए फैसले लेने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। छोटी-छोटी पिछड़ी जातियों के समूहों को उन्होंने न्याय दिलाने का प्रयास किया। उनके निर्णय आरक्षण और रियायतों तक ही सीमित नहीं थे। उन्होंने बिहार में पिछड़े वर्ग का नया नेतृत्व तैयार किया। जब उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा, तब उनके नाम पर कोई मकान तक नहीं था। उनका परिवार लोगों के बाल काटकर अपना जीवन यापन करता था।

कर्पूरी ठाकुर जब कॉलेज में थे तो एआईएसएफ में थे। उस समय का समस्त युवा वर्ग शोषण और असमानता के विरुद्ध मार्क्स के दर्शन से प्रभावित था। लेकिन भारतीय मार्क्सवादी आंदोलन में उन्हें जाति के सवालों का जवाब नहीं मिला, इसलिए उनका झुकाव समाजवादी आंदोलन की ओर हो गया। डॉ. राम मनोहर लोहिया की जाति नीति से आंबेडकरवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। डॉ. राम मनोहर लोहिया और एसएम जोशी दोनों समाजवादी थे जो महात्मा गांधी को अपना नेता मानते थे। इस समाजवादी नेतृत्व को साथ लेकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। आंबेडकर खुद को समाजवादी कहते थे। महाराष्ट्र के समाजवादी नेता और कार्यकर्ता पहले ही महाड और पर्वती के सत्याग्रह में शामिल हो चुके थे। अगर कर्पूरी ठाकुर ने समाजवादी रास्ता नहीं चुना होता तो आश्चर्य होता।

डॉ. राम मनोहर लोहिया के मंत्र 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' ने उत्तर भारत की राजनीति में हलचल मचा दी। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ओबीसी जातियों से नए नेतृत्व का उदय हुआ। स्वयं ओजस्वी तेज के साथ। बिहार समाजवाद की प्रयोगशाला बन गयी।

बिहार में वैचारिक निष्ठा से राजनीति करने वाले लोगों की बड़ी संख्या थी और अब भी है। गांधी-अंबेडकर और लोहिया-जयप्रकाश का सम्मान करने वाले ये समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर का भी उतना ही सम्मान करते हैं। कर्पूरी ठाकुर को शायद लोहिया, जयप्रकाश की तरह एक दार्शनिक के तौर पर नहीं जाना जाता। हालाँकि, वह पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने राजनीतिक शक्ति के माध्यम से अपनी वैचारिक निष्ठा का आविष्कार किया। सामाजिक न्याय के लिए अपनी सत्ता का त्याग करने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। राजनीति में त्याग और बलिदान का महत्व शायद कम हो गया हो। लेकिन इसका सबसे पहला उदाहरण कर्पूरी ठाकुर ही हैं।

पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने के दृढ़ निश्चय के कारण कर्पूरी ठाकुर को सत्ता का त्याग करना पडा था। मुंगेरीलाल कमेटी की सिफारिश पर वे सवर्णों के कमजोर लोगों को भी न्याय दिलाने वाले थे। इसके बावजूद कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।

कर्पूरी ठाकुर ने कभी भी ऊंची जातियों से नफरत के कारण कोई कदम नहीं उठाया। ऊंची जातियों में जो गरीब वर्ग है उनका पक्ष उन्होंने हमेशा लिया। उन्होंने सामाजिक न्याय के मुद्दे पर जोर दिया। फिर भी कर्पूरी ठाकुर को पद छोड़ना पड़ा। उनके उस बलिदान से बिहार में बड़ी संख्या में वंचित, पीड़ित और शोषित लोगों में जागरूकता आई। इसी जागरूकता को साथ लेकर नीतीश कुमार ने यह दूसरा बड़ा प्रयोग शुरू किया है। उनका पहला प्रयोग अति पिछड़ों को न्याय दिलाना था। इसमें वे बेहद सफल रहे। नीतीश कुमार देश के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पिछड़ों, दलितों और सभी समुदायों की महिलाओं को समान भागीदारी देने का फैसला किया। इससे बिहार में एक मजबूत किलेबंदी का निर्माण किया गया। 'न्याय' के इस किलेबंदी को विरोधी कभी भेद नहीं पाए। नीतीश कुमार ऊंची जातियों के गरीबों को भी हमेशा साथ देते है, इसपर बिहार का विश्वास हैं।

एक और समानता कर्पूरी ठाकुर और नीतीश कुमार के बीच है। बेदाग राजनीतिक जीवन। त्यागशील समर्पित निजी जीवन। सामाजिक न्याय और समाजवाद के प्रति अटूट प्रतिबद्धता। विचार की इस निष्ठा को कर्म में आविष्कृत करने का दर्शन। दर्शन केवल भाषाई शब्दावली होने से काम नहीं आता। वास्तविक मात्रा की प्रभावशीलता आवश्यक है। इसे साबित करने वाले नीतीश कुमार देश के एकमात्र नेता हैं।

चाहे वह सीएए, एनआरसी या जातीय जनगणना या आरक्षण का सवाल हो। नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय और मेल-मिलाप से कभी समझौता नहीं किया। धार्मिक नफरत को बढ़ावा देकर देश की एकता को तोड़ने का हर संभव प्रयास हो रहा है। मगर बिहार धार्मिक सदभावना का मिसाल बना हुआ है।

जातीय जनगणना का मामला बिहार तक ही सीमित नहीं है। यह देश के सभी राज्यों के लिए एक अहम मुद्दा है। ये राजनीति नहीं, सामाजिक न्याय का मुद्दा है। नीतीश कुमार ने बिहार मॉडल से जाति व्यवस्था, महिला दासता, भेदभाव, असमानता, गरीबी और शोषण से मुक्ति का एजेंडा रखा है। इसके माध्यम से वंचित समूहों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। यह कर्पूरी मार्ग है।

कर्पूरी शताब्दी पर उन्हें स्मरण करने और उनका अभिवादन करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? कर्पूरी ठाकूर ने बचपन में जो मानसिक वेदना व प्रताड़ना सहन की, वह देश के करोडो वंचित, पीडित, शोषितों की वेदना है। नीतीश कुमार का हर प्रयास उन वेदनाओं का अंत करने के लिए है। वह केवल मरहम नही लगाते, नई पिढी की उम्मीद और भविष्य के दरवाजे भी खोल देते है। नीतीश कुमार और बिहार सरकार द्वारा स्वीकार किए गए इस मार्ग का पूरा देश इंतजार कर रहा है।

- कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद
राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड)
kapilhpatil@gmail.com