Thursday, 23 February 2023

कर्पूरी ठाकुर 2.0

 सामाजिक न्याय की कल्पना को अस्वीकार करनेवालों ने नीतीश कुमार और उनकी सरकार के खिलाफ सुरंगें बनाना शुरू कर दिया है।


 
मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुआ था वो लड़का। नाई समाज का पहला शिक्षित लड़का था। घर में घनघोर गरीबी थी। बेटे की उपलब्धि से पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे बेटे को उस गाँव के सबसे पढ़े-लिखे और ऊंची जाति के मुखिया के पास ले गए। 'मेरा बेटा फर्स्ट क्लास आया है। इसे और आगे बढ़ना है। आप इसे आशीर्वाद दीजिए।'

'फर्स्ट क्लास आया तो मैं क्या करूं? पहले मेरे पैर दबाओ।'

अपमान और वेदना की उस घटना से कर्पूरी ठाकुर के मन को गहरी चोट पहुंची।

वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उस चोट ने कभी प्रतिशोध का रूप नहीं लिया। अपमान का वो दर्द उनके संकल्प को और मजबूत करता गया।

बिहार के पिछड़े और अति पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के लिए, उनके उत्थान के लिए फैसले लेने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। छोटी-छोटी पिछड़ी जातियों के समूहों को उन्होंने न्याय दिलाने का प्रयास किया। उनके निर्णय आरक्षण और रियायतों तक ही सीमित नहीं थे। उन्होंने बिहार में पिछड़े वर्ग का नया नेतृत्व तैयार किया। जब उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा, तब उनके नाम पर कोई मकान तक नहीं था। उनका परिवार लोगों के बाल काटकर अपना जीवन यापन करता था।

कर्पूरी ठाकुर जब कॉलेज में थे तो एआईएसएफ में थे। उस समय का समस्त युवा वर्ग शोषण और असमानता के विरुद्ध मार्क्स के दर्शन से प्रभावित था। लेकिन भारतीय मार्क्सवादी आंदोलन में उन्हें जाति के सवालों का जवाब नहीं मिला, इसलिए उनका झुकाव समाजवादी आंदोलन की ओर हो गया। डॉ. राममनोहर लोहिया की जाति नीति से आंबेडकरवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। डॉ. राम मनोहर लोहिया और एसएम जोशी गांधी को माननेवाले समाजवादी थे। लेकिन इस समाजवादी नेतृत्व को साथ लेकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। आंबेडकर खुद को समाजवादी कहते थे। महाराष्ट्र के समाजवादी नेता और कार्यकर्ता पहले ही महाड और पर्वती के सत्याग्रह में शामिल हो चुके थे। अगर कर्पूरी ठाकुर ने समाजवादी रास्ता नहीं चुना होता तो आश्चर्य होता। 

डॉ. राम मनोहर लोहिया के मंत्र 'पिछडा पावे सौ में साठ' ने उत्तर भारत की राजनीति में हलचल मचा दी। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ओबीसी जातियों से नए नेतृत्व का उदय हुआ। स्वयं ओजस्वी तेज के साथ।

किसने किसे मुख्यमंत्री बनाया, आजकल ये दावे किए जाते हैं। लेकिन ये चर्चा व्यर्थ है। लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में शीर्ष पर पहुंचे तो स्वयं के प्रयासों और स्वयं की प्रतिभा से। उनके साथ उत्तर भारत के कई दलित और ओबीसी नेता खड़े रहे तो वो डॉ. राममनोहर लोहिया के वैचारिक प्रभाव से।

लेकिन एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि बिहार में वैचारिक निष्ठा से राजनीति करने वाले बड़ी संख्या में थे और अब भी हैं। ये समाजवादी नेता गांधी-आंबेडकर और लोहिया-जयप्रकाश को माननेवाले थे। पिछली पीढ़ी के बीपी मंडल, रामसुंदर दास, देवेंद्र प्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, रघुवंश प्रसाद हों या वर्तमान में नीतीश कुमार या लालू प्रसाद यादव जैसे दिग्गज नेता या उनके साथ खड़े अन्य नेता जैसे
तेजस्वी यादव, राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह, विजय चौधरी, वशिष्ठ नारायण सिंह, शिवानंद तिवारी से लेकर देवेशचंद्र ठाकूर, मनोजकुमार झा, उमेश सिंह कुशवाहा, अफाक अहमद खां तथा कन्हैया कुमार तक बिहार में प्रगतिशील विचार का हर नेता लोहिया, जयप्रकाश के बाद कर्पूरी ठाकुर को मानता है। हालांकि कर्पूरी ठाकुर लोहिया, जयप्रकाश जैसे दार्शनिक नहीं थे, लेकिन राजनीतिक सत्ता के माध्यम से अपनी वैचारिक निष्ठा का आविष्कार करने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। सामाजिक न्याय के लिए अपनी सत्ता का त्याग करनेवाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। राजनीति में त्याग और बलिदान का महत्व शायद कम हो गया हो। लेकिन इसका सबसे पहला उदाहरण कर्पूरी ठाकुर ही हैं।

पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने के दृढ़ निश्चय के कारण कर्पूरी ठाकुर को सत्ता छोड़नी पड़ी थी। मुंगेरीलाल कमेटी की सिफारिश पर वे सवर्णों के कमजोर लोगों को भी न्याय दिलाने वाले थे। इसके बावजूद कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।

कर्पूरी ठाकुर की जन्म शताब्दी वर्ष शुरू होते ही एक बार फिर वही संघर्ष शुरू हो गया है।
नीतीश कुमार ने जातिगत गणना और सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का कार्यक्रम शुरू किया है। सामाजिक न्याय की कल्पना को अस्वीकार करनेवालों ने नीतीश कुमार और उनकी सरकार के खिलाफ सुरंगें बनाना शुरू कर दिया है।

डॉ. आंबेडकर द्वारा ओबीसी के लिए अनुच्छेद 340 के तहत किए गए प्रावधान, राम मनोहर लोहिया का 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' मंत्र, पिछड़ों और अतिपिछड़ों के लिए कर्पूरी ठाकुर के प्रयासों को प्रत्यक्ष में लागू करने वाले नीतीश कुमार पहले देश के किसी राज्य के मुख्यमंत्री हैं। जातिगत जनगणना उनके द्वारा लिया गया एक साहसिक निर्णय है।

कर्पूरी ठाकुर ने सवर्णों के प्रति घृणा के तहत कभी कोई कार्य नहीं किया। लेकिन वे सामाजिक न्याय के मुद्दे पर जोर देते थे। फिर भी कर्पूरी ठाकुर को पद छोड़ना पड़ा। लेकिन उनके इस त्याग से बिहार में बड़ी संख्या में वंचित, पीड़ित और शोषित लोगों में जागरूकता आई। इसी जागरूकता को साथ लेकर नीतीश कुमार ने दूसरा बड़ा प्रयोग शुरू कर दिया है। उनका पहला प्रयोग अति पिछड़ों को न्याय दिलाना था। इसमें वे सफल रहे। देश में पिछड़ों, दलितों और सभी समुदायों की महिलाओं को बराबरी की भागीदारी देने का फैसला सर्वप्रथम नीतीश कुमार ने ही लिया। इससे बिहार में एक मजबूत दुर्ग का निर्माण हुआ्। 'न्याय' के विरोधी इस दुर्ग को कभी भेद नहीं पाए। नीतीश कुमार की कार्य पद्धति है कि सवर्णों को चोट पहुंचाए बिना काम किया जाए।

चाहे सीएए, एनआरसी का प्रश्‍न हो या सामाजिक न्याय का, नीतीश कुमार ने हमेशा विरोधियों को करारा जवाब दिया है। कोई भी अन्य राज्य इतने स्पष्ट रूप से सेक्यूलर रुख अपनाते हुए सत्ता का संतुलन कायम नहीं रख पाया है।

देश में धार्मिक द्वेष को बढ़ाकर विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास हर संभव हो रहा है । जातिगत जनगणना के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट न जाते तो आश्चर्य होता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर जातिगत गणना का रास्ता साफ कर दिया है। जातिगत जनगणना का मुद्दा बिहार तक ही सीमित नहीं है। यह देश के सभी राज्यों के लिए एक अहम मुद्दा है। ये राजनीति नहीं, सामाजिक न्याय का मुद्दा है। इसके माध्यम से वंचित समूहों की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

कर्पूरी शताब्दी पर उन्हें स्मरण करने और उनका अभिवादन करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? नीतीश कुमार और बिहार सरकार द्वारा स्वीकार किए गए इस मार्ग का पूरा देश इंतजार कर रहा है।

- कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद . राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड)