Thursday, 23 March 2023

मासिक पाळीच्या रजेचा मुद्दा



8 मार्च महिला दिनी विधान परिषदेत झालेल्या चर्चेत आमदार कपिल पाटील यांनी केलेल्या सूचना.

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सभापती महोदया, महिला दिनाच्या निमित्ताने मांडण्यात आलेल्या प्रस्तावावर माझे विचार मांडण्याकरिता मी उभा आहे. सर्व प्रथम आपल्याला व सर्व महिला सदस्यांना मी महिला दिनाच्या हार्दिक शुभेच्छा देतो.

सभापती महोदया, भारतातील महिलांचा इतिहास फार काही चांगला नाही. अन्यथा अहिल्येला शिळा होऊन राहावे लागले नसते. सीतेला वनवास भोगावा लागला नसता व द्रौपदीला वस्त्रहरणाला सामोरे जावे लागले नसते. मी प्रश्नांचा पाढा वाचणार नाही केवळ काही सूचना करणार आहे. पहिले महिला धोरण जाहीर करण्याचे श्रेय जरी महाराष्ट्र शासनाला असले तरी देखील महिला धोरणातील घोषित बाबी आजतागायत कधीही पूर्ण होऊ शकल्या नाहीत, ही वस्तुस्थिती नाकारता येणार नाही. आपण ५० टक्के आरक्षणाची मागणी करतो. आजही शासकीय व निम शासकीय सेवेत महिलांचे प्रमाण २० टक्क्यांपेक्षा कमी आहे. हा आकडा पुढे - मागे होऊ शकतो. माझी मागणी आहे की, किमान माध्यमिक व प्राथमिक शाळांमध्ये बिहार राज्याप्रमाणे महिलांना ५० टक्के आरक्षण करावे. अनेकदा स्त्री कर्मचाऱ्यांकडे बघण्याचा दृष्टीकोन वेगळा असतो, त्यांची हेटाळणी होते. अधिकारी स्त्री असेल तर तिचे ऐकले जात नाही. ती जर सहायक असेल तर तिला दटावले जाते. हा दृष्टीकोन बदलणे आवश्यक आहे. स्त्री धर्माच्या काही गोष्टी असतात त्या बाबत बघण्याचा दृष्टीकोन बदलणे आवश्यक आहे. बिहार व केरळ राज्यात स्त्री कर्मचारी, शिक्षिका व विद्यार्थीनींना प्रत्येक महिन्याला मासिक पाळीकरिता दोन दिवसांची रजा दिली जाते किमान एक दिवसाची तरी रजा दर महिन्याला सर्व महिला कर्मचारी, शिक्षिका विद्यार्थीनीना द्यावी, अशी मी मागणी करतो.

सभापती महोदया, आपल्याकडे मिड डे मिलचा कार्यक्रम राबवण्यात येतो. या योजनेत सर्व महिला असतात. पोळया करण्यापासून भाजी करण्यापर्यंत महिलांचा यामध्ये सहभाग असतो. मात्र या कामाचे ठेके पुरुषांना दिले जातात. प्रत्येक शाळेकडून गावातील महिला बचत गटालाच ठेका दिला गेला पाहिजे. ही साधी गोष्ट केली तर गावातील महिला आपल्या मुलांसाठी सकस व चांगले जेवण बनवतील. याची खात्री देता येईल. ही सहज जमण्यासारखी गोष्ट आहे. माझी शासनाला विनंती आहे की, आपण ते करावे.

सभापती महोदया, राज्यात एकूण ६ कोटी महिला आहेत. त्यापैकी साधारण २० ते २२ टक्के महिला एससी व एसटी प्रवर्गातील आहेत. अपंग महिला अडीच टक्क्यांहून अधिक आहेत. ज्येष्ठ महिला १० टक्क्यांहून अधिक आहेत. घरकाम करणाऱ्या १५ लाख आहेत. शरीरविक्री व्यवसायात ६६ हजार महिला आहेत. या गटाच्या प्रश्नांकडे दुर्लक्ष झालेले आहे. या गटाकडे अधिक लक्ष देण्याकरिता राज्याच्या महिला धोरणामध्ये उल्लेख व्हावा अशी माझी विनंती आहे. सन्माननीय सदस्य श्री.श्रीकांत भारतीय यांनी केलेल्या सूचनेशी मी सहमत आहे. अनाथालयातून बाहेर पडणाऱ्या महिलेचे कोणीच नसते. यामुळे ती अधिक एकाकी होते. त्यांच्यासाठी स्वतंत्र केंद्र तयार केले पाहिजे. शहरांमध्ये काम करणाऱ्या महिलांकरिता आपण वसतिगृह तयार केले आहे. तसे काही करता आले तर ते करावे.

सभापती महोदया, शाळांमध्ये मुलींना प्रती दिन केवळ १ रुपया उपस्थिती भत्ता देण्यात येतो. अजूनही मुलींचे शाळेतील प्रमाण वाढलेले नाही, सभापती महोदया, आपण सांगितल्यानुसार कोविड काळात बालविवाहांचे प्रमाण प्रचंड प्रमाणावर वाढले. या बरोबरच मुलींचे शाळेतील गळतीचे प्रमाण देखील वाढले. माझी विनंती आहे की, मुलींसाठी उपस्थिती भत्ता दिवसाला किमान १० रुपये केला पाहिजे. या छोट्या वर्गासाठी हा उपस्थिती भत्ता वाढविला तर मुलींचे शाळेतील प्रमाण वाढण्यास मदत होईल.

सभापती महोदया, स्त्री उद्योजकांसाठी Single window system सुरु केली तर अनेक स्त्री उद्योजिका startup करु शकतील.

सभापती महोदया, महिलांसाठी सहा महिने प्रसुती रजा देण्यास सुरुवात केली आहे. परंतु पुरुषांना आजही स्त्रीच्या प्रसुती वेदना कळत नाहीत. प्रसुतीच्या तारखेपासून पुरुषाला किमान १५ दिवसाची रजा दिली तर तो आपल्या पत्नीच्या वेदनेमध्ये आणि निर्मितीच्या आनंदात सहभागी होऊ शकेल. या सर्व बाबींचा आपण विचार करावा.

सभापती महोदया, आपण मला बोलण्याची संधी दिल्याबद्दल आपले आभार मानतो व माझे भाषण थांबतो.
धन्यवाद!

- कपिल पाटील

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मासिक पाळीची रजा द्या - आमदार कपिल पाटील 

अर्थसंकल्पीय अधिवेशन l ८ मार्च २०२३


Thursday, 23 February 2023

कर्पूरी ठाकुर 2.0

 सामाजिक न्याय की कल्पना को अस्वीकार करनेवालों ने नीतीश कुमार और उनकी सरकार के खिलाफ सुरंगें बनाना शुरू कर दिया है।


 
मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुआ था वो लड़का। नाई समाज का पहला शिक्षित लड़का था। घर में घनघोर गरीबी थी। बेटे की उपलब्धि से पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे बेटे को उस गाँव के सबसे पढ़े-लिखे और ऊंची जाति के मुखिया के पास ले गए। 'मेरा बेटा फर्स्ट क्लास आया है। इसे और आगे बढ़ना है। आप इसे आशीर्वाद दीजिए।'

'फर्स्ट क्लास आया तो मैं क्या करूं? पहले मेरे पैर दबाओ।'

अपमान और वेदना की उस घटना से कर्पूरी ठाकुर के मन को गहरी चोट पहुंची।

वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उस चोट ने कभी प्रतिशोध का रूप नहीं लिया। अपमान का वो दर्द उनके संकल्प को और मजबूत करता गया।

बिहार के पिछड़े और अति पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के लिए, उनके उत्थान के लिए फैसले लेने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। छोटी-छोटी पिछड़ी जातियों के समूहों को उन्होंने न्याय दिलाने का प्रयास किया। उनके निर्णय आरक्षण और रियायतों तक ही सीमित नहीं थे। उन्होंने बिहार में पिछड़े वर्ग का नया नेतृत्व तैयार किया। जब उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा, तब उनके नाम पर कोई मकान तक नहीं था। उनका परिवार लोगों के बाल काटकर अपना जीवन यापन करता था।

कर्पूरी ठाकुर जब कॉलेज में थे तो एआईएसएफ में थे। उस समय का समस्त युवा वर्ग शोषण और असमानता के विरुद्ध मार्क्स के दर्शन से प्रभावित था। लेकिन भारतीय मार्क्सवादी आंदोलन में उन्हें जाति के सवालों का जवाब नहीं मिला, इसलिए उनका झुकाव समाजवादी आंदोलन की ओर हो गया। डॉ. राममनोहर लोहिया की जाति नीति से आंबेडकरवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। डॉ. राम मनोहर लोहिया और एसएम जोशी गांधी को माननेवाले समाजवादी थे। लेकिन इस समाजवादी नेतृत्व को साथ लेकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। आंबेडकर खुद को समाजवादी कहते थे। महाराष्ट्र के समाजवादी नेता और कार्यकर्ता पहले ही महाड और पर्वती के सत्याग्रह में शामिल हो चुके थे। अगर कर्पूरी ठाकुर ने समाजवादी रास्ता नहीं चुना होता तो आश्चर्य होता। 

डॉ. राम मनोहर लोहिया के मंत्र 'पिछडा पावे सौ में साठ' ने उत्तर भारत की राजनीति में हलचल मचा दी। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ओबीसी जातियों से नए नेतृत्व का उदय हुआ। स्वयं ओजस्वी तेज के साथ।

किसने किसे मुख्यमंत्री बनाया, आजकल ये दावे किए जाते हैं। लेकिन ये चर्चा व्यर्थ है। लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में शीर्ष पर पहुंचे तो स्वयं के प्रयासों और स्वयं की प्रतिभा से। उनके साथ उत्तर भारत के कई दलित और ओबीसी नेता खड़े रहे तो वो डॉ. राममनोहर लोहिया के वैचारिक प्रभाव से।

लेकिन एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि बिहार में वैचारिक निष्ठा से राजनीति करने वाले बड़ी संख्या में थे और अब भी हैं। ये समाजवादी नेता गांधी-आंबेडकर और लोहिया-जयप्रकाश को माननेवाले थे। पिछली पीढ़ी के बीपी मंडल, रामसुंदर दास, देवेंद्र प्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, रघुवंश प्रसाद हों या वर्तमान में नीतीश कुमार या लालू प्रसाद यादव जैसे दिग्गज नेता या उनके साथ खड़े अन्य नेता जैसे
तेजस्वी यादव, राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह, विजय चौधरी, वशिष्ठ नारायण सिंह, शिवानंद तिवारी से लेकर देवेशचंद्र ठाकूर, मनोजकुमार झा, उमेश सिंह कुशवाहा, अफाक अहमद खां तथा कन्हैया कुमार तक बिहार में प्रगतिशील विचार का हर नेता लोहिया, जयप्रकाश के बाद कर्पूरी ठाकुर को मानता है। हालांकि कर्पूरी ठाकुर लोहिया, जयप्रकाश जैसे दार्शनिक नहीं थे, लेकिन राजनीतिक सत्ता के माध्यम से अपनी वैचारिक निष्ठा का आविष्कार करने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। सामाजिक न्याय के लिए अपनी सत्ता का त्याग करनेवाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। राजनीति में त्याग और बलिदान का महत्व शायद कम हो गया हो। लेकिन इसका सबसे पहला उदाहरण कर्पूरी ठाकुर ही हैं।

पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने के दृढ़ निश्चय के कारण कर्पूरी ठाकुर को सत्ता छोड़नी पड़ी थी। मुंगेरीलाल कमेटी की सिफारिश पर वे सवर्णों के कमजोर लोगों को भी न्याय दिलाने वाले थे। इसके बावजूद कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।

कर्पूरी ठाकुर की जन्म शताब्दी वर्ष शुरू होते ही एक बार फिर वही संघर्ष शुरू हो गया है।
नीतीश कुमार ने जातिगत गणना और सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का कार्यक्रम शुरू किया है। सामाजिक न्याय की कल्पना को अस्वीकार करनेवालों ने नीतीश कुमार और उनकी सरकार के खिलाफ सुरंगें बनाना शुरू कर दिया है।

डॉ. आंबेडकर द्वारा ओबीसी के लिए अनुच्छेद 340 के तहत किए गए प्रावधान, राम मनोहर लोहिया का 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' मंत्र, पिछड़ों और अतिपिछड़ों के लिए कर्पूरी ठाकुर के प्रयासों को प्रत्यक्ष में लागू करने वाले नीतीश कुमार पहले देश के किसी राज्य के मुख्यमंत्री हैं। जातिगत जनगणना उनके द्वारा लिया गया एक साहसिक निर्णय है।

कर्पूरी ठाकुर ने सवर्णों के प्रति घृणा के तहत कभी कोई कार्य नहीं किया। लेकिन वे सामाजिक न्याय के मुद्दे पर जोर देते थे। फिर भी कर्पूरी ठाकुर को पद छोड़ना पड़ा। लेकिन उनके इस त्याग से बिहार में बड़ी संख्या में वंचित, पीड़ित और शोषित लोगों में जागरूकता आई। इसी जागरूकता को साथ लेकर नीतीश कुमार ने दूसरा बड़ा प्रयोग शुरू कर दिया है। उनका पहला प्रयोग अति पिछड़ों को न्याय दिलाना था। इसमें वे सफल रहे। देश में पिछड़ों, दलितों और सभी समुदायों की महिलाओं को बराबरी की भागीदारी देने का फैसला सर्वप्रथम नीतीश कुमार ने ही लिया। इससे बिहार में एक मजबूत दुर्ग का निर्माण हुआ्। 'न्याय' के विरोधी इस दुर्ग को कभी भेद नहीं पाए। नीतीश कुमार की कार्य पद्धति है कि सवर्णों को चोट पहुंचाए बिना काम किया जाए।

चाहे सीएए, एनआरसी का प्रश्‍न हो या सामाजिक न्याय का, नीतीश कुमार ने हमेशा विरोधियों को करारा जवाब दिया है। कोई भी अन्य राज्य इतने स्पष्ट रूप से सेक्यूलर रुख अपनाते हुए सत्ता का संतुलन कायम नहीं रख पाया है।

देश में धार्मिक द्वेष को बढ़ाकर विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास हर संभव हो रहा है । जातिगत जनगणना के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट न जाते तो आश्चर्य होता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर जातिगत गणना का रास्ता साफ कर दिया है। जातिगत जनगणना का मुद्दा बिहार तक ही सीमित नहीं है। यह देश के सभी राज्यों के लिए एक अहम मुद्दा है। ये राजनीति नहीं, सामाजिक न्याय का मुद्दा है। इसके माध्यम से वंचित समूहों की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

कर्पूरी शताब्दी पर उन्हें स्मरण करने और उनका अभिवादन करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? नीतीश कुमार और बिहार सरकार द्वारा स्वीकार किए गए इस मार्ग का पूरा देश इंतजार कर रहा है।

- कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद . राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड)

Tuesday, 24 January 2023

कर्पूरी ठाकूर 2.0



मॅट्रिकला फर्स्ट क्लासमध्ये पास झाला होता तो मुलगा. नाभिक समाजातला पहिला शिकलेला मुलगा. घरात दारिद्रय. बापाला कोण आनंद झाला. त्या गावातल्या सर्वात शिक्षित आणि उच्च जातीतल्या प्रमुखाकडे मुलाला बाप घेऊन गेला. 'बेटा फर्स्ट क्लास आया है l आगे जाना है, आशीर्वाद दिजीए l'

'फर्स्ट क्लास आला मग काय करू? आधी माझे पाय दाबून दे.'

अपमान आणि वेदनेचा तो प्रसंग कर्पूरी ठाकूर यांच्या मनावर खोल जखम करून गेला.

बिहारचे दोनदा मुख्यमंत्री झाले ते. पण त्या जखमेने कधी सुडाचं रूप घेतलं नाही. अपमानाच्या वेदनेने त्यांचा निर्धार अधिक प्रखर होत गेला.

बिहार मधल्या पिछड्या आणि अतिपिछड्यांसाठी, दलित आणि आदिवासींसाठी, त्यांच्या उत्थानासाठी निर्णय घेणारे ते पहिले मुख्यमंत्री. छोट्या छोट्या अतिपिछड्या जात समूहांना न्याय देण्याचा त्यांनी प्रयत्न केला. आरक्षण आणि सोयी सवलतीं पुरते त्यांचे निर्णय मर्यादित नव्हते. बिहारमधल्या मागास वर्गातलं नवं नेतृत्व त्यांनी उभं केलं. मुख्यमंत्री पद सोडावं लागलं तेव्हा त्यांच्या नावावर घर नव्हतं. कुटुंबाचा उदरनिर्वाह केशकर्तनातूनच चालत होता.

कर्पूरी ठाकूर कॉलेजमध्ये असताना एआयएसएफमध्ये होते. शोषण आणि विषमतेच्या विरोधातल्या मार्क्सच्या तत्वज्ञानाने त्या काळात सगळेच तरुण भारावत असत. पण जातीच्या प्रश्नांना भारतीय मार्क्सवादी चळवळीत उत्तरं मिळत नाहीत म्हणून समाजवादी चळवळीकडे ते ओढले गेले. डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या जातीनीतीशी आंबेडकरवादाचं घट्ट नातं आहे. डॉ. राममनोहर लोहिया आणि एस. एम. जोशी गांधींना मानणारे समाजवादी. मात्र या समाजवादी नेतृत्वालाच सोबत घेऊन डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांना रिपब्लिकन पक्ष उभा करायचा होता. आंबेडकर स्वतःला समाजवादी म्हणवत असत. महाराष्ट्रातील समाजवादी नेते आणि कार्यकर्ते महाड आणि पर्वतीच्या सत्याग्रहात आधीच जोडले गेले होते. कर्पूरी ठाकूर यांनी समाजवादी रस्ता निवडला नसता तरच नवल.

डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या 'पिछडा पावे सौ में साठ' या मंत्राने उत्तर भारतातील राजकारण ढवळून निघालं. अतिपिछड्या आणि ओबीसी जातीं मधील नवं नेतृत्व भारतीय राजकारणाच्या क्षितिजावर उदय पावलं. स्वयं तेजाने.

हल्ली कोणी कोणाला मुख्यमंत्री केलं असले दावे केले जातात. या चर्चा फिजुल आहेत. बिहारच्या राजकारणात शिखरापर्यंत लालूप्रसाद यादव किंवा नितीशकुमार पोचले ते स्वयं प्रयत्नातून आणि आणि स्वयं प्रतिभेतून. त्यांच्यासह उत्तर भारतातील अनेक दलित आणि ओबीसी नेते उभे राहिले ते डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या वैचारिक प्रभावातून.

एक मात्र नक्की सांगता येईल, वैचारिक निष्ठेतून राजकारण करणाऱ्यांची बिहारमध्ये मोठी फळी होती आणि आहे. गांधी - आंबेडकर आणि लोहिया - जयप्रकाश यांना मानणारे हे समाजवादी नेते. आधीच्या पिढीतील बी. पी. मंडल, रामसुंदर दास, देवेंद्रप्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, रघुवंश प्रसाद असोत की नितीशकुमार किंवा लालूप्रसाद यादवांसारखे दिग्गज नेते असोत की त्यांच्या सोबतीने उभे राहिलेले अन्य नेते असोत, जसे की राजीव रंजन सिंह, विजय चौधरी, उपेंद्र कुशवाह, वशिष्ठ नारायण सिंह, शिवानंद तिवारी यांच्यापासून ते देवेशचंद्र ठाकूर, मनोजकुमार झा आणि कन्हैया कुमार पर्यंत बिहारमधील पुरोगामी विचारांचा प्रत्येक नेता लोहिया, जयप्रकाश यांच्यापाठोपाठ कर्पूरी ठाकूर यांना मानतो. कर्पूरी ठाकूर हे लोहिया, जयप्रकाश यांच्यासारखे दार्शनिक तत्ववेत्ते नसतील. तथापी आपल्या वैचारिक निष्ठा राजकिय सत्तेच्या माध्यमातून आविष्कृत करणारे ते पहिले मुख्यमंत्री. सामाजिक न्यायासाठी आपली सत्ता गमावणारे ते पहिलेच मुख्यमंत्री. त्याग आणि बलिदान यांचं महत्त्व राजकारणात आता कमी झालं असेल. पण त्याचं पहिलं उदाहरण कर्पूरी ठाकूर हेच आहेत.

पिछड्या वर्गांना न्याय देण्याच्या निर्धारातून कर्पूरी ठाकूर यांना सत्तेचा त्याग करावा लागला. मुंगेरीलाल कमिटीच्या शिफारशीतून ते वरिष्ठ जातीतल्या दुर्बलांनाही न्याय देणार होते. तरीही कर्पूरी ठाकूर यांना मुख्यमंत्री पद गमवावं लागलं.

कर्पूरी ठाकूर यांचं जन्मशाताब्दी वर्ष सुरू होत असताना तोच संघर्ष पुन्हा एकदा उभा राहिला आहे

नितीशकुमार यांनी जातनिहाय गणना आणि सामाजिक, आर्थिक पाहणीचा कार्यक्रम सुरू केला आहे. ज्यांना सामाजिक न्यायाची कल्पना मान्य नाही त्यांनी त्यांच्या सरकारच्या विरोधात सुरुंग पेरायला सुरवात केली आहे.

डॉ. आंबेडकर यांनी ओबीसींसाठी घटनेत कलम 340 अन्वये केलेली तरतूद, 'पिछडा पावे सौ में साठ' हा डॉ. राममनोहर लोहिया यांचा मंत्र, पिछडे - अतिपिछड्यांसाठी कर्पूरी ठाकूर यांनी केलेला प्रयास प्रत्यक्षात यशस्वीपणे बिहार राज्यात राबवणारे नितीशकुमार हे पहिले मुख्यमंत्री. जाती जनगणनेचा त्यांनी घेतलेला निर्णय हा धाडसाचाच म्हणावा लागेल.

कर्पूरी ठाकूर यांनी उच्च जातींच्या द्वेषातून कधीही कोणती कृती केली नाही. मात्र सामाजिक न्यायाच्या प्रश्नावर ते आग्रही होते. तरीही कर्पूरी ठाकूर यांना पायउतार व्हावं लागलं. पण त्या त्यागातून बिहारमध्ये वंचित, पीडित, शोषितांची मोठी फळी उभी राहिली. नितीशकुमार यांनी ही फळी एकत्र करत हा दुसरा मोठा प्रयोग सुरू केला आहे. त्यांचा पहिला प्रयोग अतिपिछड्यांना न्याय देण्याचा होता. तो कमालीचा यशस्वी झाला. अतिपिछडे, अतिदलित आणि सर्वच समाजातील स्त्रिया यांना समान भागीदारी देण्याचा निर्णय नितीशकुमार यांनीच देशात सर्वप्रथम घेतला. त्यातून बिहारमध्ये मजबूत तटबंदी उभी राहिली. 'न्याय'विरोधकांना ही तटबंदी कधीच भेदता आलेली नाही. उच्च जातीयांना न दुखावता काम करण्याची नितीशकुमारांची पद्धत आहे.

सीएए, एनआरसीचा प्रश्न असो की सामाजिक न्यायाचा. नितीशकुमार यांनी विरोधकांची बाजू नेहमीच पलटवली आहे. अन्य कोणत्याही राज्याला इतकी स्पष्ट सेक्युलर भूमिका घेताना सत्तेचा तोल सांभाळता आलेला नाही.

धर्मद्वेषाची चूड लावत ही एकजूट तोडण्याचा हर प्रयास देशातील प्रस्थापित सत्ताधारी करत राहतील. पण सुप्रीम कोर्टाने त्यांची याचिका फेटाळून जात गणनेचा मार्ग मोकळा केला आहे. जातगणनेचा मुद्दा फक्त बिहार पुरता मर्यादित नाही. देशातील सर्वच राज्यांसाठी तो कळीचा मुद्दा आहे. राजकारणाचा नाही. सामाजिक न्यायाचा आहे. वंचित समूहांच्या सामाजिक, आर्थिक प्रश्नांची गाठ त्यातून सुटू शकेल.

कर्पूरी शताब्दीला त्यांना अभिवादन करण्यासाठी यापेक्षा दुसरा मार्ग काय असू शकेल? नितीशकुमार आणि बिहार सरकारने स्वीकारलेल्या या मार्गाचा तर देशाला इंतजार आहे.

- कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद तथा नेशनल जनरल सेक्रेटरी, जनता दल (यूनाइटेड)

Monday, 21 November 2022

राजेंद्रबाबूंचं इमान...


राजेंद्रबाबू दर्डा आज 70 वर्षांचे झाले. विश्वास बसणार नाही इतकी ऊर्जा आणि चैतन्य त्यांच्यात रसरसून भरलेलं असतं. बाबूजी म्हणजे जवरहलाल दर्डा यांच्यानंतर त्यांचा वैचारिक, राजकीय आणि व्यावसायिक वारसा विजय दर्डा आणि राजेंद्र दर्डा या दोन्ही बंधूनी आजवर इमानाने सांभाळला आहे. आणि पुढची पिढीही तो सांभाळेल याचा विश्वास या दोन्ही बंधूंच्या मुलांनी आपल्या कर्तृत्वाने दिला आहे.

जवाहरलाल दर्डा स्वातंत्र्यसेनानी. तुरुंगवास भोगलेले. स्वातंत्र्यानंतरच्या अनेक सरकारांमध्ये मंत्री राहिले. पण गांधी, नेहरूंच्या विचारांचा वारसा त्यांनी पुढच्या पिढीत रुजवला. 'लोकमत' हे दैनिक बाबूजींनी सुरु केलं. पण महाराष्ट्राच्या प्रत्येक खेड्यात आणि प्रत्येक शहरात मराठी वर्तनमानपत्रांमध्ये 'लोकमत' अव्वल आहे. याचं कारण विजय दर्डा आणि राजेंद्र दर्डा या बंधूंची ती कमाल आहे.

या बंधूनी मला खूप प्रेमही दिलं. राजेंद्रबाबूंनी थोडं अधिकचं. 'लोकमत'मध्ये असताना मुंबईचा वार्ताहर म्हणून मी दोघांसोबतही काम केलं आहे. मग राजेंद्रबाबू मंत्री झाले, तेव्हापासून मीही आमदार आहे. शिक्षणमंत्री म्हणून त्यांनी जे महाराष्ट्राला दिलं त्याचा ऋणनिर्देश करणं आवश्यक आहे. मंत्री होताच त्यांनी सर्व शिक्षक आमदारांना चर्चेला बोलावलं होतं. नंतर सभागृहात शिक्षणाच्या प्रश्नांवर शिक्षक आमदार आक्रमक झाल्यानंतरही किंवा सरकारवर टीका करतानाही शिक्षणमंत्र्यांनी त्याचं कधी वाईट वाटून घेतलं नाही. उलट प्रत्येक टीकेला सकारात्मक प्रतिसाद दिला. मार्ग काढण्याचा प्रयत्न केला.


वस्तीशाळांच्या प्रश्नावर सरकारशी संघर्षाचा प्रसंग आला. मी परळच्या कामगार मैदानात उपोषणाला बसलो तर राजेंद्रबाबू दुसऱ्याच दिवशी धावत आले. मला म्हणाले, 'कपिल, तू उपास का करतो? मी प्रश्न सोडवतो.'

त्यांनी फार दिवस घेतले नाहीत. अवघ्या तीन दिवसात प्रश्न मार्गी लावला. मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण होते. त्यांना राजेंद्रबाबूंनीच बाजू समजावून सांगितली. मुख्यमंत्री स्वतः माझ्याशी फोनवर बोलले. 'मंत्रिमंडळात नक्की निर्णय करतो. मागणी मान्य करतो.' असं सांगितलं.

पुन्हा उपास सोडवायला राजेंद्रबाबू मैदानात रात्री हजर झाले. सर्वांना शब्द दिला. पुढे शब्द पाळलाही. साडे आठ हजार वस्तीशाळा शिक्षक कायम झाले. पूर्ण पगारावर आले. ते ऋण विसरता येणार नाहीत म्हणून नवनाथ गेंड यांच्या नेतृत्वाखाली वस्तीशाळा शिक्षक राजेंद्रबाबूंचा वाढदिवस आवर्जून साजरा करतात.


आरटीईच्या एका तरतुदीचा गैरअर्थ काढत अधिकाऱ्यांनी शिक्षकांना आठ - आठ तासांची ड्युटी लावली होती. आणि आठ - आठ तास शाळा भरवण्याचं परिपत्रक काढलं होतं. राजेंद्रबाबूंना त्यातली त्रुटी लक्षात आणून देताच त्यांनी तात्काळ निर्णय घेतला आणि सभागृहात तशी घोषणाही केली. अध्यापनाचे तास पूर्ववत केले.

राज्यातल्या शाळांसाठी कम्प्युटर प्रयोगशाळा सुरू करण्याची कल्पनाही त्यांचीच. त्यांच्याच कार्यकाळात 8 हजार शाळांना कम्प्युटर मिळाले. शिक्षण खात्यात ई लर्निंग आणलं. इंग्रजी सुधारायला लावलं. गणित आणि विज्ञानाचे अभ्यासक्रम सीबीएसईच्या अ‍ॅट पार राजेंद्रबाबूंनीच आणले. जमिनीवर बसणाऱ्या 24 लाख मुलांना पॉलिमर डेस्क बेंच दिले. शाळांना ग्रीन बोर्ड दिले. फी नियंत्रण कायदा आणला.

नागपूरच्या हिवाळी अधिवेशनात शिक्षण सेवकांच्या मुद्द्यावर माझ्या खाजगी बिलाने सरकार अडचणीत आलं होतं. शिक्षणमंत्री असलेले राजेंद्र दर्डा त्यावेळेस विमानाने नागपूरहून निघत होते. पण त्यांना विधान परिषदेतील प्रसंग कळताच ते विमानातून उतरले. सभागृहात आले. घोषणा केली, मानधन वाढवण्याची आणि शिक्षण सेवक हे अवमानकारक नाव बदलण्याची. त्या सर्वांना आता परिविक्षाधीन सहाय्यक शिक्षक म्हटलं जातं.

वेतनेतर अनुदान पुन्हा सुरू करण्याचा निर्णयही त्यांच्याच. उच्च व कनिष्ठ माध्यमिक विनाअनुदानित शाळांचा कायम शब्द वगळण्याचा निर्णयही त्यांचाच. मुंबईतल्या शिक्षकांना 1 तारखेला पगार मिळावा म्हणून कोअर बँकिंग सुविधा देणाऱ्या बँकांमार्फत ईसीएस पद्धतीने वेतन देण्याची मागणी शिक्षक भारतीने केली. ती ही राजेंद्रबाबूंनीच पूर्ण केली.

राजेंद्रबाबू दर्डा यांनी शिक्षण मंत्री म्हणून केलेलं हे काम कधीही विसरता येणार नाही. ते उत्तम लेखक आहेत. पत्रकारही आहेत. आमदार, मंत्री झाल्यानंतरही त्यांच्यातली पत्रकारिता आणि लेखक त्यांनी विसरू दिलेला नाही. आजही ते लिखाण करतात. उत्तम लिहतात. राजेंद्रबाबू असोत किंवा विजयबाबू असोत यांनी बदलत्या राजकारणात एक पथ्य पाळलं आहे, सर्वांशी दोस्ती त्यांची असते. पण आपल्या मूळ विचारांशी ते प्रतारणा करत नाहीत. माणुसकीचा धर्म सोडत नाहीत. महावीरांच्या अहिंसा, अस्तेय आणि अपरिग्रहाचं व्रतही इमानाने पाळतात. अनेकांतवादाचा पुरस्कार करतात. भारताच्या विविधतेचं हे सूत्र महावीरांनीच तर सर्वप्रथम सांगितलं होतं. 
महावीरांचा तो धर्म विचार राजेंद्रबाबूंच्या पूर्ण जीवनात आढळतो. पुढची 30 वर्षही राजेंद्रबाबू असेच कार्यरत राहतील आणि 100 वा वाढदिवस करण्याची संधी देतील याची खात्री आणि याच शुभेच्छा!
- आमदार कपिल पाटील

Sunday, 18 September 2022

आपला तो 'भाऊ', 'बळी' कुणाचा?



ही गोष्ट आहे, तुमच्याच सोसायटीची आणि तुम्हाला नको असतानाही तुमच्या समोर असलेल्या जिजामाता नगर झोपडपट्टीची. मध्यमवर्गीय माणसाला झोपडपट्टी घाण वाटते. विशेषतः उच्चभ्रू वर्गाला. पण त्याच वस्तीतली मोलकरणी बाई, दूधवाला, वॉचमन, पेपरवाला, गाडी धुणारा या सगळ्यांच्या सेवा त्याला हव्या असतात. त्यांना प्रतिष्ठा देणं बाजूला राहिलं पण त्यांना माणूस म्हणून वागवण्याची तयारी सुद्धा नसते.

महानगरांच्या सोसायट्यांमध्ये आणि वस्त्यांमध्ये जात हरवते म्हणतात. पण ते तितकंसं खरं नसतं. पोटात वर्गभेद असतो आणि डोक्यात न जाणारी जात असते. त्यांच्या संघर्षाची गोष्ट आहे. 'भाऊबळी'.

गोष्ट गंभीर आहे. पण सिनेमा धमाल आहे. सिनेमा पाहताना आपण पोटभरून हसतो. आणि सिनेमा संपताना डोळे झाक केलेली जखम मनात ठसठसत राहते.

कथा, पटकथा अर्थात जयंत पवार यांची आहे. डायलॉगही त्यांचेच आहेत. 'सहाशे बहात्तर रुपयांचा सवाल' अर्थात युद्ध आमुचे सुरू या मूळ कथेवर बेतलेला हा सिनेमा. जयंत ताकदीचा नाटककार, सिनेमा लेखक, कथाकार.  आता आपल्यात नाही. कोविडच्या काळातच जयंत पवारचा कॅन्सरने घास घेतला. त्याचे दोन सिनेमे आधी येऊन गेले आहेत. त्यातला एक 'लालबाग परळ' महेश मांजरेकरने दिग्दर्शित केलेला. आधीच्या दोन चित्रपटांनी जयंत पवारला जो न्याय दिला नाही, तो 'भाऊबळी' ने दिला आहे. म्हणजे त्यांच्या कथांचा जो उद्देश असतो तो कथापटात आणि चित्रपटात साकारला जातोच असं नाही. नितीन वैद्य यांनी मात्र जयंत पवार यांना पुरेपुर न्याय दिला आहे. नितीन वैद्य यांची दृष्टी आणि समीर पाटील यांचं दिग्दर्शन, यामुळे सिनेमा थेट वर्तमानाला भिडतो. वर्तमानातल्या राजकीय आणि सामाजिक परिस्थितीवर कडक भाष्य करतो. एक काळ होता मध्यमवर्गाला गरीबाबद्दल करुणा होती, आता त्याची जागा क्रौर्याने घेतली आहे. एक काळ त्याला समाजवादाचं स्वप्न पडत होतं आता फॅसिस्ट कवायतखोरांचं त्याला आकर्षण आहे.

नितीन वैद्य हे स्वतः एक प्रतिभावान पण तितकेच संवेदनशील त्याहूनही सामाजिक बांधिलकी जपणारे सिने निर्माते आहेत. पण तरीही आपली कोणतीही कलाकृती प्रचारकी होणार नाही याचं भान ते राखतात. प्रचारकी थाट हा कोणत्याही कलाकृतीला मारतो.

निनाद वैद्य आणि अपर्णा पाडगावकर यांच्यासह नितीन वैद्य यांनी जी भट्टी जमवली आहे, त्यातून तयार झालेला 'भाऊबळी' हा थेट सिनेमागृहात जाऊन पहायला हवा. १६ सप्टेंबर पासून तो सिनेमागृहात लागला आहे. परवा काही मित्रांना, सहहृदांना नितीन वैद्य यांनी सिनेमा पाहायला बोलावलं होतं. आम्ही सहकुटुंब गेलो होतो. तुम्हीही सहकुटुंब जायला हवं. तरच सिनेमाचा आनंद घेता येईल.

या सिनेमावर बऱ्याच जणांनी भरभरून लिहलं आहे. त्यातल्या दोन प्रतिक्रिया द्यायला हव्यात. मंदार भारदेची पोस्ट सिनेमावर आणि वर्तमानावर भाष्य करणारी आहे. म्हणून इथे जशीच्या तशी देतो -
(सविस्तर वाचण्यासाठी फोटोवर क्लिक करा)


नितीन वैद्य यांनी भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होळकर यांच्यावरील टीव्ही मालिका गाजवल्या आहेत. पण त्यांची बांधिलकी कथावस्तू निवडण्यापुरती नाही. राष्ट्र सेवा दलाचे राष्ट्रीय अध्यक्ष आहेत नितीन वैद्य. त्यांच्यातल्या माणूसपणाबद्दल संध्या नरे पवार काय म्हणतात तेही वाचायला हवं. संध्या नरे म्हणजे जयंत पवारांच्या सहचारिणी. सावंतवाडी येथे पार पडलेल्या जनवादी साहित्य संस्कृती संमेलनाच्या अध्यक्षा. त्यांची पोस्ट अनकट पुढे वाचा -
(सविस्तर वाचण्यासाठी फोटोवर क्लिक करा)


आणखी एका कारणासाठी हा सिनेमा पाहायला हवा. नव्या पिढीने डॉ. श्रीराम लागू आणि निळू फुले यांचा 'सामना' पाहिला नसेल. सामनातला अभिनयाचा सामना. 'भाऊबळी' पाहताना उच्चभ्रू सोसायटीतल्या भाऊसाहेबाची भूमिका वठवणाऱ्या चाणक्य फेम मनोज जोशींनी डॉ. लागूंची आठवण करून दिली. आणि जिजाबाई नगर झोपडपट्टीतला दूधवाला बळी साकारला आहे किशोर कदम अर्थात कवी सौमित्र यांनी निळू फुलेंची. काय कमाल अभिनय आहे. तितकाच संयत आणि मनाचा ठाव घेणारा अभिनय किशोर कदमच करू जाणे. मनोज जोशी आणि किशोर कदम यांची जुगलबंदी सिनेमाघरात प्रत्यक्ष जाऊन पाहायला हवी. रसिका आगाशे, संतोष पवार, मेधा मांजरेकर, ऋषिकेश जोशी यांच्या धमाल भूमिकांचं कौतुक केलं नाही तर कृतघ्नपणा ठरेल. आपल्या भूमिकांमध्ये त्या सगळ्यांनी जीव ओतला आहे.

नुकताच हिंदी दिवस साजरा झाला. त्यानिमित्ताने नसरुद्दीन शहा यांनी मंगलेश डबराल यांची कविता BBC हिंदी साठी सादर केली. 'भाऊबळी' बद्दल वाचताना ती कविता जरूर ऐका. भाऊबळी आणि ती कविता वर्तमानावर सारखंच भाष्य करतात. एक जळजळीत कवितेसारखा सिनेमा.  दुसरी भवतालच्या वर्तमानाची सिनेमासारखी कविता.
(व्हिडीओ बघण्यासाठी क्लिक करा)


- कपिल पाटील
(सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद)

Monday, 29 August 2022

बिल्किस बानोवरचे अत्याचार भक्तांना मान्य आहेत का?


बिल्किस बानोवर बलात्कार करणाऱ्या त्या ११ जणांची गुजरात सरकारने सुटका केली आहे. गोध्रा कांडानंतर गुजरातमध्ये उसळलेल्या दंगलीत दाहोद जिल्ह्यातील रणधीकपूर गावात बिल्किस बानोवर सामूहिक बलात्कार झाला होता. त्यावेळेला ती पाच महिन्यांची गर्भवती होती. तिच्या तीन वर्षांच्या मुलीला मारण्यात आलं. त्या लहानगीसह घरातील सातही जणांची हत्या करण्यात आली. बिल्किस बानोवर अकरा जणांनी बलात्कार केला. २१ जानेवारी २००८ ला मुंबई उच्च न्यायालयाने त्यांना दोषी ठरवत गजाआड केलं होतं. जन्मठेप दिली. १५ वर्षानंतर जास्त काळ कैदेत व्यतित केल्यानंतर सुटका व्हावी म्हणून त्यांनी अर्ज केला. निर्णय गुजरात सरकारने घ्यायचा होता. सरकारने त्यांच्या सुटकेचा निर्णय घेतला तो १५ ऑगस्ट रोजी. भारतीय स्वातंत्र्याच्या अमृत महोत्सवी सोहळ्याच्या दिवशी. तुरुंगाच्या बाहेर येताच त्या अकरा जणांचं हार घालून स्वागत करण्यात आलं. गुजरातमधल्या सत्ताधारी पक्षाचे एक आमदार म्हणाले, 'ते दोषी असले तरी ब्राह्मण आहेत. त्यांच्यावर चांगले संस्कार झालेले आहेत.'




देश थंड आहे?
बिल्किस बानो मुसलमान आहे, म्हणून तिच्यावरचा बलात्कार क्षम्य आहे? की बलात्कार करणारे काही ब्राह्मण होते म्हणून बलात्काराचा गुन्हाही क्षम्य आहे?

तर शिवसेनेच्या सामनाने विचारलं, हे कसलं हिंदुत्व?

साध्या भाबड्या हिंदू माणसालाही हा प्रश्न पडला असेल. बलात्कार करणे हिंदुत्वाला मान्य आहे का?

सरळमार्गी ब्राह्मणांनाही कदाचित प्रश्न पडला असेल, ब्राह्मण असल्याने हत्या आणि बलात्काराचा गुन्हाही क्षम्य कसा असू शकतो?

मनुस्मृती या धर्मशास्त्रात ब्राह्मण असल्यास हे दोन्ही गुन्हे क्षम्य केले आहेत. पण ब्राह्मणेतरांनी किंवा शुद्रांनी असे गुन्हे केल्यास त्यास कठोर शिक्षा आहे. वेद मंत्र उच्चारल्यास जीभ छाटावी आणि ऐकल्यास कानात शिसं ओतावं, हा मनुस्मृतीचा दंड आहे.

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांनी मनुस्मृतीचं दहन केलं ते बापूसाहेब सहस्त्रबुद्धे या पुरोगामी विद्वान ब्राह्मणाच्या हातून. मनुस्मृतीतली एक एक ऋचा बापूसाहेब सहस्त्रबुद्धे वाचून दाखवत होते. त्याचा अर्थ सांगत होते. साध्या माणुसकीला मान्य नसणारा तो मजकूर ते अग्नीच्या स्वाधीन करत होते.

बिल्किस बानो ही मुसलमान असल्याने ती अत्याचाराला पात्र आहे, हे सावरकरी हिंदुत्ववादाचे सार आहे. या वाक्यावर ज्यांना राग येईल त्यांनी विनायक दामोदर सावरकर यांचं 'सहा सोनेरी पानं' हे पुस्तक वाचावं. कल्याणच्या सुभेदाराच्या सुनेला 'पर स्त्री माते समान' असा मान देत छत्रपती शिवरायांनी सन्मानाने परत पाठवलं. अफजल खानाच्या वधानंतर त्याच्या कुटुंबाला अभय दिलं. त्याच्या बायकोला आणि मुलांना सुरक्षित आणि सन्मानाने परत पाठवलं. एका गरीब स्त्रीवर अत्याचार करणाऱ्या रांझेच्या पाटलाचे हात पाय तोडण्याची शिक्षा छत्रपती शिवरायांनी दिली होती. हिंदुत्वाचे जनक असलेल्या सावरकरांना हिंदवी स्वराज्याच्या संस्थापकांचं हे औदार्य मान्य नाही. छत्रपती शिवरायांना सावरकर दोष देतात. अत्याचाराची परतफेड केली नाही म्हणून बुळगा ठरवतात. परस्रीयांचा सन्मान केला म्हणून शिवरायांचा घोर अवमान करतात. छत्रपतींची ती सदगुण विकृती मानतात.

छत्रपतींच्या हिंदवी स्वराज्यात परस्त्रीलाही अभय होतं.

छत्रपती शिवरायांना सहा सोनेरी पानांमध्ये सावरकर स्थान देत नाहीत.

फक्त शिवरायांनाच नाही पोर्तुगीजांवर विजय संपादन करणाऱ्या पराक्रमी चिमाजी अप्पांनी एका सुंदर पोर्तुगीज स्त्रीची अशीच परत पाठवणी केली. चिमाजी अप्पा जन्माने ब्राह्मण, तरीही सावरकर त्यांना दोष देतात. मस्तानीशी लग्न करणारा बाजीराव पेशवाही हिंदुत्वाला म्हणूनच मान्य नाही.

गुजरात सरकारच्या ज्या समितीने त्या अकरा जणांच्या सुटकेचा निर्णय घेतला त्यात सी. के. राऊळ होते. ते म्हणाले, 'दोषी ब्राह्मण आहेत. ब्राह्मणांवर चांगले संस्कार असतात. त्यांना अडकवलं असणार.'

ते सारे अकरा ब्राह्मण होते का? खचितच नाही. फक्त तीन ब्राह्मण होते. पाच ओबीसी, दोन एससी, एक बनिया. अत्याचारी कोणत्या जातीचा आहे म्हणून अत्याचार माफ होऊ शकत नाही.

दिल्लीतल्या निर्भयाची आई आशा देवी संतापून म्हणाल्या, 'त्यांना तर फाशीच व्हायला हवी होती.'

पीडिता बिल्किस बानो म्हणाल्या, 'मी सुन्न आहे.'

- कपिल पाटील
(सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद)

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महिलांचा आदर करणारे शिवराय - श्रीमंत कोकाटे
https://www.esakal.com/saptarang/shrimant-kokate-write-chhatrapati-shivaji-maharaj-article-editorial-172022

Sunday, 7 August 2022

कमंडलच्या ऐरणीवर मंडल


ज्ञान, कौशल्य आणि सर्जनशीलतेचा मिलाप होतो, तेथेच नवनिर्मिती घडते. शोधांचं अवकाश निर्माण होतं. या मिलापाची आणि अवकाशाच्या निर्मितीची सुरूवात आता कुठेशी होते आहे. मंडल आयोगाच्या शिफारशींमध्येच या अवकाशाची शक्यता दडलेली आहे. 32 वर्षे झाली. मंडल अजून पुरता अमलात आलाय कुठे?

पिछडा पाँवे सौ में साठ!
डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या या जादूई घोषणेने उत्तरेच्या राजकारणात मोठी उलथापालथ घडवून आणली. तोवर विंध्या पलिकडचं राजकारणही उच्चवर्णीयांची मक्तेदारी होती. लोहियांनी दलित, ओबीसी नेतृत्वात प्राण फुंकले. पारंपरिक सत्तेच्या परिघात कधीही नसलेल्या समाज समूहातून नवं नेतृत्व उभं राहिलं. ब्राह्मण, रजपूत, ठाकूर यांच्या पलीकडे असलेल्या उपेक्षित जनजातींना सत्तेची कवाडं खुली झाली.

कर्पूरी ठाकूर, बी. पी. मंडल यांच्यापासून ते मुलायमसिंग यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, नितीश कुमार, लालूप्रसाद यादव, उपेंद्रसिंग कुशवाह यांच्यापर्यंत. खूप मोठी रांग आहे ही. मंडलोत्तर राजकारणात या नावांबद्दल बोटं मोडली जातात. पण जयप्रकाशजींच्या आंदोलनात तुरंगात गेलेल्या या त्या वेळच्या तरुण नेत्यांनी काँग्रेसचा पायाच डळमळीत केला होता. लालूप्रसादांचा कथित चारा घोटाळा आणि मुलायमसिंग यादव यांची अलिकडची असंबद्ध वक्तव्ये सोडली तर लोहियांच्या या चेल्यांकडे बोट दाखवता येईल असं एकही वाईट उदाहरण नाही. उलट ज्या ग्रामीण दारिद्र्याच्या आणि सामाजिक विषमतेच्या पार्श्वभूमीतून हे नेतृत्व उभं राहिलं त्याचं कौतुक दोन दशकं होत होतं. 7 ऑगस्ट 1990 या तारखेनंतर चित्र पालटलं.

कर्पूरी ठाकूर मुख्यमंत्री असताना त्यांच्या कुटुंबाचा उदरनिर्वाह केसकर्तनातून होत होता. लालूप्रसाद यादव यांच्या पत्नी चुलीवरती स्वयंपाक करत होत्या. मुलायमसिंग शाळेत शिक्षक होते. गांधींचा मार्ग आणि आंबेडकरांचा विचार ज्यांच्या समाजवादातून अविष्कृत झाला होता तो लोहियावादाचा झेंडा या मंडळींच्या खांद्यावर होता. राजकारणातील सत्ताधारी वर्गाशी त्यांचा संघर्ष होता. पण या झेंड्यामुळे भारतीय राजकारणात त्यांची विश्वासार्हता तितकीच मोठी होती. त्यांच्या बदनामीला सुरूवात झाली ऑगस्ट 1990 नंतर. मंडल आयोगाच्या शिफारशींची अंमलबजावणी करण्याची घोषणा पंतप्रधान व्ही. पी. सिंग यांनी केल्यानंतर.

व्ही. पी. सिंग यांनी 7 ऑगस्ट 1990 रोजी घोषणा केली. 13 ऑगस्टला नोटिफिकेशन जारी झालं आणि देशात आग लागली. निर्णय एकट्या व्ही. पी. सिंगांचा नव्हता. शरद यादव, रामविलास पासवान, मुलायमसिंग यादव, लालूप्रसाद यादव आणि नितीशकुमार या साऱ्यांचा त्यामागे रेटा होता. व्ही. पी. सिंगांचे पुतळे जाळले जाऊ लागले. देशातला तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग आणि वर्तमानपत्रेही मंडल विरोधात आग ओकत होती. 'बंद बाटलीतलं भूत व्ही. पी. सिंगांनी बाहेर काढलं' अशी टीका आजही होते. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनाचं नेतृत्व करत दिल्लीचे मुख्यमंत्री झालेले अरविंद केजरीवाल यांच्यासारखी आयआयटीतली मंडळी तेव्हा मंडलच्या विरोधात रस्त्यावर होती. मंडलच्या विरोधात उघड भूमिका न घेणारे, सामाजिक न्यायाचे पुरस्कर्ते म्हणवणारे योगेंद्र यादव यांच्यासारखे बुद्धिवंत 'बंद बाटलीतलं मंडलचं भूत' असंच म्हणतात.


मंडल आयोगाच्या फक्त दोन शिफारशी आजपर्यंत अमलात आणल्या आहेत. नोकरी आणि शिक्षणातल्या आरक्षणाच्या. या वर्गाच्या मुक्तीचा जो व्यापक जाहीरनामा मंडल आयोगाने मांडला आहे, त्याला अजून स्पर्श झालेला नाही. तो न होताही उलथापालथ किती घडली. जाती व्यवस्थेने आणि वर्णाश्रमाने ज्ञान आणि कौशल्य यांची फारकत केली. श्रमाचं नाही श्रमिकांचं विभाजन केलं. प्रतिष्ठेची उतरंड तयार केली. पारंपरिक कौशल्य, कारागिरी, कला, सर्जनशीलता आणि अपार कष्टाची तयारी असलेल्या वर्गाला ज्ञानापासून तोडून टाकलं.

स्वातंत्र्यानंतरच्या 75 वर्षांत दोन-चार अपवाद सोडले तर देशात संशोधक निपजले नाहीत. जगातल्या पहिल्या पाचशे विद्यापीठात एकही भारतीय विद्यापीठ नाही. ज्ञान, कौशल्य आणि सर्जनशीलतेचा मिलाप होतो, तेथेच नवनिर्मिती घडते. शोधांचं अवकाश निर्माण होतं. या मिलापाची आणि अवकाशाच्या निर्मितीची सुरूवात आता कुठेशी होते आहे. डॉ. आंबेडकरांच्या संविधानातील तरतुदी आणि मंडल आयोगाच्या शिफारशींमध्येच या अवकाशाची शक्यता दडलेली आहे. संविधानातल्या तरतुदी कायद्यात आणि प्रत्यक्षात उतरत नाहीत, मंडल आयोगाच्या सर्व शिफारशी प्रत्यक्षात अमलात येत नाहीत तोवर या शक्यतांना धुमारे फुटणार नाहीत.

मंडलचा हा परिणाम कुणालाच पुसता आलेला नाही. त्यांच्यासाठी भूत असलेला मंडल कमंडलात बंद करण्याचा किती प्रयत्न झाला. देशाला कमंडलच्या त्या राजकारणात मोठी किंमत चुकवावी लागली. लालकृष्ण अडवाणींनी रथ यात्रा काढली. मंडल रोखण्यासाठी धर्मद्वेषाची आग देशभर पेटवण्यात आली. बाबरी मशीद शहीद करण्यात आली. पुढे भाजपला सत्ता मिळाली. पण मंडलचं भूत त्यांच्या मानगुटीवर बसलं. मंडलच्या भुतांना भगवी वस्त्र चढवण्यात त्यांना यश जरूर आलं. पण मंडलला गाडण्यात नाही.

कमंडलचं राजकारण फक्त एकटा भाजपच खेळला काय? काँग्रेसही तोच खेळ खेळत होती. राममंदिराचं टाळं त्यांनीच उघडलं. मंडल हे त्यांच्यासाठी बाटलीत बंद करण्यासाठी भूतच होतं. 12 डिसेंबर 1980 रोजी बी. पी. मंडल यांनी आपला अहवाल आणि शिफारशी पंतप्रधान इंदिरा गांधांच्या हाती सोपवल्या. पुढे दहा वर्षे तो अहवाल बाटलीत बंद करून ठेवण्यात काँग्रेसने धन्यता मानली. काँग्रेस नेतृत्वाची पारंपरिक सत्ता अबाधित ठेवण्यासाठी त्यांनी हे करणं त्यांच्या धोरणाला साजेसं होतं. मंडल विरोधात देशात आग लावण्यात भाजप, विद्यार्थी परिषद आणि त्यांच्या अन्य संघटना पुढे होत्या. तर त्या आगीत तेल टाकण्याचं काम देशभर काँग्रेसवालेच करत होते.

मंडल आयोगाने नवीन काय केलं? ती तर घटनात्मक तरतूद होती. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ज्या संविधानिक तरतुदीसाठी आग्रही होते, त्यात ओबीसींच्या सवलतींचा मुद्दा प्रमुख होता. घटनेतलं कलम 340 ही डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांची मोठी देणगी आहे. हे कलम म्हणतं, ‘सामाजिक आणि शैक्षणिक दृष्ट्या मागासलेल्या वर्गांच्या स्थितीचे आणि त्यांना ज्या अडचणी सोसाव्या लागतात त्याचे अन्वेषण करणे आणि अशा अडचणी दूर करण्यासाठी व त्यांची स्थिती सुधारण्यासाठी संघराज्याने किंवा कोणत्याही राज्याने कोणत्या उपाययोजना कराव्यात त्या संबंधी शिफारशी करण्यासाठी आयोग नियुक्त करता येईल.’

घटनेतील याच कलमाचा आधार घेत 1977 मध्ये सत्तेवर आलेल्या मोरारजी देसाई यांच्या नेतृत्वाखालील जनता सरकारने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल यांच्या अध्यक्षतेखाली आयोग नेमला. अर्थात त्यामागे समाजवादी ओबीसी नेतृत्वाचा आणि मधू लिमयेंचा मोठा दबाव होता. त्याआधी 1953 मध्ये काका कालेलकर आयोग नेमला गेला होता. 1955 मध्ये त्यांचा अहवालही आला. परंतु अंतर्विरोधांनी भरलेल्या त्या अहवालात स्वतःलाच गुंडाळण्याची शिफारस होती. मंडल आयोग येण्यासाठी नंतर 25 वर्षे लागली. शैक्षणिक आणि सामाजिकदृष्ट्या मागासलेल्या वर्गांना 25 वर्षे न्याय नाकारला गेला. मंडल आयोगाच्या शिफारशी स्वीकारल्यानंतर 25 वर्षांनंतर या वर्गांची काय स्थिती आहे? मंडल आयोगाने 52 टक्के लोकसंख्या असलेल्या ओबीसींना 27 टक्के आरक्षण सुचवलं. देशाच्या केंद्रीय विद्यापीठांमध्ये आजच्या घडीलाही ओबीसींचे फक्त 2 टक्के प्रोफेसर आहेत. देशाचं सरकार, विविध मंत्रालयं आणि सार्वजनिक उपक्रम यात ओबीसी नोकरदारांचा टक्का आहे फक्त 4.69 टक्के. दुसऱ्या वर्गात हे प्रमाण 10.63 टक्के आहे. तृतीय वर्ग कर्मचाऱ्यांमध्ये 18.98 टक्के आहे. तर चतृर्थ श्रेणीमध्ये 12.55 टक्के आहे. ओबीसी म्हणजे महाराष्ट्राच्या भाषेत भटक्या विमुक्तांसह इतर सर्व मागासवर्गीय. ओबीसी म्हणजे तथाकथित चातुर्वर्णात शूद्र या श्रेणीत येणारे सर्व.

आरक्षणाच्या विरोधात दिल्ली पाठोपाठ सर्वात मोठं आंदोलन झालं ते गुजरातमध्येच. संघ प्रणित विद्यार्थी परिषदांसारख्या संघटना त्यात पुढे होत्या. त्याच भाजपला आज देशाच्या पंतप्रधानपदी ओबीसी असलेल्या नरेंद्र मोदींना स्वीकारावं लागलं. आरक्षण विरोधात चूड लावत सवर्ण मतांची बेगमी एका बाजूला भाजपने केली. तर दुसऱ्या बाजूला पक्षाचं मंडलीकरण करत ओबीसी नेत्यांच्या खांद्यावरून अनेक राज्यांमध्ये सत्ता खेचून आणली. पक्षाच्या राष्ट्रीय धोरणाच्या विपरीत महाराष्ट्रात मात्र भाजप नेतृत्वाने मंडलच्या समर्थनाची भूमिका अगदी सुरुवातीपासून घेतली. भाजपच्या या मंडलीकरणाचं श्रेय प्रमोद महाजनांना जातं. खरं तर त्यांचे गुरू वसंतराव भागवत यांनी त्याचा पहिला प्रयोग केला. गोपीनाथ मुंडेंचं नेतृत्व पुढे आणण्यात आलं. हा भागवत प्रयोग पुढे अन्य राज्यांतही भाजपला सत्ता देता झाला. प्रमोद महाजन, गोपीनाथ मुंडे मंडल समर्थनाच्या परिषदांमध्ये पुढे होते. तर दुसऱ्या बाजूला मंडलला उघड विरोध पण ओबीसींना सत्ता असा प्रयोग शिवसेनेत बाळासाहेब ठाकरेंनी केला.

मंडलच्या परिणामांची दखल भाजपने ज्या पद्धतीने घेतली. तशी दखल कम्युनिस्टांसह देशातल्या अन्य पुरोगामी पक्षांना घेता आली नाही. मंडल आयोगापुढे साक्ष देताना कम्युनिस्ट पश्चिम बंगालने तर विरोधात भूमिका घेतली होती. काँग्रेस देशभर कोसळायला सुरवात झाली ती त्या पक्षाच्या मंडल विरोधी भूमिकेमुळेच. उत्तर भारतात लोहियावादी असलेले जनता दल व समाजवादी गट आजही आपले अस्तित्व टिकवून आहे, ते मंडलचा झेंडा खांद्यावर असल्यामुळेच. त्याच जनता दलाच्या महाराष्ट्रातील त्यावेळच्या नेतृत्वाने मंडल समूहांना सामावून घेतलं नाही. त्यामुळे तो पक्ष महाराष्ट्रातून बाद झाला. दिल्लीत एकदा मधू लिमये हयात असताना मी त्यांना याबाबत प्रश्न केला होता, तेव्हा त्यांनी तेच विश्लेषण केलं होतं. 'एस. एम. जोशी यांचा तेवढा अपवाद बाकी महाराष्ट्रातील तत्कालीन समाजवादी नेतृत्व ब्राह्मणी राहिलं आणि त्यांनी ओबीसी नेतृत्वाला स्पेस कधी उपलब्ध करून दिली नाही. म्हणूनच मी (मधू लिमये) स्वतः महाराष्ट्रात न थांबता बिहार आणि उत्तरप्रदेशात लक्ष घालण्याचं ठरवलं.' हे मधू लिमयेचं उत्तर होतं. अशीच काहीशी स्थिती छगन भुजबळांची राहिली. काँग्रेस किंवा नंतर राष्ट्रवादीने छगन भुजबळांना अशी स्पेस दिली नाही. 

दक्षिणेत तमिळनाडूत सत्ताधारी आणि विरोधी पक्ष दोघंही मंडलवादी आहेत. म्हणून टिकून आहेत. शरद पवारांनाही छगन भुजबळ, सुनिल तटकरे आणि जितेंद्र आव्हाड म्हणून हवे असतात. तर देवेंद्र फडणवीस ओबीसींचा कैवार घेत राष्ट्रवादी आणि काँग्रेसच्या राजकारणावर सहज मात करू शकतात.

मंडल वजा करून देशाच्या कोणत्याच भागात राजकारण होऊ शकत नाही. पण मंडल अहवाल राजकारणातल्या जातीय समीकरणापुरताच मर्यादित आहे काय? मंडल अहवालामध्ये एक सुंदर वाक्य आहे, ‘सत्तेच्या वर्तुळात माझा माणूस.’ याच सूत्रावर ‘पिछडा पाँवे सौ में साठ’, हे लोहियांचं गणित उभं होतं. बी. पी. मंडल हे लोहियांचेच पट्टशिष्य. जादू या सूत्रानेच केली आहे.

32 वर्षांनंतरही ही जादू संपलेली नाही. कमंडलच्या जोरावर ज्यांच्या हातात सत्ता आहे, त्यांना आजही सर्वात जास्त भीती मंडलचीच वाटते. म्हणून ओबीसीची जनगणना केली जात नाही. महाराष्ट्रात 'महा विकास आघाडी'चं सरकार होतं. काँग्रेस, राष्ट्रवादी आणि शिवसेना यांच्या सरकारने ओबीसी जनगणनेची संधी हातातून घालवली. मागासवर्गीय आयोगाने मागितलेले ४०० कोटी द्यायला नकार दिला. वेळ काढला. कोविडचं कारण सांगितलं गेलं. त्यातून स्थानिक स्वराज्य संस्थांमधील ओबीसी आरक्षणाचा मुद्दा जो लटकला तो अर्धामुर्धाच हाती आला आहे. मागच्या अडीच वर्षात ओबीसी आरक्षणाला जो फटका बसला तो भरून न येणारा राहिला आहे. फुले - शाहू - आंबेडकरांचा महाराष्ट्र मध्यप्रदेशचा कित्ता गिरवत राहिला. बिहार, तामिळनाडू आणि कर्नाटककडेही त्यांनी पाहिलं नाही. बिहारमध्ये नितीशकुमारांनी सत्ता वंचित महादलितांसाठी केलेला महाप्रयोग कमालीचा यशस्वी झाला. कर्पूरी ठाकूर, बी. पी. मंडल आणि मधू लिमये यांच्या पुढे जात सामाजिक आणि मानवी प्रतिष्ठाही नसलेल्या छोट्या छोट्या महादलित जातींना त्यांनी सत्तेचे भागीदार बनवलं. कुठेही आरोपांची राळ न उठवता ओबीसी जनगणनेचा आग्रह धरला. राज्याच्या पातळीवर राजद आणि भाजपसह सर्व पक्षांना त्यांनी ओबीसी आणि जातीनिहाय जनगणनेसाठी राजी करून घेतलं.

तब्बल 32 वर्षांनंतर मंडलचा प्रश्न पुन्हा ऐरणीवर आला आहे. तो फक्त मंडल मधल्या शिफारशींपुरता मर्यादित नाही. कारण ऐरण कमंडलाची आहे. जय श्रीरामाच्या घंटानादात हरवलेल्या बजरंगी भाईजान जाती समूहांच्या सामाजिक, आर्थिक व राजकीय न्यायाचा प्रश्न पुन्हा अधोरेखित झाला आहे. द्रौपदी मुर्मू देशाच्या राष्ट्रपती झाल्या, याचा आनंद आणि अभिमान असला तरी त्या कैफात आदिवासींच्या आशा, आकांक्षा विसरल्या जाण्याची शक्यता नाही. संकटात आलेलं ओबीसींचं आरक्षण लोकसंख्येत 50 टक्के असलेला समुदाय कायमचा गमावून बसेल ही शक्यताही नाही. जाट - मराठ्यांसारख्या शेतकरी समूहांच्या आरक्षणाच्या आणि आर्थिक न्यायाच्या मागणीला पुढच्या काळात आणखीन धुमारे फुटण्याची शक्यता आहे. भारतीय राजकारणाचा हा अग्नीपथ नजीकच्या काळात सर्वांचीच परीक्षा घेणार आहे.

- आमदार कपिल पाटील
अध्यक्ष, लोक भारती