Thursday, 23 March 2023

मासिक पाळीच्या रजेचा मुद्दा



8 मार्च महिला दिनी विधान परिषदेत झालेल्या चर्चेत आमदार कपिल पाटील यांनी केलेल्या सूचना.

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सभापती महोदया, महिला दिनाच्या निमित्ताने मांडण्यात आलेल्या प्रस्तावावर माझे विचार मांडण्याकरिता मी उभा आहे. सर्व प्रथम आपल्याला व सर्व महिला सदस्यांना मी महिला दिनाच्या हार्दिक शुभेच्छा देतो.

सभापती महोदया, भारतातील महिलांचा इतिहास फार काही चांगला नाही. अन्यथा अहिल्येला शिळा होऊन राहावे लागले नसते. सीतेला वनवास भोगावा लागला नसता व द्रौपदीला वस्त्रहरणाला सामोरे जावे लागले नसते. मी प्रश्नांचा पाढा वाचणार नाही केवळ काही सूचना करणार आहे. पहिले महिला धोरण जाहीर करण्याचे श्रेय जरी महाराष्ट्र शासनाला असले तरी देखील महिला धोरणातील घोषित बाबी आजतागायत कधीही पूर्ण होऊ शकल्या नाहीत, ही वस्तुस्थिती नाकारता येणार नाही. आपण ५० टक्के आरक्षणाची मागणी करतो. आजही शासकीय व निम शासकीय सेवेत महिलांचे प्रमाण २० टक्क्यांपेक्षा कमी आहे. हा आकडा पुढे - मागे होऊ शकतो. माझी मागणी आहे की, किमान माध्यमिक व प्राथमिक शाळांमध्ये बिहार राज्याप्रमाणे महिलांना ५० टक्के आरक्षण करावे. अनेकदा स्त्री कर्मचाऱ्यांकडे बघण्याचा दृष्टीकोन वेगळा असतो, त्यांची हेटाळणी होते. अधिकारी स्त्री असेल तर तिचे ऐकले जात नाही. ती जर सहायक असेल तर तिला दटावले जाते. हा दृष्टीकोन बदलणे आवश्यक आहे. स्त्री धर्माच्या काही गोष्टी असतात त्या बाबत बघण्याचा दृष्टीकोन बदलणे आवश्यक आहे. बिहार व केरळ राज्यात स्त्री कर्मचारी, शिक्षिका व विद्यार्थीनींना प्रत्येक महिन्याला मासिक पाळीकरिता दोन दिवसांची रजा दिली जाते किमान एक दिवसाची तरी रजा दर महिन्याला सर्व महिला कर्मचारी, शिक्षिका विद्यार्थीनीना द्यावी, अशी मी मागणी करतो.

सभापती महोदया, आपल्याकडे मिड डे मिलचा कार्यक्रम राबवण्यात येतो. या योजनेत सर्व महिला असतात. पोळया करण्यापासून भाजी करण्यापर्यंत महिलांचा यामध्ये सहभाग असतो. मात्र या कामाचे ठेके पुरुषांना दिले जातात. प्रत्येक शाळेकडून गावातील महिला बचत गटालाच ठेका दिला गेला पाहिजे. ही साधी गोष्ट केली तर गावातील महिला आपल्या मुलांसाठी सकस व चांगले जेवण बनवतील. याची खात्री देता येईल. ही सहज जमण्यासारखी गोष्ट आहे. माझी शासनाला विनंती आहे की, आपण ते करावे.

सभापती महोदया, राज्यात एकूण ६ कोटी महिला आहेत. त्यापैकी साधारण २० ते २२ टक्के महिला एससी व एसटी प्रवर्गातील आहेत. अपंग महिला अडीच टक्क्यांहून अधिक आहेत. ज्येष्ठ महिला १० टक्क्यांहून अधिक आहेत. घरकाम करणाऱ्या १५ लाख आहेत. शरीरविक्री व्यवसायात ६६ हजार महिला आहेत. या गटाच्या प्रश्नांकडे दुर्लक्ष झालेले आहे. या गटाकडे अधिक लक्ष देण्याकरिता राज्याच्या महिला धोरणामध्ये उल्लेख व्हावा अशी माझी विनंती आहे. सन्माननीय सदस्य श्री.श्रीकांत भारतीय यांनी केलेल्या सूचनेशी मी सहमत आहे. अनाथालयातून बाहेर पडणाऱ्या महिलेचे कोणीच नसते. यामुळे ती अधिक एकाकी होते. त्यांच्यासाठी स्वतंत्र केंद्र तयार केले पाहिजे. शहरांमध्ये काम करणाऱ्या महिलांकरिता आपण वसतिगृह तयार केले आहे. तसे काही करता आले तर ते करावे.

सभापती महोदया, शाळांमध्ये मुलींना प्रती दिन केवळ १ रुपया उपस्थिती भत्ता देण्यात येतो. अजूनही मुलींचे शाळेतील प्रमाण वाढलेले नाही, सभापती महोदया, आपण सांगितल्यानुसार कोविड काळात बालविवाहांचे प्रमाण प्रचंड प्रमाणावर वाढले. या बरोबरच मुलींचे शाळेतील गळतीचे प्रमाण देखील वाढले. माझी विनंती आहे की, मुलींसाठी उपस्थिती भत्ता दिवसाला किमान १० रुपये केला पाहिजे. या छोट्या वर्गासाठी हा उपस्थिती भत्ता वाढविला तर मुलींचे शाळेतील प्रमाण वाढण्यास मदत होईल.

सभापती महोदया, स्त्री उद्योजकांसाठी Single window system सुरु केली तर अनेक स्त्री उद्योजिका startup करु शकतील.

सभापती महोदया, महिलांसाठी सहा महिने प्रसुती रजा देण्यास सुरुवात केली आहे. परंतु पुरुषांना आजही स्त्रीच्या प्रसुती वेदना कळत नाहीत. प्रसुतीच्या तारखेपासून पुरुषाला किमान १५ दिवसाची रजा दिली तर तो आपल्या पत्नीच्या वेदनेमध्ये आणि निर्मितीच्या आनंदात सहभागी होऊ शकेल. या सर्व बाबींचा आपण विचार करावा.

सभापती महोदया, आपण मला बोलण्याची संधी दिल्याबद्दल आपले आभार मानतो व माझे भाषण थांबतो.
धन्यवाद!

- कपिल पाटील

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मासिक पाळीची रजा द्या - आमदार कपिल पाटील 

अर्थसंकल्पीय अधिवेशन l ८ मार्च २०२३


Thursday, 23 February 2023

कर्पूरी ठाकुर 2.0

 सामाजिक न्याय की कल्पना को अस्वीकार करनेवालों ने नीतीश कुमार और उनकी सरकार के खिलाफ सुरंगें बनाना शुरू कर दिया है।


 
मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुआ था वो लड़का। नाई समाज का पहला शिक्षित लड़का था। घर में घनघोर गरीबी थी। बेटे की उपलब्धि से पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे बेटे को उस गाँव के सबसे पढ़े-लिखे और ऊंची जाति के मुखिया के पास ले गए। 'मेरा बेटा फर्स्ट क्लास आया है। इसे और आगे बढ़ना है। आप इसे आशीर्वाद दीजिए।'

'फर्स्ट क्लास आया तो मैं क्या करूं? पहले मेरे पैर दबाओ।'

अपमान और वेदना की उस घटना से कर्पूरी ठाकुर के मन को गहरी चोट पहुंची।

वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उस चोट ने कभी प्रतिशोध का रूप नहीं लिया। अपमान का वो दर्द उनके संकल्प को और मजबूत करता गया।

बिहार के पिछड़े और अति पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के लिए, उनके उत्थान के लिए फैसले लेने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। छोटी-छोटी पिछड़ी जातियों के समूहों को उन्होंने न्याय दिलाने का प्रयास किया। उनके निर्णय आरक्षण और रियायतों तक ही सीमित नहीं थे। उन्होंने बिहार में पिछड़े वर्ग का नया नेतृत्व तैयार किया। जब उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा, तब उनके नाम पर कोई मकान तक नहीं था। उनका परिवार लोगों के बाल काटकर अपना जीवन यापन करता था।

कर्पूरी ठाकुर जब कॉलेज में थे तो एआईएसएफ में थे। उस समय का समस्त युवा वर्ग शोषण और असमानता के विरुद्ध मार्क्स के दर्शन से प्रभावित था। लेकिन भारतीय मार्क्सवादी आंदोलन में उन्हें जाति के सवालों का जवाब नहीं मिला, इसलिए उनका झुकाव समाजवादी आंदोलन की ओर हो गया। डॉ. राममनोहर लोहिया की जाति नीति से आंबेडकरवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। डॉ. राम मनोहर लोहिया और एसएम जोशी गांधी को माननेवाले समाजवादी थे। लेकिन इस समाजवादी नेतृत्व को साथ लेकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। आंबेडकर खुद को समाजवादी कहते थे। महाराष्ट्र के समाजवादी नेता और कार्यकर्ता पहले ही महाड और पर्वती के सत्याग्रह में शामिल हो चुके थे। अगर कर्पूरी ठाकुर ने समाजवादी रास्ता नहीं चुना होता तो आश्चर्य होता। 

डॉ. राम मनोहर लोहिया के मंत्र 'पिछडा पावे सौ में साठ' ने उत्तर भारत की राजनीति में हलचल मचा दी। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ओबीसी जातियों से नए नेतृत्व का उदय हुआ। स्वयं ओजस्वी तेज के साथ।

किसने किसे मुख्यमंत्री बनाया, आजकल ये दावे किए जाते हैं। लेकिन ये चर्चा व्यर्थ है। लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में शीर्ष पर पहुंचे तो स्वयं के प्रयासों और स्वयं की प्रतिभा से। उनके साथ उत्तर भारत के कई दलित और ओबीसी नेता खड़े रहे तो वो डॉ. राममनोहर लोहिया के वैचारिक प्रभाव से।

लेकिन एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि बिहार में वैचारिक निष्ठा से राजनीति करने वाले बड़ी संख्या में थे और अब भी हैं। ये समाजवादी नेता गांधी-आंबेडकर और लोहिया-जयप्रकाश को माननेवाले थे। पिछली पीढ़ी के बीपी मंडल, रामसुंदर दास, देवेंद्र प्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, रघुवंश प्रसाद हों या वर्तमान में नीतीश कुमार या लालू प्रसाद यादव जैसे दिग्गज नेता या उनके साथ खड़े अन्य नेता जैसे
तेजस्वी यादव, राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह, विजय चौधरी, वशिष्ठ नारायण सिंह, शिवानंद तिवारी से लेकर देवेशचंद्र ठाकूर, मनोजकुमार झा, उमेश सिंह कुशवाहा, अफाक अहमद खां तथा कन्हैया कुमार तक बिहार में प्रगतिशील विचार का हर नेता लोहिया, जयप्रकाश के बाद कर्पूरी ठाकुर को मानता है। हालांकि कर्पूरी ठाकुर लोहिया, जयप्रकाश जैसे दार्शनिक नहीं थे, लेकिन राजनीतिक सत्ता के माध्यम से अपनी वैचारिक निष्ठा का आविष्कार करने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। सामाजिक न्याय के लिए अपनी सत्ता का त्याग करनेवाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। राजनीति में त्याग और बलिदान का महत्व शायद कम हो गया हो। लेकिन इसका सबसे पहला उदाहरण कर्पूरी ठाकुर ही हैं।

पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने के दृढ़ निश्चय के कारण कर्पूरी ठाकुर को सत्ता छोड़नी पड़ी थी। मुंगेरीलाल कमेटी की सिफारिश पर वे सवर्णों के कमजोर लोगों को भी न्याय दिलाने वाले थे। इसके बावजूद कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।

कर्पूरी ठाकुर की जन्म शताब्दी वर्ष शुरू होते ही एक बार फिर वही संघर्ष शुरू हो गया है।
नीतीश कुमार ने जातिगत गणना और सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का कार्यक्रम शुरू किया है। सामाजिक न्याय की कल्पना को अस्वीकार करनेवालों ने नीतीश कुमार और उनकी सरकार के खिलाफ सुरंगें बनाना शुरू कर दिया है।

डॉ. आंबेडकर द्वारा ओबीसी के लिए अनुच्छेद 340 के तहत किए गए प्रावधान, राम मनोहर लोहिया का 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' मंत्र, पिछड़ों और अतिपिछड़ों के लिए कर्पूरी ठाकुर के प्रयासों को प्रत्यक्ष में लागू करने वाले नीतीश कुमार पहले देश के किसी राज्य के मुख्यमंत्री हैं। जातिगत जनगणना उनके द्वारा लिया गया एक साहसिक निर्णय है।

कर्पूरी ठाकुर ने सवर्णों के प्रति घृणा के तहत कभी कोई कार्य नहीं किया। लेकिन वे सामाजिक न्याय के मुद्दे पर जोर देते थे। फिर भी कर्पूरी ठाकुर को पद छोड़ना पड़ा। लेकिन उनके इस त्याग से बिहार में बड़ी संख्या में वंचित, पीड़ित और शोषित लोगों में जागरूकता आई। इसी जागरूकता को साथ लेकर नीतीश कुमार ने दूसरा बड़ा प्रयोग शुरू कर दिया है। उनका पहला प्रयोग अति पिछड़ों को न्याय दिलाना था। इसमें वे सफल रहे। देश में पिछड़ों, दलितों और सभी समुदायों की महिलाओं को बराबरी की भागीदारी देने का फैसला सर्वप्रथम नीतीश कुमार ने ही लिया। इससे बिहार में एक मजबूत दुर्ग का निर्माण हुआ्। 'न्याय' के विरोधी इस दुर्ग को कभी भेद नहीं पाए। नीतीश कुमार की कार्य पद्धति है कि सवर्णों को चोट पहुंचाए बिना काम किया जाए।

चाहे सीएए, एनआरसी का प्रश्‍न हो या सामाजिक न्याय का, नीतीश कुमार ने हमेशा विरोधियों को करारा जवाब दिया है। कोई भी अन्य राज्य इतने स्पष्ट रूप से सेक्यूलर रुख अपनाते हुए सत्ता का संतुलन कायम नहीं रख पाया है।

देश में धार्मिक द्वेष को बढ़ाकर विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास हर संभव हो रहा है । जातिगत जनगणना के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट न जाते तो आश्चर्य होता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर जातिगत गणना का रास्ता साफ कर दिया है। जातिगत जनगणना का मुद्दा बिहार तक ही सीमित नहीं है। यह देश के सभी राज्यों के लिए एक अहम मुद्दा है। ये राजनीति नहीं, सामाजिक न्याय का मुद्दा है। इसके माध्यम से वंचित समूहों की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

कर्पूरी शताब्दी पर उन्हें स्मरण करने और उनका अभिवादन करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? नीतीश कुमार और बिहार सरकार द्वारा स्वीकार किए गए इस मार्ग का पूरा देश इंतजार कर रहा है।

- कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद . राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड)

Tuesday, 24 January 2023

कर्पूरी ठाकूर 2.0



मॅट्रिकला फर्स्ट क्लासमध्ये पास झाला होता तो मुलगा. नाभिक समाजातला पहिला शिकलेला मुलगा. घरात दारिद्रय. बापाला कोण आनंद झाला. त्या गावातल्या सर्वात शिक्षित आणि उच्च जातीतल्या प्रमुखाकडे मुलाला बाप घेऊन गेला. 'बेटा फर्स्ट क्लास आया है l आगे जाना है, आशीर्वाद दिजीए l'

'फर्स्ट क्लास आला मग काय करू? आधी माझे पाय दाबून दे.'

अपमान आणि वेदनेचा तो प्रसंग कर्पूरी ठाकूर यांच्या मनावर खोल जखम करून गेला.

बिहारचे दोनदा मुख्यमंत्री झाले ते. पण त्या जखमेने कधी सुडाचं रूप घेतलं नाही. अपमानाच्या वेदनेने त्यांचा निर्धार अधिक प्रखर होत गेला.

बिहार मधल्या पिछड्या आणि अतिपिछड्यांसाठी, दलित आणि आदिवासींसाठी, त्यांच्या उत्थानासाठी निर्णय घेणारे ते पहिले मुख्यमंत्री. छोट्या छोट्या अतिपिछड्या जात समूहांना न्याय देण्याचा त्यांनी प्रयत्न केला. आरक्षण आणि सोयी सवलतीं पुरते त्यांचे निर्णय मर्यादित नव्हते. बिहारमधल्या मागास वर्गातलं नवं नेतृत्व त्यांनी उभं केलं. मुख्यमंत्री पद सोडावं लागलं तेव्हा त्यांच्या नावावर घर नव्हतं. कुटुंबाचा उदरनिर्वाह केशकर्तनातूनच चालत होता.

कर्पूरी ठाकूर कॉलेजमध्ये असताना एआयएसएफमध्ये होते. शोषण आणि विषमतेच्या विरोधातल्या मार्क्सच्या तत्वज्ञानाने त्या काळात सगळेच तरुण भारावत असत. पण जातीच्या प्रश्नांना भारतीय मार्क्सवादी चळवळीत उत्तरं मिळत नाहीत म्हणून समाजवादी चळवळीकडे ते ओढले गेले. डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या जातीनीतीशी आंबेडकरवादाचं घट्ट नातं आहे. डॉ. राममनोहर लोहिया आणि एस. एम. जोशी गांधींना मानणारे समाजवादी. मात्र या समाजवादी नेतृत्वालाच सोबत घेऊन डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांना रिपब्लिकन पक्ष उभा करायचा होता. आंबेडकर स्वतःला समाजवादी म्हणवत असत. महाराष्ट्रातील समाजवादी नेते आणि कार्यकर्ते महाड आणि पर्वतीच्या सत्याग्रहात आधीच जोडले गेले होते. कर्पूरी ठाकूर यांनी समाजवादी रस्ता निवडला नसता तरच नवल.

डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या 'पिछडा पावे सौ में साठ' या मंत्राने उत्तर भारतातील राजकारण ढवळून निघालं. अतिपिछड्या आणि ओबीसी जातीं मधील नवं नेतृत्व भारतीय राजकारणाच्या क्षितिजावर उदय पावलं. स्वयं तेजाने.

हल्ली कोणी कोणाला मुख्यमंत्री केलं असले दावे केले जातात. या चर्चा फिजुल आहेत. बिहारच्या राजकारणात शिखरापर्यंत लालूप्रसाद यादव किंवा नितीशकुमार पोचले ते स्वयं प्रयत्नातून आणि आणि स्वयं प्रतिभेतून. त्यांच्यासह उत्तर भारतातील अनेक दलित आणि ओबीसी नेते उभे राहिले ते डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या वैचारिक प्रभावातून.

एक मात्र नक्की सांगता येईल, वैचारिक निष्ठेतून राजकारण करणाऱ्यांची बिहारमध्ये मोठी फळी होती आणि आहे. गांधी - आंबेडकर आणि लोहिया - जयप्रकाश यांना मानणारे हे समाजवादी नेते. आधीच्या पिढीतील बी. पी. मंडल, रामसुंदर दास, देवेंद्रप्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, रघुवंश प्रसाद असोत की नितीशकुमार किंवा लालूप्रसाद यादवांसारखे दिग्गज नेते असोत की त्यांच्या सोबतीने उभे राहिलेले अन्य नेते असोत, जसे की राजीव रंजन सिंह, विजय चौधरी, उपेंद्र कुशवाह, वशिष्ठ नारायण सिंह, शिवानंद तिवारी यांच्यापासून ते देवेशचंद्र ठाकूर, मनोजकुमार झा आणि कन्हैया कुमार पर्यंत बिहारमधील पुरोगामी विचारांचा प्रत्येक नेता लोहिया, जयप्रकाश यांच्यापाठोपाठ कर्पूरी ठाकूर यांना मानतो. कर्पूरी ठाकूर हे लोहिया, जयप्रकाश यांच्यासारखे दार्शनिक तत्ववेत्ते नसतील. तथापी आपल्या वैचारिक निष्ठा राजकिय सत्तेच्या माध्यमातून आविष्कृत करणारे ते पहिले मुख्यमंत्री. सामाजिक न्यायासाठी आपली सत्ता गमावणारे ते पहिलेच मुख्यमंत्री. त्याग आणि बलिदान यांचं महत्त्व राजकारणात आता कमी झालं असेल. पण त्याचं पहिलं उदाहरण कर्पूरी ठाकूर हेच आहेत.

पिछड्या वर्गांना न्याय देण्याच्या निर्धारातून कर्पूरी ठाकूर यांना सत्तेचा त्याग करावा लागला. मुंगेरीलाल कमिटीच्या शिफारशीतून ते वरिष्ठ जातीतल्या दुर्बलांनाही न्याय देणार होते. तरीही कर्पूरी ठाकूर यांना मुख्यमंत्री पद गमवावं लागलं.

कर्पूरी ठाकूर यांचं जन्मशाताब्दी वर्ष सुरू होत असताना तोच संघर्ष पुन्हा एकदा उभा राहिला आहे

नितीशकुमार यांनी जातनिहाय गणना आणि सामाजिक, आर्थिक पाहणीचा कार्यक्रम सुरू केला आहे. ज्यांना सामाजिक न्यायाची कल्पना मान्य नाही त्यांनी त्यांच्या सरकारच्या विरोधात सुरुंग पेरायला सुरवात केली आहे.

डॉ. आंबेडकर यांनी ओबीसींसाठी घटनेत कलम 340 अन्वये केलेली तरतूद, 'पिछडा पावे सौ में साठ' हा डॉ. राममनोहर लोहिया यांचा मंत्र, पिछडे - अतिपिछड्यांसाठी कर्पूरी ठाकूर यांनी केलेला प्रयास प्रत्यक्षात यशस्वीपणे बिहार राज्यात राबवणारे नितीशकुमार हे पहिले मुख्यमंत्री. जाती जनगणनेचा त्यांनी घेतलेला निर्णय हा धाडसाचाच म्हणावा लागेल.

कर्पूरी ठाकूर यांनी उच्च जातींच्या द्वेषातून कधीही कोणती कृती केली नाही. मात्र सामाजिक न्यायाच्या प्रश्नावर ते आग्रही होते. तरीही कर्पूरी ठाकूर यांना पायउतार व्हावं लागलं. पण त्या त्यागातून बिहारमध्ये वंचित, पीडित, शोषितांची मोठी फळी उभी राहिली. नितीशकुमार यांनी ही फळी एकत्र करत हा दुसरा मोठा प्रयोग सुरू केला आहे. त्यांचा पहिला प्रयोग अतिपिछड्यांना न्याय देण्याचा होता. तो कमालीचा यशस्वी झाला. अतिपिछडे, अतिदलित आणि सर्वच समाजातील स्त्रिया यांना समान भागीदारी देण्याचा निर्णय नितीशकुमार यांनीच देशात सर्वप्रथम घेतला. त्यातून बिहारमध्ये मजबूत तटबंदी उभी राहिली. 'न्याय'विरोधकांना ही तटबंदी कधीच भेदता आलेली नाही. उच्च जातीयांना न दुखावता काम करण्याची नितीशकुमारांची पद्धत आहे.

सीएए, एनआरसीचा प्रश्न असो की सामाजिक न्यायाचा. नितीशकुमार यांनी विरोधकांची बाजू नेहमीच पलटवली आहे. अन्य कोणत्याही राज्याला इतकी स्पष्ट सेक्युलर भूमिका घेताना सत्तेचा तोल सांभाळता आलेला नाही.

धर्मद्वेषाची चूड लावत ही एकजूट तोडण्याचा हर प्रयास देशातील प्रस्थापित सत्ताधारी करत राहतील. पण सुप्रीम कोर्टाने त्यांची याचिका फेटाळून जात गणनेचा मार्ग मोकळा केला आहे. जातगणनेचा मुद्दा फक्त बिहार पुरता मर्यादित नाही. देशातील सर्वच राज्यांसाठी तो कळीचा मुद्दा आहे. राजकारणाचा नाही. सामाजिक न्यायाचा आहे. वंचित समूहांच्या सामाजिक, आर्थिक प्रश्नांची गाठ त्यातून सुटू शकेल.

कर्पूरी शताब्दीला त्यांना अभिवादन करण्यासाठी यापेक्षा दुसरा मार्ग काय असू शकेल? नितीशकुमार आणि बिहार सरकारने स्वीकारलेल्या या मार्गाचा तर देशाला इंतजार आहे.

- कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद तथा नेशनल जनरल सेक्रेटरी, जनता दल (यूनाइटेड)