Monday, 3 July 2023

बुद्ध की विरासत से जुड़ता सूरत बदलने का युद्ध



सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध हिंदी कवि दुष्यन्त कुमार की कविता से हैं।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से पटना में बुलाई गई बैठक में देशभर से 15 पार्टियां शामिल हुईं। चार घंटे तक चर्चा हुई। वह बैठक चेहरा तय करने के लिए नहीं थी। प्रधानमंत्री कौन? यह निश्चित करने के लिए तो बिलकुल नहीं थी। पटना का हंगामा देश की सूरत बदलने के लिए था । पटना बैठक की कमाई यह है कि मोदी के खिलाफ आपका चेहरा कौन है? इस चर्चा को इस बैठक ने निरर्थक करार दिया। भारत ने राष्ट्रपति लोकतंत्र को नहीं अपनाया है।

नीतीश कुमार खुद बता चुके हैं कि उनकी ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है । जनता दल (यूनाइटेड) के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने पार्टी बैठक में उत्साहित कार्यकर्ताओं को फटकार लगाते हुए कहा, ''नीतीश कुमार प्रधानमंत्री की दौड़ में नहीं हैं । यह जनता दल (यूनाइटेड) का उद्देश्य नहीं है। यह चर्चा करना एकता में बाधक भी हो सकता है।''
ललन सिंह ने जब यह कहा था तब ही मीडिया और देश की सभी राजनीतिक धाराएं आश्वस्त थी कि नीतीश कुमार का प्रयास ईमानदार है। दिल से है। अन्यथा इतने बड़े दिग्गज नेता नीतीश कुमार के बुलावे पर भी पटना नहीं आते l यह विश्वास नीतीश कुमार के बेदाग जीवन, निष्ठा, ईमानदारी और जिस तरह से उन्होंने बिहार का चेहरा बदल दिया, उससे पैदा हुआ है। दूसरी बात यह है कि नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के मूल्यों से समझौता नहीं किया है। उन्होंने एनआरसी के खिलाफ बिहार विधानमंडल में प्रस्ताव पारित करने का साहस दिखाया।

बैठक में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और दस्तूर ख़ुद्द राहुल गांधी शामिल हुए। उन्होंने कहीं भी बड़ी पार्टी का नेता होने का दिखावा नहीं किया। भारत जोड़ो यात्रा से होने वाली कमाई घमंड में तब्दील नहीं हुई है l एक पल के लिए भी किसी ने ऐसा नहीं सोचा l इतनी सहजता से राहुल गांधी काम कर रहे थे l जब नीतीश कुमार ने उन्हे बोलने को कहा तो राहुल गांधी ने बड़ी विनम्रता से कहा, ''पहले खड़गे साहब बोलेंगे.''

ममतादी, स्टालिन, अखिलेश यादव से लेकर उद्धव ठाकरे, शरद पवार, लालू प्रसाद यादव तक, किसने माना होगा कि पहली ही मुलाकात में इन सबकी पॉलिटिकल केमिस्ट्री मिल जाएगी! यह सच है कि उमर अब्दुल्ला ने कहा, ''इतने लोग एक साथ जुटे हैं ये कोई मामूली बात नहीं है। नीतीश कुमार को इस कामयाबी का श्रेय जाता है। इतने लोगों इकट्ठा करना बड़ी बात है। मकसद ताकत हासिल करना नहीं, यह सत्ता नहीं बल्कि वसूलों की लड़ाई हैं। इरादों की लड़ाई है। हम देश को मुसीबत से निकालने के लिए मिल चुके हैं।''

यह सच है कि प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा ने उस दिन छोटे पर्दे की जगह घेर ली थी l लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पटना की बैठक पर ध्यान देना पड़ा। इस पर हुई चर्चा को अधिक जगह देनी पडी।

पाटलिपुत्र शहर को ऐतिहासिक राजनीतिक विरासत है। डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने कहा था, भारतीय संवैधानिक मूल्ये हमने विदेश से नहीं बल्कि बुद्ध के तत्वज्ञान से ली है। भारत को बुद्ध, महावीर और अशोक की वह विरासत बिहार से मिली।

जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुआ 1974 का आंदोलन में बिहार से शुरू हुआ।

आपातकाल के बाद 1977 में हुई पहले सत्ता परिवर्तन के की प्रेरणा बिहार था।

13 अगस्त 1977 की 'बेलछी' यात्रा इंदिरा गांधी की वापसी का कारण बनी l वह बेलछी नरसंहार में मारे गये दलितों के परिवारों से मिलने गयी थीं l कोई सड़क नहीं थी, तो उन्होंने हाथियों पर नदी पार की। वहां से वह एक नये विश्वास के साथ दिल्ली लौटीं। इंदिराजी की सत्ता में वापसी की राह बिहार से शुरू हुई।

उसी बिहार से अब देश में तीसरे बड़े परिवर्तन का आगाज किया गया है।

ममता बनर्जी ने पटना बैठक को विपक्षी दलों की बैठक कहने पर आपत्ति जताई. उन्होंने कहा, "यह देशभक्तों की बैठक है।"

इसीलिए नीतीश कुमार बार-बार कह रहे हैं कि "स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास उन लोगों द्वारा बदलने की साजिश हो रही है जिन्होंने इसमें भाग नहीं लिया l"

'देश को बचाने के लिए अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियां एक साथ आईं', यह उद्धव ठाकरे का बयान और उनके साथ में बैठीं महबूबा मुफ्ती द्वारा ''आइडिया ऑफ इंडिया'' का जिक्र।

एक तरफ बीजेपी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और दूसरी तरफ देशभक्तिपूर्ण 'आइडिया ऑफ इंडिया'।

यह देशभक्ति और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीच संघर्ष को उजागर करता है।

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने कहा, ''Patriotism is the exact opposite of nationalism: nationalism is a betrayal of patriotism''

महबूबा मुफ्ती ने कहा, ''हम गांधी के देश को गोडसे का देश नहीं बनने देंगे.''

महाराष्ट्र में गांधी पर गोडसे और गोडसेवादीयों द्वारा कई हमले हुए। प्रबोधनकार ठाकरे ने उनमे से दो साजिशों को नाकाम कर दिया l गांधी को बचाया l उस प्रबोधनकार ठाकरे के पोते उद्धव ठाकरे बैठक में महबूबा मुफ्ती के साथ में बैठे थे l कश्मीर के बारे में धारा 370 पर अपने मतभेद भुलाकर वे एकजुट हुए। इसका जिक्र उद्धवजी ने महबूबा मुफ्ती से बात करते हुए किया। फिर महबूबा जी ने कहा, "यह इतिहास बन गया।"

ये है देश को बचाने की एकता, ऐसा पटना बैठक से प्रतीत होता है l देश और देशभक्ति की बदली हुई परिभाषा के पीछे की बेचैनी तब रेखांकित होती है l

विपक्ष की एकता के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं l उनका संयुक्त एजेंडा वर्तमान की चुनौतियों का समाधान किस प्रकार करेगा। गरीबी और महंगाई मुद्दा हैl लेकिन हमें बढ़ी हुई असमानता (Disparity) की खाई का जवाब ढूंढना होगा l परिवर्तन की प्रक्रिया में मध्यम वर्ग की बढ़ती आकांक्षाओं को समायोजित करना होगा। मध्यम वर्ग और ऊंची जातियों की आकांक्षाओं को उस ताकत को कमजोर करना होगा जो जाति-प्रधान हिंदू धर्म ने राष्ट्रवाद के नाम पर हासिल की है।

बीजेपी के 31 फीसदी वोटों के मुकाबले सिर्फ 69 फीसदी वोट जोड़ने से ये मसला हल नहीं होगा l विरोधियों का मत विभाजन इस योग को अमान्य कर देता है। First past the post यह चुनावी प्रणाली बहुमत को सत्ता में जगह भी नहीं देती। अल्पसंख्यक होने के बावजूद जातीय वर्ण वर्चस्व की जीत होती है।बहुसंस्कृतिवाद के देश में विविधता को ही अस्वीकार कर दिया जाता है। संसद की सीटें बढ़ने पर देश की इस बहुलता को आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional representation) के बारे में सोचना होगा। बेशक, इस लंबी दूरी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कुल 69 प्रतिशत जोडना प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए अभी भी कई भाजपा विरोधी छोटी पार्टियों को समायोजित करना होगा।

विभिन्न विचारधाराओं की क्षेत्रीय पार्टियों के एक साथ आने का एक और कारण राज्यों का अशक्त होना है। GST ने राज्यों पर वित्तीय बाधाएं बढा दी हैं। राज्यपाल का पद इतना शक्तिशाली कभी नहीं रहा। सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत तबादलों का अधिकार दिल्ली क्षेत्र से वापस ले लिया गया है। क्या Union of India (संघराज्य ) शब्द अब भारतीय संविधान तक ही सीमित है? ऐसी स्थिति है। इसलिए विपक्ष की एकता अपरिहार्य हो गई है।

सत्ताधारी दल की एक देश, एक कानून, एक भाषा की नीति यहीं नहीं रुकती। भक्तों की भाषा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे, राष्ट्रगान जन गण मन और यहां तक कि स्वतंत्रता दिवस को भी चुनौती देने तक पहुंच गई है l उस भाषा को बोलने वालों के लिए कोई पाबंदी नहीं है। "तिरंगे और संविधान को सीने से लगाकर विरोध करें", कहने वाले उमर खालिद 1000 दिन बाद भी जेल में हैं। मोहसिन की मॉब लिंचिंग करने वाले और बिलकिस बानो पर अत्याचार करने वाले जेल से बाहर हैं।

देश में बेरोजगारी 8.11 फीसदी बढ़ गई है। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में झटका लगा है। केंद्र द्वारा भले ही किसान विरोधी कानूनों को वापस ले लिया गया हो, लेकिन किसानों का असंतोष खत्म नहीं हुआ है l मणिपुर जल रहा है l बिहार का जाती जनगणना अभियान रोकने की कोशिशें चल रही हैं। एक तरफ freebies और दूसरी तरफ समान नागरिक अधिनियम जैसे गैर-मुद्दे सत्ताधारी अभिजात वर्ग के उपकरण बन गए हैं। सरकारी जाँच प्रणाली का दुरुपयोग हो रहा है। क्षेत्रीय पहचानों के साथ दुर्व्यवहार और गरीबों, वंचितों और श्रमिक वर्ग के उत्पीड़न ने देश को अस्त-व्यस्त कर दिया है। चुनौतियों और सवालों की सूची लंबी है।

बहरहाल, पटना की एकता ने निरंकुश सत्ता को झटका दिया है।

दुष्यन्त कुमार के शब्दों में,
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

- कपिल पाटील
(नेशनल जनरल सेक्रेटरी, जनता दल (यूनाइटेड) एवं सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद)

Friday, 30 June 2023

दीवार हिलने लगी ...



सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

प्रसिद्ध हिंदी कवी दुष्यंत कुमार यांच्या कवितेतील या ओळी आहेत.

बिहारचे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यांनी बोलावलेल्या पटण्याच्या बैठकीला देशातले 15 पक्ष हजर होते. चार तास एकाजागी बसून चर्चा झाली. ती बैठक चेहरा ठरवण्यासाठी नव्हती. प्रधानमंत्री कोण? हे ठरवण्यासाठी तर खचितच नव्हती. पटण्याचा हंगामा देशाची सूरत बदलण्यासाठी होता. पटणा बैठकीची कमाई ही की, मोदींच्या विरोधात तुमचा चेहरा कोण? ही चर्चाच या बैठकीने फिजूल ठरवली. भारताने काही अध्यक्षीय लोकशाही स्वीकारलेली नाही.

स्वतः नीतीश कुमार यांनी आपल्याला अशी कोणतीच आकांक्षा नसल्याचं आधीच सांगितलं होतं. जनता दल (यूनाइटेड) चे राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह यांनी पक्षाच्या बैठकीतच उत्साही कार्यकर्त्यांना दटावताना सांगितलं होतं की, ''प्रधानमंत्र्याच्या स्पर्धेत नीतीश कुमार नाहीत. जनता दल (यूनाइटेड) चा तो उद्देश नाही. ही चर्चा करणं हा सुद्धा ऐक्यात अडथळा ठरू शकतो.''

ललन सिंह असं म्हणाले तेव्हाच देशातल्या मीडियाला आणि सगळ्याच राजकीय प्रवाहांना खात्री पटली की, नीतीश कुमार यांचा खटाटोप (प्रयास) हा प्रामाणिक आहे. मनापासून आहे. अन्यथा इतके मोठे दिग्गज नेते नीतीश कुमार यांनी हाक देताच पटण्याला आले नसते. नीतीश कुमार यांचं निष्कलंक आयुष्य, सचोटी, प्रामाणिकपणा आणि बिहारची त्यांनी बदललेली सूरत यातून निर्माण झालेला तो विश्वास होता. आणखी एक गोष्ट म्हणजे, आपल्या राजकीय आयुष्यात नीतीश कुमार यांनी सेक्युलरिझम आणि समाजवाद या मूल्यांशी कधीही प्रतारणा केलेली नाही. NRC च्या विरोधात बिहार विधिमंडळात ठराव करण्याची हिंमत त्यांनी दाखवली.

काँग्रेसचे राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे आणि दस्तूरखुद्द राहुल गांधी या बैठकीला हजर राहिले. कुठेही त्यांनी आपण मोठ्या पक्षाचे नेते आहोत याचा आव आणला नाही. भारत जोडो यात्रेतली कमाई गर्वात तबदील झालेली नाही. कुणालाही क्षणभर तसं वाटलंही नाही. इतक्या सहजपणे राहुल गांधी वावरत होते. नीतीश कुमार यांनी त्यांना बोलायला सांगितलं तेव्हा अत्यंत विनम्रतेने राहुल गांधी म्हणाले, ''आधी खरगे साहेब बोलतील.''

ममतादीदी, स्टॅलिन, अखिलेश यादव यांच्यापासून ते उद्धव ठाकरे, शरद पवार, लालूप्रसाद यादव यांच्यापर्यंत या सगळ्यांचीच राजकीय केमिस्ट्री पहिल्याच बैठकीत जुळून येईल यावर कुणाचा विश्वास होता ! उमर अब्दुल्ला म्हणाले ते खरं आहे, ''इतने लोग एक साथ जुटे हैं ये कोई मामूली बात नहीं है। नीतीश कुमार को इस कामयाबी का श्रेय जाता है। इतने लोगों इकट्ठा करना बड़ी बात है। मकसद ताकत हासिल करना नहीं, यह सत्ता नहीं बल्कि वसूलों की लड़ाई हैं। इरादों की लड़ाई है। हम देश को मुसीबत से निकालने के लिए मिल चुके हैं।''

प्रधानमंत्र्यांच्या अमेरिका दौऱ्याने त्यादिवशी छोट्या पडद्यावरची जागा व्यापली होती खरं. पण इलेक्ट्रॉनिक मीडियाला पटणा बैठकीची दखल घ्यावी लागली. त्यावरच्या चर्चेला अधिक जागा द्यावी लागली.

पाटलीपुत्र नगरीला ऐतिहासिक राजकीय वारसा आहे. भारतीय संविधानातील मूल्ये ही आपण परदेशातून नव्हे तर बुद्धाच्या तत्वज्ञानातून घेतली आहेत, असं डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर म्हणाले होते. बुद्ध, महावीर आणि अशोकाचा तो वारसा याच बिहारमधून भारताला मिळाला आहे.

जयप्रकाश नारायण यांच्या नेतृत्वाखाली 1974 मध्ये झालेलं आंदोलन याच बिहारमधून सुरु झालं होतं.

त्यातून आणीबाणी नंतरचं जे पहिलं सत्तांतर 1977 मध्ये घडलं, त्याची प्रेरणा बिहारनेच दिली होती.

इंदिरा गांधींच्या पुनरागमनासाठी कारण ठरली होती ती 13 ऑगस्ट 1977 ची 'बेलछी' ची यात्रा. बेलछी हत्याकांडात मृत्यू पावलेल्या दलितांच्या कुटुंबांना भेटायला त्या गेल्या होत्या. रस्ता नव्हता तर हत्तीवर बसून नदी पार करून गेल्या. तिथून त्या दिल्लीला परतल्या नवा विश्वास घेऊन. इंदिराजींच्या सत्तेवर परतीचा त्यांचा रस्ता याच बिहारमधून निघाला होता.

त्याच बिहारमधून देशातल्या तिसऱ्या मोठ्या परिवर्तनाची हाक आता दिली गेली आहे.

ममता बॅनर्जी यांनी पटण्याच्या बैठकीला विरोधी पक्षांची बैठक म्हणायला हरकत घेतली. ''ही देशभक्तांची बैठक आहे'', असं त्या म्हणाल्या.

''स्वातंत्र्य लढ्याचा इतिहास त्यात किंचित आणि क्षणभरही सहभागी नसलेले बदलायला निघाले आहेत'', असं नीतीश कुमार पुन्हा पुन्हा सांगत आहेत ते याचसाठी.

''भिन्न विचारधारा असलेले पक्ष एकत्र आले ते देश वाचवण्यासाठी'', उद्धव ठाकरेंचं हे प्रतिपादन आणि त्यांच्याच बाजूला बसलेल्या मेहबूबा मुफ्ती यांनी केलेला ''आयडिया ऑफ इंडिया''चा उल्लेख.

एका बाजूला भाजपचा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आणि दुसऱ्या बाजूला देशभक्तीची 'आयडिया ऑफ इंडिया'.

देशभक्ती विरुद्ध सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या लढाईचा संघर्ष यातून अधोरेखित झाला आहे.

फ्रान्सचे राष्ट्राध्यक्ष इमॅन्युएल मॅक्राँ म्हणाले होते, ''Patriotism is the exact opposite of nationalism: nationalism is a betrayal of patriotism''

''गांधींच्या देशाला गोडसेचा देश आम्ही बनू देणार नाही'', असं मेहबूबा मुफ्ती म्हणाल्या.
गोडसे आणि गोडसेवाद्यांकडून गांधीजींवर महाराष्ट्रात अनेक हल्ले झाले. त्यातले दोन कट प्रबोधनकार ठाकरे यांनी उधळवून लावले. गांधीजींना वाचवलं. त्या प्रबोधनकार ठाकरे यांचे नातू उद्धव ठाकरे या बैठकीला मेहबूबा मुफ्तींच्या बाजूला बसले होते. काश्मीर विषयक 370 कलमाबाबत असलेले मतभेद विसरून ते एकत्र होते. त्याचा उल्लेख उद्धवजींनी मेहबूबा मुफ्तींशी बोलताना केला. तेव्हा त्या म्हणाल्या, ''तो इतिहास झाला.''

देश वाचवण्यासाठी ही एकजूट आहे, असं पटण्याची बैठक सांगते. तेव्हा देश आणि देशभक्तीच्या बदललेल्या व्याख्येची त्यामागची चिंताच अधोरेखित होते.

विरोधकांच्या एकजुटीपुढे अनेक मोठी आव्हानं आहेत. वर्तमानातील प्रश्नांना त्यांचा संयुक्त अजेंडा त्या आव्हानांचा कसा सामोरा जातो हे ठरणार आहे. गरिबी आणि महागाई हे मुद्दे आहेतच. पण वाढलेल्या विषमतेच्या (Disparity) खाईबद्दल उत्तर शोधावं लागेल. मध्यमवर्गीयांच्या वाढत्या आकांक्षाना बदलाच्या प्रक्रियेत जागा करून द्यावी लागेल. मध्यमवर्ग आणि उच्च जातींच्या आकांक्षांनी वर्णवर्चस्ववादी हिंदुत्वाला राष्ट्रवादाच्या नावाखाली मिळालेलं बळ कमी करावं लागेल.

भाजपला मिळणारी 31 टक्के मतं याविरोधात 69 टक्क्यांची नुसती बेरीज करून हा प्रश्न सुटणार नाही. विरोधकांचं मतविभाजन ही बेरीज नाकाम ठरवते. First past the post ही निवडणूक पद्धत बहुमताला सत्तेत जागाही देत नाही. अल्पमतात असूनही जात वर्ण वर्चस्ववादाचा विजय होतो. बहुविध संस्कृतीच्या देशात बहुविधतेलाच नकार मिळतो. देशातील या बहुविधतेला पार्लमेंटच्या जागा वाढतील तेव्हा त्या जागांवर स्थान मिळेल, (Proportional representation) याचा विचार आतापासून करावा लागेल. अर्थात हे लांबपल्ल्याचं लक्ष्य गाठण्यासाठी 69 टक्क्यांची बेरीज हेच प्राथमिक लक्ष्य असलं पाहिजे. त्यासाठी अजूनही अनेक भाजपविरोधी छोट्या पक्षांना सामावून घ्यावं लागेल.

भिन्न विचारधारांचे प्रादेशिक पक्ष या एकजुटीत उतरले आहेत त्याचं आणखीन एक कारण म्हणजे, राज्यांचे हिरावले गेलेले अधिकार. GST मुळे राज्यांना आर्थिक मर्यादा आल्या आहेत. राज्यपाल हे पद कधी नव्हे इतके ताकदवर बनले आहे. दिल्ली प्रदेशाकडून सुप्रीम कोर्टाने मान्य केलेला बदल्यांचा अधिकार काढून घेण्यात आला आहे. Union of India (संघराज्य ) हे शब्द आता भारतीय संविधानापुरते मर्यादित राहिले आहेत काय? अशी स्थिती आहे. विरोधकांची एकजूट त्यामुळे अपरिहार्य बनली आहे.

एक देश, एक कानून, एक भाषा हे सत्ताधारी पक्षाचं धोरण तिथेच थांबत नाही. राष्ट्रध्वज तिरंगा, राष्ट्रगीत जन गण मन आणि स्वातंत्र्य दिनालाही आव्हान देण्यापर्यंत भक्तांची भाषा पोचली आहे. ती भाषा बोलणाऱ्यांना अटकाव नाही. ''तिरंगा आणि संविधान छातीशी घेऊन प्रतिकार करा'', असं सांगणारा उमर खालिद मात्र 1000 दिवस झाले तरी तुरुंगात आहे. मोहसीनचं मॉब लिंचिंग करणारे आणि बिल्किस बानोवर अत्याचार करणारे तुरुंगाच्या बाहेर आले आहेत.

देशात बेरोजगारीचा दर 8.11 टक्क्यांनी वाढला आहे. शिक्षण आणि आरोग्य क्षेत्रांत पिछेहाट झाली आहे. शेतकरी विरोधी कायदे केंद्राने वापस घेतले असले तरी शेतकऱ्यांचा असंतोष संपलेला नाही. मणिपूर जळत आहे. बिहार मधल्या जात जनगणनेची मोहीम थांबण्याचा प्रयत्न सुरु आहे. एका बाजूला freebies आणि दुसऱ्या बाजूला समान नागरिक कायद्यासारखे नॉन इश्यूज ही सत्ताधाऱ्यांची हत्यारं बनली आहेत. सरकारी तपास यंत्रणेचा कधी नव्हे इतका गैरवापर सुरु आहे. प्रादेशिक अस्मितांशी चाललेला दुर्व्यवहार आणि गरीब, वंचित, कष्टकरी वर्गाचं दमन यामुळे देशाची घडी विस्कळीत झाली आहे. आव्हानं आणि प्रश्नांची यादी मोठी आहे.

पटण्याच्या एकजुटीने निरंकुश सत्तेला धक्का मात्र मिळाला आहे.

दुष्यंत कुमार यांच्याच शब्दात,
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी ...,

मात्र देशभक्तांच्या पटण्यातील निर्धारातून बुनियाद हलली पाहिजे.
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए l

- कपिल पाटील
(राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड) आणि सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद)

Saturday, 10 June 2023

अन्यथा महाराष्ट्राला मोठी किंमत चुकवावी लागेल...



महाराष्ट्राचे सर्वज्येष्ठ नेते शरद पवार यांना अमरावतीच्या तरुणाने दिलेल्या धमकी मागे नथुरामी शक्ती उघड आहेत. त्यांचा शोध घेण्याचीही गरज नाही. गरज आहे त्यांचा बंदोबस्त करण्याची आणि ती जबाबदारी आहे राज्य शासनाची. 

डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, कॉ. गोविंद पानसरे, डॉ. एम. एम. कलबुर्गी आणि गौरी लंकेश यांच्या हत्ये पाठोपाठ आता "तुमचा दाभोलकर करू" अशी थेट शरद पवार यांना जीवे मारण्याची धमकी देण्याची हिंमत होऊ शकली कारण नथुरामी शक्तींचा बंदोबस्त झालेला नाही. 

दाभोलकर, पानसरेंच्या हत्येपूर्वी सनातनच्या माध्यमातून काम करणाऱ्या शक्तींनी 'राक्षसांच्या' निर्दालनाची भाषा केली गेली होती. नंतर त्यांची हत्या झाली. तशीच अत्यंत घातकी, असभ्य आणि निर्लज्ज भाषा शरद पवारांच्या विरोधात वापरली जात आहे. त्यामुळे ट्रोल गॅंगमधल्या कुणीतरी केलेला धमकीचा उपदव्याप म्हणून दुर्लक्ष करता कामा नये. अन्यथा महाराष्ट्राला मोठी किंमत चुकवावी लागेल.

औरंगजेबाचं मोबाईलवरील स्टेटस प्रकरण असेल किंवा शरद पवार आणि अन्य नेत्यांना दिल्या जाणाऱ्या जीवे मारण्याच्या धमक्या असतील यामागे काम करणारी प्रवृत्ती समान आहे. 

एका बाजूला उन्मादी झुंडी रस्त्यावर उतरवायच्या आणि दुसऱ्या बाजूला राक्षस वधाची भाषा करत धमक्या द्यायच्या यामागे समान नियोजनबद्ध षडयंत्र काम करत आहे. 

ट्रोल गॅंगने शरद पवार नास्तिक असल्याच्या आरोपाची राळ उठवत धमकीच्या समर्थनार्थ पोस्ट टाकायला सुरुवात केली आहे. हे काही अचानक घडलेलं नाही. प्रश्न कुणी कुणाला धमकी दिली हा नाही. धमकी मागचं प्राचीन तंत्र आणि वापरली जाणारी भाषा काय सांगते?

आपली सहचारिणी सरस्वती वैद्य हिचे असंख्य तुकडे करून कुकरमध्ये शिजवण्याची, कुत्र्याला खाऊ घालण्याची अमानुष निर्दय क्रौर्याची  परिसीमा मनोज सानेने गाठली. त्यातलं क्रौर्य आणि विकृती ट्रोल गॅंगच्या पोस्टमधल्या भाषेत डोकावताना दिसते. 

शरद पवार नास्तिक आहेत त्यासाठी सुप्रियाताईंच्या लोकसभेतील भाषणाचा दाखला पुन्हा पुन्हा का दिला जात आहे. त्यामागचं कारण काय? 

कुरुक्षेत्रावरच्या युद्धानंतर हस्तिनापुरात धर्मराज युधिष्ठिराचा राज्याभिषेक झाला. ब्रह्मवृंदांचा शंख ध्वनी थांबवत चार्वाक पंथाच्या एका ब्राह्मणाने ''युद्धातल्या संहारात धर्म कोणता?'' असा धर्मराजालाच सवाल केला. सुवर्ण मुद्रांच्या भिक्षेसाठी जमलेला ब्रह्मवृंद त्या सवालाने खवळला. ''हा ब्राह्मण कपटी राक्षस आहे. नास्तिक चार्वाक आहे.'' असा आरोप करत खवळलेल्या ब्रह्मवृंदांची झुंड त्याच्यावर चालून गेली. ''थांब चार्वाक, आमच्या नुसत्या हुंकाराने आम्ही तुझा वध करतो.'' धर्मराजासमोरच त्याची हत्या झाली. 

श्रावस्तीला विक्रमादित्याच्या दरबारात मनोर्हित नावाच्या बौद्ध पंडिताचा असाच झुंडबळी घेतला गेला. त्या झुंडीतून बाहेर पडण्याचा प्रयत्न करताना मनोर्हित आपला शिष्य वसुबंधूला म्हणाले, ''पक्षपाती लोकांच्या जमावात न्याय नसतो. फसवल्या गेलेल्या अज्ञानी लोकांमध्ये विवेक नसतो.'' 

मुख्यमंत्र्यांनी धमकीची चौकशी करण्याचे आदेश दिले आहेत. तर उपमुख्यमंत्र्यांनी ''ही महाराष्ट्राची परंपरा नाही'', असं म्हटलं आहे. 

प्रश्न असा आहे की, 
आधी ट्रोलिंग, मग रस्त्यावर जमाव आणि जीवे मारण्याच्या धमक्या. विवेक आणि उदारतेची महाराष्ट्राची परंपरा पुसून टाकण्यासाठी जमावतंत्राचा वापर सुरु झाला आहे. 
 
लोकशाहीत टोकाचे मतभेद आणि मनभेदही मान्य केले पाहिजेत. पण मनुष्य भेद आणि मनुष्य वधापर्यंत ते पोचतात तेव्हा कोण अडवणार?

आणि राजकीय अवकाळीत लांबलेल्या पावसाची चिंता कुणाला आहे?

Wednesday, 3 May 2023

... म्हणून महाराष्ट्र शाहीर प्रत्येकाने पाहायला हवा

 




'महाराष्ट्र शाहीर' अप्रतिम चित्रपट. प्रत्येक मराठी माणसाने पाहायला हवा. ही केवळ शाहीर साबळेंची गोष्ट नाही. महाराष्ट्राच्या शाहीरी परंपरेची ही गोष्ट आहे. महाराष्ट्राच्या लोकसंगीत, लोककला आणि लोकसंस्कृतीची लोकधारा आहे. स्वातंत्र्य चळवळीतल्या शाहीरी योगदानाची कथा आहे. साने गुरुजींच्या पंढरपूर सत्याग्रहात आणि अस्पृश्यता निर्मूलनात महाराष्ट्र शाहीरांनी दिलेल्या योगदानाची कथा आहे.

जेमतेम सातवी पर्यंत पोचलेल्या पण गाण्याचं वेड लागलेल्या एका मुलाने घरातल्या आग्रहाखातर गाणं सोडलं. पण साने गुरुजींनी "गाणं हा तुझा श्वास आहे, तो तू मोकळेपणाने घे." असं त्या मुलाला सांगितलं. आणि महाराष्ट्राला महाराष्ट्र शाहीर मिळाला.

संयुक्त महाराष्ट्राच्या लढाईत आपल्या शाहीरीने महाराष्ट्र पेटवणाऱ्या या शाहीराला यशवंतराव चव्हाण यांनी काँग्रेसच्या प्रचाराला बोलावलं, तेव्हा शाहीर साबळे यांनी त्यांना ठामपणे नकार दिला. मराठी माणसाच्या अन्यायावरील बाळासाहेब ठाकरे यांच्या मोहिमेला साथ देण्यासाठी 'आंधळं दळतंय' या लोकनाट्याचा धडाका शाहीर साबळेंनी लावला. पण त्याच शिवसेनेला हिंसाचारी वळण लागल्यावर शाहीर त्यापासून अलिप्त झाले.

'गर्जा महाराष्ट्र माझा' हे राजा बढेंचं गीत आज महाराष्ट्र गीत बनलंय. तेही शाहीर साबळे यांच्या आवाजातूनच. त्या गाण्याच्या सगळ्या ओळी शाहीर साबळेंनी आपल्या जीवनात प्रत्यक्ष अनुभवल्या आहेत. दारिद्र्याशी संघर्ष केला. देशासाठी, संयुक्त महाराष्ट्रासाठी, समतेच्या चळवळीसाठी तितक्याच ठामपणे ते उतरले. महाराष्ट्र विरोधकांना यमुनेचं पाणी पाजलं. त्यांच्या शाहीरीतून अवघा सह्याद्री गरजला. विचाराने ते पक्के समाजवादी होते.

शाहीर साबळेंनी आपल्या गावात पसरणी (तालुका वाई) येथे मंदिर प्रवेश सत्याग्रह केला तेव्हा साने गुरुजींना बोलवलं होतं. साने गुरुजींसोबत सेनापती बापट, कर्मवीर भाऊराव पाटील, क्रांतिसिंह नाना पाटील आले होते. महाराष्ट्र ज्यांच्या ज्यांच्या मुळे घडला अशी ही मोठी माणसं होती. शाहीर साबळे तेव्हा लहान होते. पण आता ते त्याच रांगेत जाऊन बसले आहेत. सह्याद्रीच्या कातळावर कृष्णराव साबळेंनी आपल्या शाहीरीने अभिमानाची लेणी कोरली.

'महाराष्ट्र शाहीर' हा शाहीर साबळेंचा बायोपिक. पण कुठेही तो डॉक्युमेंटरी बनला नाही. त्यात नाट्य आहे. एंटरटेनमेंट आहे. सिनेमाचा सगळा मसाला आहे. एखादी म्युझिकल नाईट पहावी तसा हा चित्रपट आहे. शाहीर साबळेंच्या सगळ्या गाण्यांचा मनमुराद आनंद घेत पहावा. मराठी चित्रपट असूनही प्रोडक्शनच्या खर्चात केदार शिंदेने जरा सुद्धा कंजूषी केलेली नाही. अफलातून पिक्चर आहे. थेटरात जाऊन बघण्या सारखा.

अंकुश चौधरीने लाजवाब काम केलंय. शाहीर साबळेंच्या भूमिकेचं बेरिंग अतिशय चांगलं पकडलंय. शाहिरांची पत्नी भानुमती साबळे यांची भूमिका सना शिंदेंने समर्थपणे निभावली आहे. ‘संगीत देवबाभळी’ या नाटकातून कसदार अभिनयाचा ठसा उमटवणाऱ्या शुभांगी सदावर्ते यांनी शाहीर साबळे यांची आई लक्ष्मीबाई साबळे यांच्या भूमिकेत जीव ओतला आहे. शाहिरांची दुसरी पत्नी राधाबाई साबळे यांची भूमिका  अश्विनी महांगडे यांनी तितक्याच ताकदीने निभावली आहे. छोट्या पडद्यावरचा प्रसिद्ध अभिनेता अमित डोलावत याने साने गुरुजींची भूमिका उत्तमरीत्या साकारली आहे. शाहिरांच्या आजीची भूमिका निर्मिती सावंत यांनी निभावली आहे. सर्वच कलाकारांची कामं चांगली आहेत. आणि अर्थात केदार शिंदेंचं दिग्दर्शन व अजय अतुलचं संगीत जोरदार.

मराठी भाषा, कला आणि संस्कृतीवर प्रेम करणाऱ्या प्रत्येकाने 'महाराष्ट्र शाहीर' पहायला हवा. 
- कपिल पाटील

Sunday, 23 April 2023

निखिल वागळे आग आहेत


विस्तव हा शब्द अधिक चांगला. विस्तव हातावर घेता येत नाही. विस्तव स्वतः जळत असतो. त्यातून निर्माण होणारी उर्जा नव्या निर्मितीला आच देत असते. विस्तव जळत असतो स्वतः, पण वाईटाची राख करण्यासाठी. १९७७ पासून हा निखारा पेटलेला आहे.

अवघ्या २२ - २३ व्या वर्षी ते संपादक झाले. दिनांक साप्ताहिकाचे. बाळशास्त्री जांभेकरांच्या नंतर इतक्या तरुण वयात संपादक झालेला दुसरा कोणी नसेल. आता ती परंपरा हरवली आहे. महाराष्ट्रातल्या पत्रकारितेची आणि संपादकांची खास परंपरा राहिली आहे, जे जे अनिष्ट आहे त्या विरोधात उभं राहायचं, अन्यायाच्या विरोधात आवाज उठवत राहायचं. त्या सगळ्या संपादकांची त्या त्या वेळची सगळी मतं बरोबर असतीलच असं नव्हे. शेवटी आकलनाचा, उपलब्ध साधनांचा, सामाजिक अवकाशाचा, आर्थिक - सामाजिक संबंधांचा प्रश्न असतो खरा. परंतु बाळशास्त्री जांभेकर आणि फुले - शाहू - आंबेडकरी ही परंपरा एका बाजूला आणि दुसऱ्या बाजूला टिळक - आगरकरी परंपरा. या परंपरेत एक सामान दुवा आहे, यातली एकही परंपरा अप्रामाणिक नाही. जी बाजू समोर आली, जे सत्य समोर आलं, त्या सत्याच्या बाजूने ते उभे राहिले. सुधारणांचा त्यांनी कैवार घेतला. या परंपरेत निखिल वागळे अगदी फिट्ट बसतात.

विस्तवासारखी वागळेंची भाषा प्रखर आहे. जाळते ती. वेदना देते. त्या आगीत सुक्याबरोबर ओलंही कधीकधी जळतं. पण त्याचा दोष विस्तवाला, आगीला कसा देता येईल?

निखिल वागळेंसोबत १९७८ पासून आहे. राष्ट्र सेवा दलाच्या शिबिरात. अभ्यासवर्गात. साप्ताहिक दिनांकच्या कचेरीत. नंतर नामांतराच्या चळवळीत. नंतर महानगरमध्ये. त्यावेळच्या सेनेच्या दहशतीच्या विरोधात लढताना, जातीयवाद्यांशी पंगा घेताना निखिल वागळे यांना खूप जवळून पाहिलं आहे. त्यांचं प्रेम, त्यांचं मैत्र्य जितकं अनुभवलं तितकाच राग आणि भांडणही अनुभवलं. काही प्रश्नांवरच्या भूमिकांमधलं अंतरही पाहिलं.

वागळेंसाठी वाद नवे नाहीत.
वादामधली त्यांची बाजू १०० टक्के बरोबर असते, असं मी म्हणणार नाही. पण त्यांची भूमिका ठाम असते. आणि आपल्या भूमिकेशी ते हिंमतीने, प्रामाणिकपणे घट्ट चिकटून राहतात. त्या भूमिकेसाठी ते युद्ध खेळतात. त्यासाठी हवी ती किंमत मोजतात. मार खातात. तब्बेतीची पर्वा करत नाहीत. मृत्यूला भीत नाहीत.

कुणी तरी जात काढली म्हणून सांगतो आहे,
डंके की चोट पर एक गोष्ट नक्की सांगेन की, ते दलित, आदिवासी, पिछडे, बहुजन, अल्पसंख्यांक, स्त्रिया, उपेक्षित घटक यांच्या बाजूनेच आहेत. निखिल वागळे लढणारा पत्रकार आहे. जीव जाईल पण जातीयवाद्यांशी, हुकूमशहांशी, प्रस्थापित व्यवस्थेशी कधीही हात मिळवणी करणार नाही. फॅसिझमच्या विरोधातली त्यांची भूमिका स्वच्छ आहे.

फॅसिझम विरोधात जे जे लढताहेत त्यांना प्रामाणिकपणे सांगितलं पाहिजे की शुद्धतेच्या दांभिक कसोट्या कुणी लावू नये. फॅसिझमच्या विरोधात जो जो लढतो आहे तो आपला मानला पाहिजे. या देशातला फॅसिझम हा हिटलरी फॅसिझम नाही हा नथुरामी फॅसिझम आहे. फॅसिझमच्या विरोधात लढणाऱ्यांनी तुझं शस्त्र बोथट, माझं हत्यार धारधार म्हणत परस्परांवर वार करण्यात काय हाशील आहे?

नथुरामी फॅसिझमच्या पातळ यंत्राशी लढण्यासाठी सगळ्यांना एकजूट करावी लागेल. गांधी - आंबेडकरी विचारांच्या आणि मार्गाच्या समन्वयाशिवाय ते शक्य नाही. हा खरा 'आजचा सवाल' आहे. निखिल वागळेंसारख्या निर्भय पत्रकारांची भूमिका त्यात निर्णयाक असणार आहे.

निखिल वागळे यांचा आज वाढदिवस आहे. ते पासष्टीत पदार्पण करत आहेत. त्यांना निरोगी आणि दीर्घ आयुष्यासाठी खूप खूप शुभेच्छा आणि मनापासून सलाम!
- कपिल पाटील

Thursday, 23 March 2023

मासिक पाळीच्या रजेचा मुद्दा



8 मार्च महिला दिनी विधान परिषदेत झालेल्या चर्चेत आमदार कपिल पाटील यांनी केलेल्या सूचना.

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सभापती महोदया, महिला दिनाच्या निमित्ताने मांडण्यात आलेल्या प्रस्तावावर माझे विचार मांडण्याकरिता मी उभा आहे. सर्व प्रथम आपल्याला व सर्व महिला सदस्यांना मी महिला दिनाच्या हार्दिक शुभेच्छा देतो.

सभापती महोदया, भारतातील महिलांचा इतिहास फार काही चांगला नाही. अन्यथा अहिल्येला शिळा होऊन राहावे लागले नसते. सीतेला वनवास भोगावा लागला नसता व द्रौपदीला वस्त्रहरणाला सामोरे जावे लागले नसते. मी प्रश्नांचा पाढा वाचणार नाही केवळ काही सूचना करणार आहे. पहिले महिला धोरण जाहीर करण्याचे श्रेय जरी महाराष्ट्र शासनाला असले तरी देखील महिला धोरणातील घोषित बाबी आजतागायत कधीही पूर्ण होऊ शकल्या नाहीत, ही वस्तुस्थिती नाकारता येणार नाही. आपण ५० टक्के आरक्षणाची मागणी करतो. आजही शासकीय व निम शासकीय सेवेत महिलांचे प्रमाण २० टक्क्यांपेक्षा कमी आहे. हा आकडा पुढे - मागे होऊ शकतो. माझी मागणी आहे की, किमान माध्यमिक व प्राथमिक शाळांमध्ये बिहार राज्याप्रमाणे महिलांना ५० टक्के आरक्षण करावे. अनेकदा स्त्री कर्मचाऱ्यांकडे बघण्याचा दृष्टीकोन वेगळा असतो, त्यांची हेटाळणी होते. अधिकारी स्त्री असेल तर तिचे ऐकले जात नाही. ती जर सहायक असेल तर तिला दटावले जाते. हा दृष्टीकोन बदलणे आवश्यक आहे. स्त्री धर्माच्या काही गोष्टी असतात त्या बाबत बघण्याचा दृष्टीकोन बदलणे आवश्यक आहे. बिहार व केरळ राज्यात स्त्री कर्मचारी, शिक्षिका व विद्यार्थीनींना प्रत्येक महिन्याला मासिक पाळीकरिता दोन दिवसांची रजा दिली जाते किमान एक दिवसाची तरी रजा दर महिन्याला सर्व महिला कर्मचारी, शिक्षिका विद्यार्थीनीना द्यावी, अशी मी मागणी करतो.

सभापती महोदया, आपल्याकडे मिड डे मिलचा कार्यक्रम राबवण्यात येतो. या योजनेत सर्व महिला असतात. पोळया करण्यापासून भाजी करण्यापर्यंत महिलांचा यामध्ये सहभाग असतो. मात्र या कामाचे ठेके पुरुषांना दिले जातात. प्रत्येक शाळेकडून गावातील महिला बचत गटालाच ठेका दिला गेला पाहिजे. ही साधी गोष्ट केली तर गावातील महिला आपल्या मुलांसाठी सकस व चांगले जेवण बनवतील. याची खात्री देता येईल. ही सहज जमण्यासारखी गोष्ट आहे. माझी शासनाला विनंती आहे की, आपण ते करावे.

सभापती महोदया, राज्यात एकूण ६ कोटी महिला आहेत. त्यापैकी साधारण २० ते २२ टक्के महिला एससी व एसटी प्रवर्गातील आहेत. अपंग महिला अडीच टक्क्यांहून अधिक आहेत. ज्येष्ठ महिला १० टक्क्यांहून अधिक आहेत. घरकाम करणाऱ्या १५ लाख आहेत. शरीरविक्री व्यवसायात ६६ हजार महिला आहेत. या गटाच्या प्रश्नांकडे दुर्लक्ष झालेले आहे. या गटाकडे अधिक लक्ष देण्याकरिता राज्याच्या महिला धोरणामध्ये उल्लेख व्हावा अशी माझी विनंती आहे. सन्माननीय सदस्य श्री.श्रीकांत भारतीय यांनी केलेल्या सूचनेशी मी सहमत आहे. अनाथालयातून बाहेर पडणाऱ्या महिलेचे कोणीच नसते. यामुळे ती अधिक एकाकी होते. त्यांच्यासाठी स्वतंत्र केंद्र तयार केले पाहिजे. शहरांमध्ये काम करणाऱ्या महिलांकरिता आपण वसतिगृह तयार केले आहे. तसे काही करता आले तर ते करावे.

सभापती महोदया, शाळांमध्ये मुलींना प्रती दिन केवळ १ रुपया उपस्थिती भत्ता देण्यात येतो. अजूनही मुलींचे शाळेतील प्रमाण वाढलेले नाही, सभापती महोदया, आपण सांगितल्यानुसार कोविड काळात बालविवाहांचे प्रमाण प्रचंड प्रमाणावर वाढले. या बरोबरच मुलींचे शाळेतील गळतीचे प्रमाण देखील वाढले. माझी विनंती आहे की, मुलींसाठी उपस्थिती भत्ता दिवसाला किमान १० रुपये केला पाहिजे. या छोट्या वर्गासाठी हा उपस्थिती भत्ता वाढविला तर मुलींचे शाळेतील प्रमाण वाढण्यास मदत होईल.

सभापती महोदया, स्त्री उद्योजकांसाठी Single window system सुरु केली तर अनेक स्त्री उद्योजिका startup करु शकतील.

सभापती महोदया, महिलांसाठी सहा महिने प्रसुती रजा देण्यास सुरुवात केली आहे. परंतु पुरुषांना आजही स्त्रीच्या प्रसुती वेदना कळत नाहीत. प्रसुतीच्या तारखेपासून पुरुषाला किमान १५ दिवसाची रजा दिली तर तो आपल्या पत्नीच्या वेदनेमध्ये आणि निर्मितीच्या आनंदात सहभागी होऊ शकेल. या सर्व बाबींचा आपण विचार करावा.

सभापती महोदया, आपण मला बोलण्याची संधी दिल्याबद्दल आपले आभार मानतो व माझे भाषण थांबतो.
धन्यवाद!

- कपिल पाटील

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मासिक पाळीची रजा द्या - आमदार कपिल पाटील 

अर्थसंकल्पीय अधिवेशन l ८ मार्च २०२३


Thursday, 23 February 2023

कर्पूरी ठाकुर 2.0

 सामाजिक न्याय की कल्पना को अस्वीकार करनेवालों ने नीतीश कुमार और उनकी सरकार के खिलाफ सुरंगें बनाना शुरू कर दिया है।


 
मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुआ था वो लड़का। नाई समाज का पहला शिक्षित लड़का था। घर में घनघोर गरीबी थी। बेटे की उपलब्धि से पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे बेटे को उस गाँव के सबसे पढ़े-लिखे और ऊंची जाति के मुखिया के पास ले गए। 'मेरा बेटा फर्स्ट क्लास आया है। इसे और आगे बढ़ना है। आप इसे आशीर्वाद दीजिए।'

'फर्स्ट क्लास आया तो मैं क्या करूं? पहले मेरे पैर दबाओ।'

अपमान और वेदना की उस घटना से कर्पूरी ठाकुर के मन को गहरी चोट पहुंची।

वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उस चोट ने कभी प्रतिशोध का रूप नहीं लिया। अपमान का वो दर्द उनके संकल्प को और मजबूत करता गया।

बिहार के पिछड़े और अति पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के लिए, उनके उत्थान के लिए फैसले लेने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। छोटी-छोटी पिछड़ी जातियों के समूहों को उन्होंने न्याय दिलाने का प्रयास किया। उनके निर्णय आरक्षण और रियायतों तक ही सीमित नहीं थे। उन्होंने बिहार में पिछड़े वर्ग का नया नेतृत्व तैयार किया। जब उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा, तब उनके नाम पर कोई मकान तक नहीं था। उनका परिवार लोगों के बाल काटकर अपना जीवन यापन करता था।

कर्पूरी ठाकुर जब कॉलेज में थे तो एआईएसएफ में थे। उस समय का समस्त युवा वर्ग शोषण और असमानता के विरुद्ध मार्क्स के दर्शन से प्रभावित था। लेकिन भारतीय मार्क्सवादी आंदोलन में उन्हें जाति के सवालों का जवाब नहीं मिला, इसलिए उनका झुकाव समाजवादी आंदोलन की ओर हो गया। डॉ. राममनोहर लोहिया की जाति नीति से आंबेडकरवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। डॉ. राम मनोहर लोहिया और एसएम जोशी गांधी को माननेवाले समाजवादी थे। लेकिन इस समाजवादी नेतृत्व को साथ लेकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। आंबेडकर खुद को समाजवादी कहते थे। महाराष्ट्र के समाजवादी नेता और कार्यकर्ता पहले ही महाड और पर्वती के सत्याग्रह में शामिल हो चुके थे। अगर कर्पूरी ठाकुर ने समाजवादी रास्ता नहीं चुना होता तो आश्चर्य होता। 

डॉ. राम मनोहर लोहिया के मंत्र 'पिछडा पावे सौ में साठ' ने उत्तर भारत की राजनीति में हलचल मचा दी। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ओबीसी जातियों से नए नेतृत्व का उदय हुआ। स्वयं ओजस्वी तेज के साथ।

किसने किसे मुख्यमंत्री बनाया, आजकल ये दावे किए जाते हैं। लेकिन ये चर्चा व्यर्थ है। लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में शीर्ष पर पहुंचे तो स्वयं के प्रयासों और स्वयं की प्रतिभा से। उनके साथ उत्तर भारत के कई दलित और ओबीसी नेता खड़े रहे तो वो डॉ. राममनोहर लोहिया के वैचारिक प्रभाव से।

लेकिन एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि बिहार में वैचारिक निष्ठा से राजनीति करने वाले बड़ी संख्या में थे और अब भी हैं। ये समाजवादी नेता गांधी-आंबेडकर और लोहिया-जयप्रकाश को माननेवाले थे। पिछली पीढ़ी के बीपी मंडल, रामसुंदर दास, देवेंद्र प्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, रघुवंश प्रसाद हों या वर्तमान में नीतीश कुमार या लालू प्रसाद यादव जैसे दिग्गज नेता या उनके साथ खड़े अन्य नेता जैसे
तेजस्वी यादव, राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह, विजय चौधरी, वशिष्ठ नारायण सिंह, शिवानंद तिवारी से लेकर देवेशचंद्र ठाकूर, मनोजकुमार झा, उमेश सिंह कुशवाहा, अफाक अहमद खां तथा कन्हैया कुमार तक बिहार में प्रगतिशील विचार का हर नेता लोहिया, जयप्रकाश के बाद कर्पूरी ठाकुर को मानता है। हालांकि कर्पूरी ठाकुर लोहिया, जयप्रकाश जैसे दार्शनिक नहीं थे, लेकिन राजनीतिक सत्ता के माध्यम से अपनी वैचारिक निष्ठा का आविष्कार करने वाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। सामाजिक न्याय के लिए अपनी सत्ता का त्याग करनेवाले वे पहले मुख्यमंत्री थे। राजनीति में त्याग और बलिदान का महत्व शायद कम हो गया हो। लेकिन इसका सबसे पहला उदाहरण कर्पूरी ठाकुर ही हैं।

पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने के दृढ़ निश्चय के कारण कर्पूरी ठाकुर को सत्ता छोड़नी पड़ी थी। मुंगेरीलाल कमेटी की सिफारिश पर वे सवर्णों के कमजोर लोगों को भी न्याय दिलाने वाले थे। इसके बावजूद कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।

कर्पूरी ठाकुर की जन्म शताब्दी वर्ष शुरू होते ही एक बार फिर वही संघर्ष शुरू हो गया है।
नीतीश कुमार ने जातिगत गणना और सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का कार्यक्रम शुरू किया है। सामाजिक न्याय की कल्पना को अस्वीकार करनेवालों ने नीतीश कुमार और उनकी सरकार के खिलाफ सुरंगें बनाना शुरू कर दिया है।

डॉ. आंबेडकर द्वारा ओबीसी के लिए अनुच्छेद 340 के तहत किए गए प्रावधान, राम मनोहर लोहिया का 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' मंत्र, पिछड़ों और अतिपिछड़ों के लिए कर्पूरी ठाकुर के प्रयासों को प्रत्यक्ष में लागू करने वाले नीतीश कुमार पहले देश के किसी राज्य के मुख्यमंत्री हैं। जातिगत जनगणना उनके द्वारा लिया गया एक साहसिक निर्णय है।

कर्पूरी ठाकुर ने सवर्णों के प्रति घृणा के तहत कभी कोई कार्य नहीं किया। लेकिन वे सामाजिक न्याय के मुद्दे पर जोर देते थे। फिर भी कर्पूरी ठाकुर को पद छोड़ना पड़ा। लेकिन उनके इस त्याग से बिहार में बड़ी संख्या में वंचित, पीड़ित और शोषित लोगों में जागरूकता आई। इसी जागरूकता को साथ लेकर नीतीश कुमार ने दूसरा बड़ा प्रयोग शुरू कर दिया है। उनका पहला प्रयोग अति पिछड़ों को न्याय दिलाना था। इसमें वे सफल रहे। देश में पिछड़ों, दलितों और सभी समुदायों की महिलाओं को बराबरी की भागीदारी देने का फैसला सर्वप्रथम नीतीश कुमार ने ही लिया। इससे बिहार में एक मजबूत दुर्ग का निर्माण हुआ्। 'न्याय' के विरोधी इस दुर्ग को कभी भेद नहीं पाए। नीतीश कुमार की कार्य पद्धति है कि सवर्णों को चोट पहुंचाए बिना काम किया जाए।

चाहे सीएए, एनआरसी का प्रश्‍न हो या सामाजिक न्याय का, नीतीश कुमार ने हमेशा विरोधियों को करारा जवाब दिया है। कोई भी अन्य राज्य इतने स्पष्ट रूप से सेक्यूलर रुख अपनाते हुए सत्ता का संतुलन कायम नहीं रख पाया है।

देश में धार्मिक द्वेष को बढ़ाकर विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास हर संभव हो रहा है । जातिगत जनगणना के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट न जाते तो आश्चर्य होता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर जातिगत गणना का रास्ता साफ कर दिया है। जातिगत जनगणना का मुद्दा बिहार तक ही सीमित नहीं है। यह देश के सभी राज्यों के लिए एक अहम मुद्दा है। ये राजनीति नहीं, सामाजिक न्याय का मुद्दा है। इसके माध्यम से वंचित समूहों की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

कर्पूरी शताब्दी पर उन्हें स्मरण करने और उनका अभिवादन करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? नीतीश कुमार और बिहार सरकार द्वारा स्वीकार किए गए इस मार्ग का पूरा देश इंतजार कर रहा है।

- कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद . राष्ट्रीय महासचिव, जनता दल (यूनाइटेड)

Tuesday, 24 January 2023

कर्पूरी ठाकूर 2.0



मॅट्रिकला फर्स्ट क्लासमध्ये पास झाला होता तो मुलगा. नाभिक समाजातला पहिला शिकलेला मुलगा. घरात दारिद्रय. बापाला कोण आनंद झाला. त्या गावातल्या सर्वात शिक्षित आणि उच्च जातीतल्या प्रमुखाकडे मुलाला बाप घेऊन गेला. 'बेटा फर्स्ट क्लास आया है l आगे जाना है, आशीर्वाद दिजीए l'

'फर्स्ट क्लास आला मग काय करू? आधी माझे पाय दाबून दे.'

अपमान आणि वेदनेचा तो प्रसंग कर्पूरी ठाकूर यांच्या मनावर खोल जखम करून गेला.

बिहारचे दोनदा मुख्यमंत्री झाले ते. पण त्या जखमेने कधी सुडाचं रूप घेतलं नाही. अपमानाच्या वेदनेने त्यांचा निर्धार अधिक प्रखर होत गेला.

बिहार मधल्या पिछड्या आणि अतिपिछड्यांसाठी, दलित आणि आदिवासींसाठी, त्यांच्या उत्थानासाठी निर्णय घेणारे ते पहिले मुख्यमंत्री. छोट्या छोट्या अतिपिछड्या जात समूहांना न्याय देण्याचा त्यांनी प्रयत्न केला. आरक्षण आणि सोयी सवलतीं पुरते त्यांचे निर्णय मर्यादित नव्हते. बिहारमधल्या मागास वर्गातलं नवं नेतृत्व त्यांनी उभं केलं. मुख्यमंत्री पद सोडावं लागलं तेव्हा त्यांच्या नावावर घर नव्हतं. कुटुंबाचा उदरनिर्वाह केशकर्तनातूनच चालत होता.

कर्पूरी ठाकूर कॉलेजमध्ये असताना एआयएसएफमध्ये होते. शोषण आणि विषमतेच्या विरोधातल्या मार्क्सच्या तत्वज्ञानाने त्या काळात सगळेच तरुण भारावत असत. पण जातीच्या प्रश्नांना भारतीय मार्क्सवादी चळवळीत उत्तरं मिळत नाहीत म्हणून समाजवादी चळवळीकडे ते ओढले गेले. डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या जातीनीतीशी आंबेडकरवादाचं घट्ट नातं आहे. डॉ. राममनोहर लोहिया आणि एस. एम. जोशी गांधींना मानणारे समाजवादी. मात्र या समाजवादी नेतृत्वालाच सोबत घेऊन डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांना रिपब्लिकन पक्ष उभा करायचा होता. आंबेडकर स्वतःला समाजवादी म्हणवत असत. महाराष्ट्रातील समाजवादी नेते आणि कार्यकर्ते महाड आणि पर्वतीच्या सत्याग्रहात आधीच जोडले गेले होते. कर्पूरी ठाकूर यांनी समाजवादी रस्ता निवडला नसता तरच नवल.

डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या 'पिछडा पावे सौ में साठ' या मंत्राने उत्तर भारतातील राजकारण ढवळून निघालं. अतिपिछड्या आणि ओबीसी जातीं मधील नवं नेतृत्व भारतीय राजकारणाच्या क्षितिजावर उदय पावलं. स्वयं तेजाने.

हल्ली कोणी कोणाला मुख्यमंत्री केलं असले दावे केले जातात. या चर्चा फिजुल आहेत. बिहारच्या राजकारणात शिखरापर्यंत लालूप्रसाद यादव किंवा नितीशकुमार पोचले ते स्वयं प्रयत्नातून आणि आणि स्वयं प्रतिभेतून. त्यांच्यासह उत्तर भारतातील अनेक दलित आणि ओबीसी नेते उभे राहिले ते डॉ. राममनोहर लोहिया यांच्या वैचारिक प्रभावातून.

एक मात्र नक्की सांगता येईल, वैचारिक निष्ठेतून राजकारण करणाऱ्यांची बिहारमध्ये मोठी फळी होती आणि आहे. गांधी - आंबेडकर आणि लोहिया - जयप्रकाश यांना मानणारे हे समाजवादी नेते. आधीच्या पिढीतील बी. पी. मंडल, रामसुंदर दास, देवेंद्रप्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, रघुवंश प्रसाद असोत की नितीशकुमार किंवा लालूप्रसाद यादवांसारखे दिग्गज नेते असोत की त्यांच्या सोबतीने उभे राहिलेले अन्य नेते असोत, जसे की राजीव रंजन सिंह, विजय चौधरी, उपेंद्र कुशवाह, वशिष्ठ नारायण सिंह, शिवानंद तिवारी यांच्यापासून ते देवेशचंद्र ठाकूर, मनोजकुमार झा आणि कन्हैया कुमार पर्यंत बिहारमधील पुरोगामी विचारांचा प्रत्येक नेता लोहिया, जयप्रकाश यांच्यापाठोपाठ कर्पूरी ठाकूर यांना मानतो. कर्पूरी ठाकूर हे लोहिया, जयप्रकाश यांच्यासारखे दार्शनिक तत्ववेत्ते नसतील. तथापी आपल्या वैचारिक निष्ठा राजकिय सत्तेच्या माध्यमातून आविष्कृत करणारे ते पहिले मुख्यमंत्री. सामाजिक न्यायासाठी आपली सत्ता गमावणारे ते पहिलेच मुख्यमंत्री. त्याग आणि बलिदान यांचं महत्त्व राजकारणात आता कमी झालं असेल. पण त्याचं पहिलं उदाहरण कर्पूरी ठाकूर हेच आहेत.

पिछड्या वर्गांना न्याय देण्याच्या निर्धारातून कर्पूरी ठाकूर यांना सत्तेचा त्याग करावा लागला. मुंगेरीलाल कमिटीच्या शिफारशीतून ते वरिष्ठ जातीतल्या दुर्बलांनाही न्याय देणार होते. तरीही कर्पूरी ठाकूर यांना मुख्यमंत्री पद गमवावं लागलं.

कर्पूरी ठाकूर यांचं जन्मशाताब्दी वर्ष सुरू होत असताना तोच संघर्ष पुन्हा एकदा उभा राहिला आहे

नितीशकुमार यांनी जातनिहाय गणना आणि सामाजिक, आर्थिक पाहणीचा कार्यक्रम सुरू केला आहे. ज्यांना सामाजिक न्यायाची कल्पना मान्य नाही त्यांनी त्यांच्या सरकारच्या विरोधात सुरुंग पेरायला सुरवात केली आहे.

डॉ. आंबेडकर यांनी ओबीसींसाठी घटनेत कलम 340 अन्वये केलेली तरतूद, 'पिछडा पावे सौ में साठ' हा डॉ. राममनोहर लोहिया यांचा मंत्र, पिछडे - अतिपिछड्यांसाठी कर्पूरी ठाकूर यांनी केलेला प्रयास प्रत्यक्षात यशस्वीपणे बिहार राज्यात राबवणारे नितीशकुमार हे पहिले मुख्यमंत्री. जाती जनगणनेचा त्यांनी घेतलेला निर्णय हा धाडसाचाच म्हणावा लागेल.

कर्पूरी ठाकूर यांनी उच्च जातींच्या द्वेषातून कधीही कोणती कृती केली नाही. मात्र सामाजिक न्यायाच्या प्रश्नावर ते आग्रही होते. तरीही कर्पूरी ठाकूर यांना पायउतार व्हावं लागलं. पण त्या त्यागातून बिहारमध्ये वंचित, पीडित, शोषितांची मोठी फळी उभी राहिली. नितीशकुमार यांनी ही फळी एकत्र करत हा दुसरा मोठा प्रयोग सुरू केला आहे. त्यांचा पहिला प्रयोग अतिपिछड्यांना न्याय देण्याचा होता. तो कमालीचा यशस्वी झाला. अतिपिछडे, अतिदलित आणि सर्वच समाजातील स्त्रिया यांना समान भागीदारी देण्याचा निर्णय नितीशकुमार यांनीच देशात सर्वप्रथम घेतला. त्यातून बिहारमध्ये मजबूत तटबंदी उभी राहिली. 'न्याय'विरोधकांना ही तटबंदी कधीच भेदता आलेली नाही. उच्च जातीयांना न दुखावता काम करण्याची नितीशकुमारांची पद्धत आहे.

सीएए, एनआरसीचा प्रश्न असो की सामाजिक न्यायाचा. नितीशकुमार यांनी विरोधकांची बाजू नेहमीच पलटवली आहे. अन्य कोणत्याही राज्याला इतकी स्पष्ट सेक्युलर भूमिका घेताना सत्तेचा तोल सांभाळता आलेला नाही.

धर्मद्वेषाची चूड लावत ही एकजूट तोडण्याचा हर प्रयास देशातील प्रस्थापित सत्ताधारी करत राहतील. पण सुप्रीम कोर्टाने त्यांची याचिका फेटाळून जात गणनेचा मार्ग मोकळा केला आहे. जातगणनेचा मुद्दा फक्त बिहार पुरता मर्यादित नाही. देशातील सर्वच राज्यांसाठी तो कळीचा मुद्दा आहे. राजकारणाचा नाही. सामाजिक न्यायाचा आहे. वंचित समूहांच्या सामाजिक, आर्थिक प्रश्नांची गाठ त्यातून सुटू शकेल.

कर्पूरी शताब्दीला त्यांना अभिवादन करण्यासाठी यापेक्षा दुसरा मार्ग काय असू शकेल? नितीशकुमार आणि बिहार सरकारने स्वीकारलेल्या या मार्गाचा तर देशाला इंतजार आहे.

- कपिल पाटील
सदस्य, महाराष्ट्र विधान परिषद तथा नेशनल जनरल सेक्रेटरी, जनता दल (यूनाइटेड)